सर्दी की ठिठुरन से होने वाली मौतों की हकीकत


severe impact of cold weather on pedestrian and poor

 

इस समय देश के विभिन्न इलाकों में शीतलहर कहर बरपा रही है जिससे लोगों के मरने की खबरें भी आ रही हैं. इस तरह की खबरें आना कोई नई बात नहीं है. कहीं भूख और कुपोषण से होने वाली मौतें तो कहीं गरीबी और कर्ज के बोझ से त्रस्त किसानों के खुदकुशी करने के जारी सिलसिले के बीच ही हर साल सर्दी की ठिठुरन, बारिश-बाढ़ और गरम लू के थपेड़ों से भी लोग मरते हैं.

असमय होने वाली ये मौतें नग्न सच्चाइयां हैं हमारे उस भारत की जिसके बारे में दावा किया जाता है कि वह तेजी से विकास कर रहा है और जल्द ही दुनिया की एक महाशक्ति बन जाएगा. यह सच्चाइयां सिर्फ हमारी सरकारों के ‘शाइनिंग इंडिया’ और ‘भारत निर्माण’ ‘न्यू इंडिया’ ‘स्टार्टअप इंडिया’, ‘स्टैंडअप इंडिया’ जैसे कार्यक्रमों और अर्थव्यवस्था के बारे में किए जाने वाले गुलाबी दावों की ही खिल्ली नहीं उड़ाती हैं बल्कि व्यवस्था पर काबिज लोगों की नालायकी और संवेदनहीनता को भी उजागर करती है.

दुनिया में संभवत: भारत ही ऐसा देश है, जहां हर मौसम की अति होने पर लोगों के मरने की खबरें आने लगती हैं. लेकिन हकीकत यह है कि लोग मौसम की अति से नहीं मरते हैं, वे मरते हैं अपनी गरीबी से, अपनी साधनहीनता से और व्यवस्था तंत्र की नाकामी या लापरवाही की वजह से. यूरोप के देशों में सरकारें मौसम की अति का मुकाबला करने के चाकचौबंद इंतजाम करती हैं, इसलिए वहां लोग हर मौसम का तरह-तरह से लुत्फ उठाते हैं. हमारे देश में भी खाया-अघाया तबका ऐसा ही करता है, जिसके पास हर मौसम की अति का सामना करने के पर्याप्त साधन उपलब्ध हैं.

हमारे यहां हर साल की तरह इस बार भी सर्दी से मौत की खबरें आ रही हैं. एक गैर सरकारी संगठन ‘सेंटर फॉर होलिस्टिक डेवेलपमेंट’ (सीएचडी) की रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली में सर्दी के सितम से जनवरी के पहले पखवाड़े में ही 96 बेघर लोगों की मौत हो गई.

रिपोर्ट के मुताबिक दिसंबर 2018 से जनवरी 2019 के डेढ़ महीने के भीतर सर्दी से कुल 331 लोगों की मौत हो चुकी है. सीएचडी की अध्ययन रिपोर्ट के यह आंकड़े सिर्फ दिल्ली के हैं. अगर समूचे पूर्वोत्तर और पश्चिमोत्तर भारत के आंकड़े इकट्ठे किए जाए तो हर साल सर्दी से मरने वालों की संख्या हजारों में पहुंचती है. दिल्ली में जो लोग मरे, वे सब उन बेघर लोगों में से थे और काम की तलाश में देश के दूसरे राज्यों से दिल्ली आ जाते हैं. दिल्ली देश की राजधानी है और अगर यहां ऐसी हालत है तो सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि देश के दूसरे हिस्सों में बेघर लोगों को किन दुश्वारियों का सामना करना पड़ता होगा.

देश में ऐसे तमाम लोग हैं जो सिर्फ इसलिए दूरदराज के इलाकों से दिल्ली, मुंबई, कोलकाता आदि महानगरों या बड़े शहरों में आ जाते हैं ताकि मेहनत-मजदूरी कर अपने परिवार के जिंदा भर रह सकने लायक कुछ कमा सके. इनमें कोई साईकिल रिक्शा चलाते हैं, कोई रेस्त्राओं और ढाबों में काम करते हैं तो कोई किसी और काम में लग जाते हैं. लेकिन चूंकि ऐसे लोगों के पास रहने के लिए अपना कोई ठिकाना नहीं होता है, इसलिए खुले आसमान के नीचे रात गुजारना उनकी मजबूरी होती है.

गरमी या दूसरे मौसम में तो किसी तरह उनकी रातें कट जाती हैं, लेकिन कड़ाके की शीतलहर में एक रात भी सुरक्षित बीत जाने पर वे असीम राहत महसूस करते हैं. सर्दी के दिनों में ऐसे जानलेवा हालात का सामना करने वाले लोगों की तादाद लाखों में है. सवाल है कि अगर इन लोगों के सामने साधनहीनता एक लाचारी है तो कल्याणकारी मूल्यों पर चलने का दावा करने वाली सरकारों की क्या जिम्मेदारी बनती है?

जब हिमालय की पहाड़ियों पर बर्फ गिरती है और मैदानी इलाकों में शीतलहर चलती है तो देश के विभिन्न इलाकों में सर्दी की ठिठुरन से होने वाली मौतों के आंकड़े आने लगते हैं. हालांकि मौसम चक्र में आ रहे बदलाव के चलते सर्दी की शुरुआत कहीं जल्दी तो कहीं देरी से हुई, लेकिन दिसंबर शुरू होते ही सर्दी ने अपने तेवर दिखाने शुरू कर दिए. सर्दी जैसे-जैसे कड़ाके की शीतलहर में बदलती गई, वैसे-वैसे सर्दी के सितम से लोगों के मरने की खबरें आने लगी.

सर्दी सिर्फ पहाड़ों और गंगा-यमुना के मैदानों तक ही सीमित नहीं रही, बल्कि राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली, पंजाब, हरियाणा और रेगिस्तानी राजस्थान के साथ ही मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र और सुदूर छत्तीसगढ और ओडिशा तक ठंड से ठिठुर गए. कोहरे के कारण सड़क, रेल और हवाई यातायात बुरी तरह प्रभावित हुआ. नदी-नालों और तालाबों के जमने की खबरें भी आईं. कुछ जगहों पर तो पानी की आपूर्ति की पाइपलाइन तक जम गई.

वैसे सर्दी हमारे नियमित मौसम चक्र का ही हिस्सा है. कड़ाके की सर्दी इसका हल्का सा विचलन भर है. सर्दी और भीषण सर्दी अंत में हमें कई तरह से फायदा ही पहुंचाती है. सबसे बड़ी बात है कि कड़ाके सर्दी की सर्दी हमें आश्वस्त करती है कि ग्लोबल वार्मिंग उतनी सन्निकट नहीं है, जितना कि अक्सर हम मान बैठते हैं. मौसम की मौजूदा अति भी हमारे लिए कोई नई बात नहीं है. हर कुछ साल के बाद हमारा इससे सामना होता रहता है- कभी सर्दी में, कभी गर्मी तो कभी बारिश में.

मौसम कोई भी हो, जब भी उसकी अति दरवाजे पर दस्तक देती है तो हमारी सारी व्यवस्थाओं की पोल का पिटारा खुलने लगता है. फिलहाल सर्दी की बात की जाए तो हमेशा की तरह इस बार भी सबसे ज्यादा पोल खुली है पूर्वानुमान लगाने वाले मौसम विभाग की.

बारिश का मौसम खत्म होते ही हमें बताया गया था कि इस बार सर्दी कम पड़ेगी. जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग की चर्चाओं के बीच इस भविष्यवाणी पर किसी को भी हैरानी नहीं हुई. लेकिन जैसे ही सर्दी ने अपने तेवर दिखाने शुरू कर दिए तो फिर मौसम विभाग की ओर से बताया गया कि यह कड़ाके ठंड चंद दिनों की ही मेहमान है, जल्द ही मौजूदा उत्तर पश्चिमी हवाओं का रुख बदलेगा और तापमान सामान्य के करीब पहुंच जाएगा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ.

सर्दी के तेवर और तीखे हुए तो शीतलहर के एक चक्र की घोषणा हो गई. सिर्फ मौसम विभाग ही नहीं, बाकी सरकारी महकमों का भी यही हाल है. फुटपाथों, रेलवे स्टेशनों और भूमिगत पारपथों पर रात गुजारने वाले बेघर लोगों के लिए रैन बसेरों की व्यवस्था अभी भी कई जगह अधूरी है या बिल्कुल ही नहीं है, जबकि सुप्रीम कोर्ट कई बार इस मामले में राज्य सरकारों को फटकार लगाते हुए पुख्ता बंदोबस्त करने के निर्देश दे चुका है. जहां रैन बसेरों की व्यवस्था करना संभव नहीं है, वहां अलाव जलाने के लिए लकड़ी मुहैया कराई जाती है, लेकिन यह भी नहीं हो पा रहा है.

दरअसल शहरी और अर्ध शहरी इलाकों में मौसम की मार से लोगों के मरने के पीछे सबसे बड़ी वजह है शहरी नियोजन में सरकारी तंत्र की अदूरदर्शिता. जब से आवासीय कॉलोनियों की बसाहट के मामले में विकास प्राधिकरणों और गृह निर्माण मंडलों के बजाय निजी भवन निर्माताओं और कॉलोनाइजरों का दखल बढ़ा है, तब से रोज कमाकर रोज खाने वालों और बेघर लोगों के लिए आवासीय योजनाएं हाशिए पर खिसकती गई हैं.

करोड़ों लोग आज भी फुटपाथों, रेलवे स्टेशनों और बस अड्डों पर या टाट और प्लास्टिक आदि से बनी झोपड़ियों में रात बिताते हैं. बहुत से लोगों के पास तो पहनने को गरम कपड़े या ओढ़ने को रजाई-कंबल तो दूर तापने को सूखी लकड़ियां तक उपलब्ध नहीं हैं. ऐसे लोगों को मौसम की मार से बचाने के लिए अदालतें हर साल सरकारों और स्थानीय निकायों को लताड़ती रहती है, लेकिन सरकारी तंत्र की मोटी चमड़ी पर ऐसी लताड़ों का कोई असर नहीं होता.

शीतलहर, बाढ़ और भीषण गर्मी जैसी प्राकृतिक आपदाएं कोई नई परिघटना नहीं हैं. यह तो पहले से आती रही हैं और आती रहेंगी. इन्हें रोका नहीं जा सकता. रोका जा सकता है तो इनसे होने वाली तबाही को, जो सिर्फ राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र की ईमानदार इच्छा शक्ति से ही संभव है. ताजा शीतलहर और उससे होने वाली मौतें हमें बता रही है कि जब मौसम के हल्के से विचलन का सामना करने की हमारी तैयारी नहीं है और हमारी व्यवस्थाएं पंगु बनी हुई हैं, तो जब ग्लोबल वार्मिंग जैसी चुनौती हमारे सामने होगी तो उसका मुकाबला हम कैसे करेंगे?


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