आम चुनाव में दोधारी तलवार साबित हो सकता है सोशल मीडिया


facebook is developing device that would type after reading mind

 

आगामी लोकसभा चुनाव में सोशल मीडिया के दुरुपयोग की संभावना बढ़ गई है. हाल में फेक न्यूज, दुर्भावना से भरे मैसेज और ट्रोलिंग की घटनाओं के बढ़ने के बाद ह्वाट्स ऐप की मालिकाना कंपनी फेसबुक और ट्विटर को जनजागरूकता अभियान चलाना पड़ा है.

बावजूद इसके कई सोशल मीडिया साइट्स पर अब भी धड़ल्ले से झूठी खबरें फैलाई जा रही हैं. आगामी लोकसभा चुनाव में यह लोकतंत्र के लिए दोधारी तलवार बन गया है.

लोकसभा चुनाव 2019 में भारत के करीब 90 करोड़ मतदाता शामिल होंगे. निर्वाचन आयोग ने 10 मार्च को लोकसभ चुनाव की घोषणा कर दी है.  11 अप्रैल से करीब पांच सप्ताह तक मतदान का सिलसिला चलेगा.

लोकसभा चुनाव 2014 में सोशल मीडिया का जमकर इस्तेमाल हुआ था. बीते पांच साल में भारत में इंटरनेट डाटा सस्ता हुआ है और स्मार्ट फोन के उपयोगकर्ताओं की संख्या बढ़ी है. लेकिन साथ ही इसके दुरुपयोग और मतदाताओं को बरगलाने की संभावना भी पहले से काफी बढ़ गई है.

बीते दिनों में भारत फेसबुक का सबसे बड़ा बाजार बनकर उभरा है. माइक्रो-ब्लॉगिंग साइट ट्विटर भी भारत में बड़ी संभावना देख रही है.

चुनाव आयोग द्वारा सोशल मीडिया पर होने वाले चुनाव प्रचार को भी चुनावी खर्च में शामिल करना एक जरूरी कदम लगता है.

सोशल मीडिया, खासकर फेसबुक पर दुनिया के कई हिस्सों में चुनावों को प्रभावित करने के आरोप लगते रहे हैं. अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में फेसबुक पर उपयोगकर्ताओं का डेटा शोध संस्था कैम्ब्रिज एनालिटिका को बेचने के आरोप लगे हैं.  इसके साथ ही रूस पर फेसबुक के जरिए अमेरिकी मतदाताओं को प्रभावित करने का आरोप लगा है.

अमेरिका से प्रकाशित वेब पत्रिका सीएएन के मुताबिक, अमेरिका की तरह साल 2018 में मैक्सिको और ब्राजील में हुए चुनाव और साल 2019 में नाइजीरिया के चुनावों में झूठी खबरों को फैलाने में ह्वाट्स ऐप के इस्तेमाल के बाद इसकी मालिकाना कंपनी फेसबुक को कई कदम उठाने पड़े.

भारत की आबादी इन चारों देशों की कुल आबादी से कहीं ज्यादा है.

सीएनएन बिजनेस में छपी खबर के मुताबिक, फेसबुक इंडिया के पब्लिक पॉलिसी डायरेक्टर शिवनाथ ठुकराल कहते हैं, “हम कई महीनों से काम कर रहे हैं… हमने दुनियाभर के अनुभवों से सीखा है और उन्हें लागू करने की कोशिश कर रहे हैं ताकि इस प्लेटफार्म का दुरुपयोग नहीं किया जा सके.”

भारत की राजनीति में जाति और धर्म हावी रहते हैं. बीजेपी के शासन काल में अल्पसंख्यकों के साथ मॉब लिंचिंग की कई घटनाएं हुईं हैं. झूठी खबर और अफवाह की वजह पहले से जाति और धार्मिक आधार पर बंटे समाज की दूरियां बढ़ी हैं.

फैक्ट चेकिंग वेबसाइट ऑल्ट न्यूज के संस्थापक प्रतीक सिन्हा कहते हैं, ” चुनाव के समय इसमें तेजी आई है और इससे जान-माल का नुकसान होना करीब-करीब तय है.”

भारत में ह्वाट्स ऐप पर 20 करोड़ से अधिक लोग सक्रिय हैं. केवल साल 2018 में ह्वाट्स पर फैली अफवाहों के बाद दर्जनभर लोगों की हत्या मॉब लिंचिंग में कर दी गई. इनमें बच्चे चुराने से लेकर कई धार्मिक अफवाहें शामिल हैं.

अशोका यूनिवर्सिटी में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर गिलिस वेरिनियर कहते हैं कि सोशल मीडिया राजनीतिक दलों के लिए ‘लगातार बजने वाला भोंपू’ बन गया है.

वह कहते हैं, “जब बदनाम करने और राजनीतिक व्यंग्य से आगे बढ़कर सोशल मीडिया का इस्तेमाल सामाजिक दूरियों को बढ़ाने के लिए एक हथियार की तरह होने लगे तो इसके नुकसान चुनाव परिणामों के बाद भी होते हैं.”

वेरनियर कहते हैं, “किसी सूचना को काटने के लिए नई सूचना गढ़ी जाती हैऔर एक झूठ के लिए दूसरी झूठी जानकारी परोसी जाती है.”

राजनीतिक नेताओं के ये ‘भोंपू’ लगातार प्रबल बनते रहे हैं. ट्विटर पर नरेन्द्र मोदी के 460 लाख फॉलोवर हैं. जो कई वैश्विक नेताओं से कहीं ज्यादा है. साल 2015 में ट्विटर पर आने के बाद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के फॉलोवर की संख्या बढ़कर 90 लाख हो गई हैं. भारत के ज्यादातर राजनेता सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं. वहीं कई नेता ह्वाट्स ऐप और अन्य मैसेजिंग ऐप का इस्तेमाल छिपे तौर पर एजेंडा सेटिंग के लिए करते हैं.

साल 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी ट्विटर पर सबसे अधिक सक्रिय थे. लेकिन पिछले पांच साल में मायावती सहित कई नेता ट्विटर पर आ चुके हैं. वे इन प्लेटफार्म्स पर अपनी बात रखते हैं. लेकिन यह संवाद एकतरफा है. जनता के कमेंट का जवाब कोई राजनेता विरले ही देता है.

इंडिया कनेक्टेड किताब के लेखक रवि अग्रवाल कहते हैं,  “कौन आगे है, कौन पीछे जा रहा है, कौन स्मार्ट है और कौन नहीं… इसको लेकर एजेंडा सेटिंग ऐसे हो रही है जैसे टेलीविजन पर कभी नहीं हो पाई थी.”

शिवराज ठुकराल कहते हैं, “हमारी जिम्मेदारी है कि बुरे लोग और प्लेटफार्म का दुरुपयोग करने वाले बड़े खिलाड़ी नहीं बन पाएं. अब भी फेसबुक पर अच्छे विचारों, कहानियों और सुंदर सोच को साझा किया जाता है.”

साल 2014 में भारत में 2500 लाख इंटरनेट इस्तेमाल करते थे. पिछले पांच साल में यह संख्या बढ़कर 5600 लाख हो गई है. पिछले दो साल में मोबाइल डाटा की दर में 2,000 फीसदी की कमी आई है. आज लाखों लोग पहली बार इंटरनेट और मोबाइल का इस्तेमाल कर रहे हैं. वह झूठी खबरों से सबसे अधिक प्रभावित हो रहे हैं. राजनीतिक दलों के झांसे में ये लोग आसानी से आ जाते हैं. इंटरनेट के नए उपभोक्ता इंटरनेट पर फैले झूठ को पकड़ नहीं पाते हैं.

प्रतीक सिन्हा कहते हैं,”फोन रखना और इंटरनेट का इस्तेमाल करना अब काफी किफायती हो गया है. कमोबेश हरेक मोबाइल फोन में ह्वाट्स ऐप तो होता ही है, इस तरह से इसकी पहुंच काफी ज्यादा है. लेकिन इंटरनेट साक्षरता से अब भी ज्यादातर आबादी महरूम है.”

प्रतीक सिन्हा कहते हैं कि राजनीतिक दलों के पास पर्याप्त धन है जिससे वह अपने प्रोपेगेंडा को अंतिम व्यक्ति तक पहुंचाने में पूरी ताकत लगाएंगे. केन्द्र में सत्तारूढ़ बीजेपी को सबसे अधिक कॉरपोरेट चंदा मिला है. 

ह्वाट्स ऐप आपत्तिजनक कंटेट को रोकने के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का इस्तेमाल करता है, वहीं फेसबुक ने भारतीय फैक्ट चेकर के साथ साझेदारी की है. ट्विटर भी ऐसे लोगों की पहचान के लिए ट्वि-सर्फिंग कैंपेन चला रही है.

ट्विटर के ग्लोबल पब्लिक पॉलिसी हेड कोलिन क्रोवेल कहते हैं, “हम चुनाव प्रक्रिया की अखंडता के लिए मुक्त और खुली लोकतांत्रिक बहस को बढ़ावा देने को प्रतिबद्ध हैं. साल 2019 का चुनाव कंपनी के लिए प्राथमिकता में है.”

क्रोवेल और फेसबुक के प्रतिनिधि के साथ संसदीय समिति के समक्ष ऑनलाइन स्पेस में ‘नागरिकों के अधिकारों की रक्षा’ विषय पर अपनी बात रख चुके हैं.

10 मार्च को चुनाव कार्यक्रम की घोषणा करते हुए मुख्य चुनाव आयुक्त सुनील अरोड़ा ने कहा कि उम्मीदवारों के सोशल मीडिया एकाउंट भी आयोग के साथ साझा करने होंगे.

अरोड़ा ने कहा, “फेसबुक, ट्विटर, गूगल और यू-ट्यूब ने लिखित आश्वासन दिया है कि उनके प्लेटफार्म पर प्रसारित किसी भी राजनीतिक विज्ञापन का सत्यापन किया जाएगा.”

हाल के दिनों में शेयर चैट, हेल्लो, जैसे कई सोशल मीडिया प्लेटफार्म आ चुके हैं. संभावना है कि चुनाव आयोग से बचने के लिए राजनीतिक दल इन प्लेटफार्म की ओर रुख कर लें. भारतीय भाषाओं में कंटेट उपलब्ध करवाने वाले ये प्लेटफार्म हाल के दिनों में काफी लोकप्रिय हुए हैं.

ह्वाट्स ऐप ने पिछले साल मॉब लिंचिंग की घटना के बाद टीवी, रेडियो और समाचार पत्रों में फेक न्यूज के लिए जन जागरूकता फैलाने वाले विज्ञापन प्रसारित किए थे. इसके बाद पांच से अधिक लोगों को मैसेज भेजने पर प्रतिबंध लगा दिया गया है. यह रोक केवल भारत में ही लगाई गई है.

ह्वट्स ऐप ग्रुप में अधिकतम 256 सदस्य हो सकते हैं. रोक के बाद भी मैसेज को 1280 लोगों तक पहुंचाया जा सकता है.

एक बार झूठी खबर के प्रसारित होने पर इसके फैलाव को रोकना मुश्किल हो जाता है. लोकसभा चुनाव में तकनीक की असल परीक्षा होने वाली है. भारत इंटरनेट क्रांति का इस्तेमाल लोकतंत्र की मजबूती के लिए कर पाता है या इसका शिकार बनता है, यह देखना बाकी है.


Big News