उत्तर प्रदेश: सपा-बसपा गठबंधन कितना असरदार


its time to think from a new point of view

 

उत्तर प्रदेश की दो प्रमुख पार्टियों सपा और बसपा ने गठबंधन की आधिकारिक घोषणा कर दी है. दोनों पार्टियां 38-38 सीटों पर चुनाव लड़ेगी. यह निश्चित तौर पर देश की राजनीति में एक महत्वपूर्ण घटना है.

80 लोकसभा सीटों के साथ उत्तर प्रदेश, केंद्र सरकार के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है. राज्य में सपा-बसपा दो बड़े दल हैं, जो अकेले दम पर पहले भी कई बार सरकार बना चुके हैं. अब इनके साथ आने की वजह से बीजेपी के भविष्य पर सवाल उठना लाजिमी है.

2014 के लोकसभा चुनाव हों या 2017 के विधानसभा चुनाव बीजेपी राज्य में लगातार अच्छा प्रदर्शन करती रही है. केंद्र में बीजेपी के नेतृत्व में बनी एनडीए सरकार में उत्तर प्रदेश के मतदाताओं ने महती भूमिका निभाई थी. खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राज्य की वाराणसी लोकसभा सीट से जीतकर आए थे. लेकिन अब गठबंधन एक चुनौती के रुप में उनके सामने आ धमका है.

गठबंधन कितना असरदार?

सपा और बसपा के एक साथ आने से बीजेपी को बड़ा नुकसान होगा इसमें कोई संदेह नहीं है. आंकड़े भी कुछ ऐसी ही गवाही दे रहे हैं. पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी उत्तर प्रदेश में अपना दल के साथ मिलकर लड़ी थी.

इस चुनाव में उसे उम्मीद से कहीं बड़ी सफलता मिली. बीजेपी ने 80 लोकसभा सीटों में से 71 सीटें पर जीत दर्ज की थी. दो सीटें उसकी सहयोगी पार्टी अपना दल को मिली थी. इस तरह 73 सीटों के साथ उसने धमाकेदार जीत दर्ज की थी.

इन चुनावों में बीजेपी को संयुक्त रूप से 43.3 फ़ीसदी वोट मिले थे. बाकी वोट विपक्षी दलों में बंट गए थे. जिनमें से सपा को 22.4 फ़ीसदी मतों के साथ पांच सीटें मिली थीं. जबकि इस गठबंधन की दूसरी बड़ी पार्टी बसपा को 19.8 फ़ीसदी मत मिले थे. लेकिन पार्टी कोई सीट जीतने में कामयाब नहीं हो पाई थी. अब अगर विपक्षी दलों के कुल मतों को देखें तो ये लगभग बीजेपी के बराबर ही ठहरते हैं.

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय लोकदल काफी असरदार है. ये पार्टी बड़े पैमाने पर जीत दर्ज करने में भले ही सफल ना हो, लेकिन चुनाव परिणामों को प्रभावित करने की क्षमता जरूर रखती है. यहां जाट मतदाताओं में ये पार्टी काफी लोकप्रिय है. बीते साल कैराना उपचुनाव में ये बात साबित भी हो चुकी है.

पूर्वी उत्तर प्रदेश में निशाद पार्टी के रूप में एक नए खिलाड़ी का प्रवेश भी हो चुका है. करीब 14 फ़ीसदी आबादी के साथ ये पार्टी अपनी मजबूत दावेदारी पेश कर रही है. हालांकि सपा-बसपा गठबंधन की तरफ से रालोद और निशाद पार्टी को लेकर कोई बयान जारी नहीं किया गया है. लेकिन अगर ये दल एक साथ आए तो बीजेपी का सूपड़ा साफ हो सकता है.

राज्य में 2017 के विधानसभा चुनावों में भी बीजेपी जीत दर्ज करने में सफल रही थी. लेकिन इस दौरान संयुक्त विपक्ष के कुल मतों में इजाफा ही हुआ है.

उपचुनाव के संकेत

बीते साल राज्य में हुए उपचुनावों ने गठबंधन की सफलता पर एक तरह से मुहर लगा दी थी. लेकिन क्या ये आगे भी इसी तरह सफल रहेगा? ये काफी कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि ये दल अपने वोट को अपने सहयोगी दलों को दिलवा पाएंगे या नहीं.

2014 के लोकसभा चुनाव हों या 2017 के विधानसभा चुनाव बसपा के वोट फ़ीसदी में कोई खास कमी नहीं देखी गई है. बीते कुछ चुनावों में ये भी देखा गया है कि बसपा के वोट उसके सहयोगियों के साथ आसानी से चले गए हैं. लेकिन क्या सपा के वोट भी इसी तरह बसपा को मिलेंगे ये अभी पूरी तरह से सुनिश्चित नहीं है.

अगर पिछले साल फूलपुर में हुए उपचुनाव की बात करें तो यहां बसपा के पारंपरिक मतदाताओं ने सपा उम्मीदवार को अपने वोट दिए थे. इन चुनावों में गठबंधन को 46 फ़ीसदी से अधिक वोट मिले थे.

गोरखपुर का हाल भी कुछ ऐसा ही हुआ था. ये सीट उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की लोकसभा सीट थी. इसे उनका गढ़ माना जाता था. मुख्यमंत्री बनने के बाद उनके इस्तीफे से खाली हुई सीट पर गठबंधन के उम्मीदवार ने जीत दर्ज की थी.

यहां से निशाद पार्टी का उम्मीदवार सपा के टिकट पर चुनाव लड़ा था. जहां उसे बसपा का वोट भी आसानी से मिल गया था.

कैराना में हुए उपचुनाव का परिणाम भी गठबंधन के पक्ष में रहा था. यहां सपा की तबस्सुम हसन रालोद के टिकट पर चुनाव लड़ी थी. जहां उनको बसपा का भी समर्थन मिला था. कैराना सांप्रदायिक रूप से काफी संवेदनशील माना जाता रहा है.

पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कुछ सीटों पर मुस्लिम वोटर महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. इसके अलावा जाट और जाटव भी काफी अच्छी तादाद में हैं. इस चुनाव में जहां सपा की ओर से मुस्लिम वोटों को गोलबंद किया गया वहीं रालोद मुखिया जयंत चौधरी ने जाट वोटों को अपनी ओर आकर्षित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. इसका परिणाम ये हुआ कि तबस्सुम हसन को 51.3 फ़ीसदी वोट मिले.

गठबंधन की सुगबुगाहट तो काफी पहले से ही चल रही थी और शुरुआत में इसमें कांग्रेस को भी हिस्सेदारी मिलने की उम्मीद जताई जा रही थी. लेकिन फिलहाल ऐसा होता नहीं दिख रहा है.

जानकारों के मुताबिक बसपा अध्यक्ष मायावती की कांग्रेस से दूरी बनाए रखने के चलते उसे गठबंधन में जगह नहीं मिल पाई. गठबंधन की घोषणा के समय मायावती ने कांग्रेस और बीजेपी को एक जैसा बताकर इस तरह की किसी भी संभावना को सिरे नकार दिया.

उधर बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह उत्तर प्रदेश में 73 से 74 सीटें जीतने का दावा कर रहे हैं. अब परिणाम जो भी हो, वोटों का गणित और पिछले कुछ उपचुनावों से मिले रुझान गठबंधन की सफलता की ओर इशारा कर रहे हैं. अब यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि ये गठबंधन नरेंद्र मोदी को एक बार फिर से लोक कल्याण मार्ग पहुंचने से रोक पाने में सफल होता है या नहीं.


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