भारतीय लोकतंत्र के वो दिलचस्प चुनावी मुकाबले


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वैसे तो हर चुनाव अपने आप में महत्वपूर्ण होता है लेकिन उनमें भी कुछ मुकाबले और उनके नतीजे काफी दूरगामी महत्व के होते हैं. कुछ मुकाबले ऐसे भी हैं जो भारतीय लोकतंत्र की विशिष्टता को बयान करते हैं. पिछले 16 आम चुनावों के दौरान कई मुकाबले ऐसे हुए हैं, जो न सिर्फ बेहद रोचक रहे बल्कि उनके नतीजों ने देश की राजनीति को गहरे तक प्रभावित किया.

ऐसे समय जब हम 17वें आम चुनाव के दौर से गुजर रहे हैं, अतीत में हुए इन चुनावी मुकाबलों पर गौर करना दिलचस्प होगा. आइए नजर डालते हैं कुछ महत्वपूर्ण चुनावी मुकाबलों पर-

नेहरू के खिलाफ लोहिया का मोर्चा (1962)

1962 में हुए तीसरे आम चुनाव में सबसे रोचक मुकाबला तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के लोकसभा क्षेत्र फूलपुर (उत्तर प्रदेश) में हुआ था, जहां उनके विरोध में राममनोहर लोहिया चुनाव मैदान में उतरे थे. उस चुनाव में लोहिया की करारी हार हुई थी.

नेहरू को कुल 1,18,931 वोट मिले जबकि लोहिया को मात्र 54,360 वोट ही हासिल हुए थे. नेहरू ने चुनाव के लिए नामांकन दाखिल करते वक्त एलान किया था कि पूरे चुनाव के दौरान वे अब अपने क्षेत्र में प्रचार के लिए नहीं आएंगे, लेकिन कुछ ही दिनों बाद उन्हें आना पड़ा.

इस चुनाव से ठीक पहले लोहिया ने कहा था, “मैं मानता हूँ कि दो बड़े नेताओं को एक दूसरे के खिलाफ चुनाव नहीं लड़ना चाहिए, लेकिन मैं नेहरू के खिलाफ चुनाव लड़ रहा हूँ तो इसलिए क्योंकि उन्होंने देश की जनता को ‘गोवा विजय’ की घूस दी है. यह राजनीतिक कदाचार है. अगर नेहरू चाहते तो गोवा पहले ही आजाद हो गया होता.”

लोहिया ने कहा, “दूसरी बात यह है कि प्रधानमंत्री नेहरू पर रोजाना 25 हजार रुपये खर्च होते हैं, जबकि देश की तीन चौथाई आबादी को प्रतिदिन दो आने भी नहीं मिलते हैं. नेहरू की यह फिजूलखर्ची भी एक तरह का भ्रष्टाचार है.”

उन्होंने कहा था, “मैं जानता हूँ कि मैं चट्टान से टकराने जा रहा हूँ. मैं चट्टान को तोड़ तो नहीं पाऊंगा लेकिन उसे दरका जरूर दूंगा. इस चुनाव में नेहरू जी की जीत प्राय: निश्चित है लेकिन मैं इसे प्राय: अनिश्चित में बदलना चाहता हूँ ताकि देश बचे और नेहरू को भी सुधरने का मौका मिले.”

लोहिया यह चुनाव हारने के एक साल बाद ही 1963 में उत्तर प्रदेश की फर्रुखाबाद सीट से उपचुनाव जीतकर लोकसभा में पहुंच गए. लोकसभा में पहुंचते ही उन्होंने नेहरू की सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया. प्रस्ताव पर बहस के दौरान उन्होंने जो भाषण दिया वह आज भी एक ऐतिहासिक दस्तावेज है.

अटल बिहारी जीते भी, हारे भी और जमानत भी जब्त हुई (1957)

पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के संसदीय जीवन की शुरुआत 1957 में दूसरे आम चुनाव से हुई थी. उन्होंने जनसंघ के टिकट पर उत्तर प्रदेश के तीन निर्वाचन क्षेत्रों बलरामपुर, लखनऊ और मथुरा से एक साथ चुनाव लड़ा था. बलरामपुर से तो वे जीत गए थे लेकिन लखनऊ और मथुरा में उन्हें हार का सामना करना पड़ा. मथुरा में तो उनकी जमानत भी जब्त हो गई थी. लखनऊ से कांग्रेस के पुलिन बिहारी बनर्जी ने उन्हें हराया था जबकि मथुरा से निर्दलीय उम्मीदवार राजा महेंद्र प्रताप की जीत हुई थी. इस चुनाव के बाद वाजपेयी की चुनावी हार-जीत का सिलसिला चलता रहा. कई बार लोकसभा चुनाव हारने पर उनकी पार्टी उन्हें राज्यसभा में भेजती रही.

कांग्रेस के खिलाफ साझा मोर्चा (1967)

1967 के आम चुनाव में कांग्रेस जीती जरूर लेकिन चुनाव के नतीजों में भविष्य के झंझावात की एक आहट सी छिपी हुई थी. सत्ता से कांग्रेस का एकाधिकार टूटने का संकेत मिल गया था. नेहरू के निधन के बाद इंदिरा गांधी कांग्रेस के सूबेदारों और बुजुर्ग नेताओं की आंखों की किरकिरी बन गई थीं और उन्होंने इंदिरा के नेतृत्व को चुनौती देने का मन बना लिया था.

1967 में लोकसभा के साथ ही विधानसभाओं के भी चुनाव हुए. मतदाताओं ने बेहद परिपक्वता का परिचय देते हुए देश को अनिश्चित भविष्य की ओर धकेले जाने से बचाने के लिए जहां केंद्र में सत्ता कांग्रेस को ही सौंपी वहीं विधानसभा चुनावों में कई राज्यों में कांग्रेस को हरा भी दिया. जनादेश के जरिए कांग्रेस कई राज्यों में सत्ता से बेदखल जरूर हो गई लेकिन कोई और पार्टी भी इतनी सीटें नहीं जीत सकी कि अपने दम पर सरकार बना सके. ऐसी स्थिति में डॉ. लोहिया ने तात्कालिक रणनीति के तौर पर गैर कांग्रेसवाद का नारा दिया.

लोहिया के इस नारे ने खूब रंग दिखाया. देश के नौ प्रमुख राज्यों में पहली बार गैर कांग्रेसी संविद यानी संयुक्त विधायक दल की सरकारें बनीं. कांग्रेस से अलग होकर उत्तर प्रदेश में चौधरी चरण सिंह ने भारतीय क्रांति दल (बीकेडी) बनाया तो ओडिशा में बीजू पटनायक ने बगावत कर उत्कल कांग्रेस का गठन कर लिया. पश्चिम बंगाल में अजय मुखर्जी ने बांग्ला कांग्रेस बनाई.

समाजवादियों और जनसंघ के साथ मिलकर बिहार में भी गैर कांग्रेसी खेमे के नायक पुराने कांग्रेसी महामाया प्रसाद बन गए थे. इस सबसे यह भी साबित हुआ कि अलग-अलग विचारधाराओं की वकालत करने वाले गैर कांग्रेसी दलों ने शायद अपनी विचारधारा से ज्यादा व्यावहारिकता को अहमियत दी. इसीलिए कम्युनिस्ट, सोशलिस्ट, जनसंघ और स्वतंत्र पार्टी वाले सभी लोग एक मंच पर आकर गैर कांग्रेसी संविद सरकारें बनाने को तैयार हुए. उस समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्र आर्गेनाइजर में उसके तत्कालीन संपादक के.आर. मलकानी ने लिखा था कि संविद सरकारें कांग्रेस की सरकारों से अच्छी साबित होंगी, क्योंकि हम कम्युनिस्टों को राष्ट्रवाद सिखा देंगे और उनसे हम समाजवाद और समानता का दर्शन सीख लेंगे.

इंदिरा, लोहिया, जार्ज, रवि राय पहुंचे लोकसभा में (1967)

1967 का चुनाव जीतकर कई दिग्गज पहली बार लोकसभा में पहुंचे थे. इंदिरा गांधी, जार्ज फर्नांडिस, रवि राय, नीलम संजीव रेड्डी, युवा तुर्क रामधन आदि इसी श्रेणी में शामिल थे. इंदिरा गांधी रायबरेली से जीतीं, जहां से पहले उनके पति फिरोज गांधी जीतते थे. राममनोहर लोहिया 1963 में फर्रुखाबाद से उपचुनाव जीते थे लेकिन 1967 में ही वे पहली बार आम चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचे. उत्तर प्रदेश की कन्नौज सीट से मात्र 471 मतों से उनकी जीत हुई थी.

जनसंघ के नेता बलराज मधोक दक्षिण दिल्ली से चुनाव जीते. जार्ज फर्नांडिस सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर मुंबई दक्षिण से कांग्रेस के दिग्गज एसके पाटिल को हराकर जीते थे. ओडिशा की पुरी सीट पर सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर ही रवि राय भी जीते. बिहार के मधेपुरा से इसी पार्टी के टिकट पर बीपी मंडल भी लोकसभा में पहुंचे, जो बाद में बहुचर्चित मंडल आयोग के अध्यक्ष बने.

इंदिरा से चुनाव में हारे राजनारायण अदालत में जीते (1971)

1971 के आम चुनाव में इंदिरा गांधी एक बार फिर रायबरेली से चुनाव लड़ीं और जीतीं. उन्होंने बहुचर्चित समाजवादी नेता राजनारायण को मतों के भारी अंतर से हराया. लेकिन इंदिरा गांधी की यही जीत आगे चलकर उनके राजनीतिक पतन का कारण भी बनी.

राजनारायण ने इंदिरा गांधी के निर्वाचन की वैधता को इलाहाबाद हाई कोर्ट में चुनौती दी. उनका आरोप था कि इंदिरा गांधी ने चुनाव जीतने के लिए सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग किया. न्यायाधीश जगमोहनलाल सिन्हा ने राजनारायण के आरोपों को सही पाया और इंदिरा गांधी के चुनाव को अवैध करार देते हुए उन्हें पांच वर्ष के लिए कोई भी चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य करार दे दिया. इस तरह चुनाव मैदान में हारे राजनारायण इंदिरा गांधी को अदालत में हराने में कामयाब हो गए. उसी दौरान जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में बिहार से शुरू हुआ आंदोलन भी तेज हो गया था.

विपक्षी दलों ने भी इंदिरा गांधी पर इस्तीफे के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया था. लेकिन इंदिरा गांधी ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले को मानने के बजाय उसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी और विपक्षी दलों पर अपनी सरकार को अस्थिर करने तथा देश में अराजकता फैलाने का आरोप लगाते हुए देश में आपातकाल लगा दिया. इस सबकी परिणति 1977 के आम चुनाव में इंदिरा गांधी और कांग्रेस के ऐतिहासिक पराभव के रूप में हुई.

रामनाथ गोयनका जीते, के.के. बिड़ला हारे (1971)

अखबार मालिकों और उद्योगपतियों के राज्यसभा में जाने के तो कई उदाहरण हैं और आगे भी मिलते रहेंगे, लेकिन ऐसे उदाहरण कम ही है कि अखबार मालिक लोकसभा चुनाव लड़े हों. इस मामले में 1971 के आम चुनाव को शायद हमेशा याद किया जाता रहेगा.

इस बार चुनाव मैदान में दो बड़े अखबार घरानों के मालिक भी उतरे. किस्मत ने एक का साथ दिया लेकिन एक को दगा दे गई. दोनों कोई छोटे-मोटे नाम नहीं थे. एक थे इंडियन एक्सप्रेस समूह के मालिक रामनाथ गोयनका और दूसरे थे हिंदुस्तान टाइम्स समूह के मालिक के.के. (कृष्ण कुमार) बिड़ला. गोयनका अपने सत्ता प्रतिष्ठान विरोधी रुख को लेकर जाने जाते थे तो बिड़ला की छवि सत्ता समर्थक की थी.

गोयनका मध्य प्रदेश के विदिशा संसदीय क्षेत्र से जनसंघ के टिकट पर चुनाव लड़े थे. उन्होंने कांग्रेस के मणिभाई पटेल को हराया था. दूसरी ओर राजस्थान के झुंझुनू संसदीय क्षेत्र से स्वतंत्र पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़े के.के. बिड़ला को कांग्रेस के शिवनाथ सिंह के मुकाबले करारी हार का सामना करना पडा था. इस आम चुनाव में इंदिरा गांधी की लहर थी. के.के. बिड़ला चाहते तो कांग्रेस की उम्मीदवारी भी हासिल कर सकते थे लेकिन वे स्वतंत्र पार्टी के टिकट पर क्यों लडे और कैसे हार गए और गोयनका क्यों जीत गए? यह रहस्य आज तक रहस्य ही है.

जबलपुर का ऐतिहासिक उपचुनाव (1974)

पांचवीं लोकसभा के दौरान 1974 में मध्य प्रदेश की जबलपुर सीट के लिए हुए उपचुनाव कई मायनो में ऐतिहासिक महत्व का रहा, जिसमें शरद यादव जीते थे. यह सीट सुप्रसिद्ध हिंदी सेवी और संविधान सभा के सदस्य रहे सेठ गोविंद दास के निधन से खाली हुई थी.

सेठ गोविंददास इस सीट पर कांग्रेस के टिकट पर 1952 से लगातार जीतते आ रहे थे. जिस समय यह उपचुनाव हुआ उस समय जयप्रकाश नारायण (जेपी) के नेतृत्व में राष्ट्रव्यापी छात्र आंदोलन पूरे चरम पर था. शरद यादव उस समय जबलपुर विश्वविद्यालय छात्रसंघ के अध्यक्ष थे और आंदोलन के सिलसिले में ही आंतरिक सुरक्षा कानून के तहत जेल में बंद थे. जेपी की पहल पर उन्हें सभी विपक्षी दलों की ओर से जनता उम्मीदवार बनाया गया. वे जेल में रहते हुए ही चुनाव लड़े और जीते. उन्होंने कांग्रेस के टिकट पर लड़े सेठ गोविंद दास के बेटे रविमोहन दास को हराया. हालांकि वे ज्यादा दिन तक लोकसभा के सदस्य नहीं रहे.

आपातकाल के दौरान 1976 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मनमाने तरीके से लोकसभा का कार्यकाल पांच से बढ़ाकर छह वर्ष कर दिया तो उनके इस कदम के विरोध में जेपी के आह्वान पर शरद यादव ने समाजवादी नेता मधु लिमये के साथ जेल में रहते हुए ही लोकसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया. जबलपुर में जनता उम्मीदवार का जेपी का यह प्रयोग ही आगे चलकर 1977 में उस जनता पार्टी के गठन की प्रेरणा बना, जिसने सत्ता पर दो दशक पुराने कांग्रेस के एकाधिकार को खत्म करने का ऐतिहासिक काम किया.

जेल में रहते हुए जीते थे जार्ज फर्नांडिस (1977)

आपातकाल के बाद 1977 के आम चुनाव में सबसे ऐतिहासिक जीत बिहार के मुजफ्फरपुर संसदीय क्षेत्र से जार्ज फर्नांडिस की हुई थी. फायरब्रांड समाजवादी नेता जार्ज ने जनता पार्टी के टिकट पर यह चुनाव जेल में रहते हुए लड़ा था, क्योंकि इंदिरा गांधी की सरकार ने उन्हें बहुचर्चित बड़ौदा डायनामाइट कांड के सिलसिले में राजद्रोह का अभियुक्त बनाया था. जार्ज उस समय दिल्ली की तिहाड़ जेल में बंद थे और जेल में रहते हुए ही उन्होंने चुनाव में अपनी नामजदगी का पर्चा दाखिल किया था. वे जेल में रहते हुए भी कांग्रेस के नीतीश्वर प्रसाद सिंह के मुकाबले तीन लाख से भी ज्यादा वोटों से जीते थे. चुनाव नतीजे आने के बाद ही जार्ज जेल से बाहर आ पाए थे.

संसद का सफर तय करने में नेत्रहीनता बाधक नहीं बनी

1977 के आम चुनाव में उत्तर भारत में चली कांग्रेस विरोधी लहर में चुनाव जीतने वालों में एक उम्मीदवार ऐसे भी थे जो पूरी तरह नेत्रहीन थे. जनता पार्टी के टिकट पर मध्य प्रदेश के रीवा संसदीय क्षेत्र से जीतने वाले ये नेत्रहीन उम्मीदवार थे समाजवादी नेता यमुना प्रसाद शास्त्री. वे भारत के संसदीय इतिहास में एकमात्र ऐसे सांसद बने जो देख नहीं सकते थे.

यमुना प्रसाद शास्त्री कुदरती तौर पर नेत्रहीन नहीं थे, बल्कि आजाद भारत में पुलिसिया जुल्म ने उनकी आंखें छीन ली थीं. उन्होंने राममनोहर लोहिया के नेतृत्व में चले गोवा मुक्ति आंदोलन में सक्रिय भागीदारी की थी. आंदोलन के दौरान पुर्तगाली पुलिस ने उन्हें इस कदर पीटा था कि उनकी दाहिनी आंख की रोशनी 1955 में चली गई. जो दूसरी आंख बची थी उसकी रोशनी 1975 मे आपातकाल के ठीक पहले तब चली गई जब वे मध्य प्रदेश के विंध्य क्षेत्र में सोशलिस्ट पार्टी के झंडे तले हुए किसान आंदोलन की अगुवाई कर रहे थे.

उस आंदोलन के दौरान पुलिस ने इस कदर जुल्म ढाया कि उनकी बाईं आंख की रोशनी भी चली गई. लेकिन उनकी नेत्रहीनता उनके संघर्षशील राजनीतिक सफर में बाधक नहीं बन सकी. वे 1962 से 1967 तक मध्य प्रदेश विधानसभा के सदस्य रहे. आपातकाल के दौरान पूरे 19 महीने जेल में रहे यमुना प्रसाद शास्त्री 1977 में जनता पार्टी के टिकट पर रीवा संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़े. इस चुनाव में उनका मुकाबला रीवा रियासत के पूर्व महाराजा मार्तण्ड सिंह से था जो कांग्रेस समर्थित निर्दलीय उम्मीदवार थे.

यमुना प्रसाद शास्त्री दूसरी बार 1989 में भी इसी क्षेत्र से जनता दल के टिकट पर फिर लोकसभा के लिए चुने गए. इस बार उन्होंने रीवा राजघराने की ही प्रवीण कुमारी देवी को हराया. नेत्रहीन होते हुए भी दो बार लोकसभा का चुनाव जीतकर यमुना प्रसाद शास्त्री ने जो कीर्तिमान बनाया उससे साबित हो गया कि भारतीय लोकतंत्र में मन की आंखों से देखने वालों के लिए भी जगह है. देश के समाजवादी आंदोलन के माध्यम से राजनीति में लंबा सफर तय करने वाले यमुना प्रसाद शास्त्री का 20 जून 1997 को निधन हो गया.


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