अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस: ‘पीरियड’ पर सवाल क्यों?


stigma with women's periods in india

 

मार्च का महीना आते ही ‘महिला सशक्तिकरण’ पर कार्यक्रमों में इजाफा हो जाता है. पूरा महीना भारत में महिलाओं के साथ बलात्कार, छेड़छाड़, घरेलू हिंसा, दहेज, एसिड अटैक आदि पर सेमिनार आयोजित होते हैं. इन मुद्दों ने पूरी दुनिया का ध्यान भारत की ओर खींचा है. यह मुद्दे विदेशी अखबारों की सुर्खियां तक बने लेकिन इनके अलावा एक मुद्दा ऐसा है जिसके चलते हर दिन महिलाएं घरों के अंदर प्रताड़ित और शर्मिंदा होती हैं. अपवित्र मानी जाती हैं और अपमानित होती हैं. मासिक धर्म या माहवारी आज भी ऐसा मुद्दा है जिसपर ज्यादातर परिवारों, जातियों और धर्मों के लोग फुसफुसा कर या आंखों के इशारों से बात करते हैं.

हाल ही में भारत में माहवारी से जुड़ी वर्जनाओं पर आधारित डॉक्यूमेंट्री ‘पीरियड: एंड ऑफ सेंटेंस’ ने डॉक्यूमेंट्री शॉर्ट सब्जेक्ट की श्रेणी में ऑस्कर पुरस्कार हासिल किया है. इससे बेशक दुनिया की नज़र में यह मुद्दा बना. लेकिन यह इतना बड़ा मुद्दा है कि इस पर एक फिल्म काफी नहीं. इसे एक आंदोलन का रूप दिए जाने की ज़रूरत है. इस फिल्म के निर्माण में शुरू से लेकर अंत तक जुड़ी एक्शन इंडिया की सुलेखा सिंह अभी ही लॉस एंजलिस से लौटी हैं. वह बताती हैं ‘फिल्म से जुड़ने से पहले मेरे घर में मासिक धर्म पर खुलकर बात नहीं होती थी,मेरी दो जवान बेटियां कभी अपने पिता से इसका ज़िक्र नहीं करती थीं लेकिन अब ऐसा नहीं है.’ वह बताती हैं कि लॉस एंजलिस में भी दुनिया भारत में माहवारी के दौरान महिलाओं के खिलाफ प्रतिबंधों को देखकर हैरान थी. सुलेखा सिंह कहती हैं कि यह इतना ज़रूरी मुद्दा है कि इसे एक मुहिम बनाना होगा.

पितृसत्तामक समाज में माहवारी के दौरान महिलाओं का उत्पीड़न, उन पर तरह-तरह के सामाजिक प्रतिबंध और उनका अपमान होना आज भी एक सच है. एक अनुमान के मुताबिक़ देशभर में करीब 35 करोड़ महिलाएं उस उम्र में हैं, जब उन्हें माहवारी होती है. लेकिन इनमें से करोड़ों महिलाओं के लिए माहवारी अभिशाप है.
गाहे बगाहे हमें अपमान से जुड़ी दूर-दराज के पहाड़ी क्षेत्रों की कहानियां सुनने को मिलती रहती हैं. लेकिन यह लगभग पूरे देश का सच है. अलग-अलग राज्यों में इसे लेकर अलग-अलग रिवाज़ हैं.

मैं कई दफा सोचती हूं कि जब हमारे जैसी महिलाएं इससे नहीं बच सकीं तो दूर दराज, गांव-कस्बों की स्थितियां कितनी भयावह होंगी.

हाल ही में मैं अपने एक रिश्तेदार के घर पर गई. मैं नहीं जानती थी कि उनके घर उस दिन हवन है. हवन खत्म होते ही पंडित जी के लिए चाय बनकर आई. पंडित जी के कप में चाय कम थी तो उन्होंने बोला कि उनका कप चाय से भर दें. मैंने बोला कि मैंने चाय अभी पीनी शुरू नहीं कि है, मेरे कप से चाय निकाल ली जाए. उन्होंने मेरे कप से अपने कप में चाय उड़ेल ली. फिर पीने से पहले पूछा ‘आप साफ-सुथरी हैं.’ मैं समझ नहीं पाई. फिर समझ आया तो मैंने कहा कि नहीं मेरे पीरिड्यस चल रहे हैं. उन्होंने चाय का कप वहीं रख दिया, बोले यह अपवित्र चाय है,उनके लिए नई चाय बनाई जाए. जबकि मैंने उस चाय को छुआ तक नहीं था. यह चंद दिन पहले की बात है.

इसी के साथ फिर मुझे याद आया कि हमारे घर में माहवारी के दौरान क्या-क्या प्रतिबंध थे जो हमें भी नहीं पता लगा कि वह नानी-दादी के वक्त से कैसे हमारी आदत में भी आ गए. मुझे अच्छे से याद है कि हमारी नानी माहवारी के दौरान हमें तुलसी को पानी नहीं देने दिया करती थी. पूजा-पाठ का तो सवाल ही नहीं.

मुझे यह भी याद है कि जब मेरे बेटा हुआ था तो जब भी कोई पड़ोसी या रिश्तेदार मेरे बेटे को देखने आता था तो मेरी बुआ-मामी उन्हें बेटा दिखाने से पहले पूछ लेती थीं कि माहवारी तो नहीं है. उस वक्त तो मैंने भी कभी ध्यान नहीं दिया. लेकिन ‘पीरियडः एंड ऑफ सेंटेंस’ फिल्म के बहाने मुझे एक-एक करके कई चीज़ें याद आईं.

बेशक ‘पैडमैन’ जैसी कितनी ही फिल्में रिलीज़ हो जाएं या खून से सने पैड की तस्वीरें सोशल मीडिया पर वायरल हो जाएं. लेकिन सच्चाई यही है कि मासिक धर्म को आज भी पढ़े लिखे परिवारों और समाज में अभिशाप ही समझा जाता है.

कहीं अचार को हाथ नहीं लगाना है तो कहीं इस दौरान उन्हें अलग कमरे में रखा जाता है, वह रसोई में नहीं जा सकती हैं, तो कहीं अनाज वाले कमरे में नहीं जा सकती हैं. कहीं पौधों को पानी नहीं दे सकती हैं तो कहीं नवजात बच्चे को नहीं छू सकती हैं. खेत में बीज नहीं बो सकती हैं जैसे तमाम तरह के प्रतिबंध लगाए जाते हैं.

पंजाब यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के दौरान बागेश्वर (उत्तराखंड) की मेरी एक दोस्त थी अनामिका. वह बताती थी कि उत्तराखंड में माहवारी के दौरान उन्हें सात दिन तक अलग कमरे में रहना पड़ता है. माहवारी के मुद्दे पर देश-विदेश में काम करने वाली नामी गिरामी एक्टिविस्ट उर्मिला चनम बताती हैं कि पीरियडः एंड ऑफ सेंटेंस फिल्म को मिले ऑस्कर से भारत में एक तबके ने इसकी मुखालफत की है. उनका कहना है कि इससे भारत की बदनामी हुई है. उर्मिला के अनुसार यह बात आहत करती है कि हम भारतीय सच को स्वीकार नहीं करते हैं. इन बातों से लगता है कि भारतीय हथेली पर कांच की तरह इज्ज़त लेकर घूमते हैं, जो सच सामने आते ही टूट जाती है.

कई घरों में इसे लेकर शर्म का आलम यह है कि लड़की के सिर में दर्द है, पेट में दर्द है, वह उल्टियां कर रही है, बार-बार कपड़ा धो रही है, उसे सुखा रही है लेकिन सब मुंह में दही जमाए देखते रहते हैं. घर के पुरुषों से पैड मंगवाने का सोच भी नहीं सकते. वह लाचार सब अकेले ही मैनेज करती हैं.

उर्मिला बताती है कि आज भी यह एक शर्म का मुद्दा इसलिए है क्योंकि हमने अपनी बेटियों से कभी इस बारे में बात नहीं की. हमने उन्हें हमेशा अंडर गार्मेंट्स चुन्नी के नीचे छिपाकर सुखाने की हिदायत दी. हमने अगर माहवारी के बारे में बेटियों से बात करनी शुरू की तो हमने बेटों को साइड लाइन कर दिया. जबकि इसे आंदोलन बनाने के लिए लड़कों और पुरुषों को साथ लेकर चलना होगा. उर्मिला का कहना है कि इसके लिए वह ‘मैन टेक लीड’ नाम से कार्यक्रम चला रही हैं.

ऐसा भी नहीं है कि आंदोलन की वजह से इसमें कोई बदलाव नहीं आया है, लेकिन अभी बहुत काम की ज़रूरत है.


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