बढ़ता सोलर ई-वेस्ट, पर कानून कहां है?
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बिजली उत्पादन के गैर-परंपरागत स्रोत के तौर पर सोलर पैनल का इस्तेमाल हाल के कुछ वर्षों में ज्यादा प्रचलित हुआ है. बिजली उत्पादन का यह स्त्रोत परंपरागत बिजली उत्पादन के स्त्रोतों की तुलना में ज्यादा ‘क्लीन’ और ‘ग्रीन’ माना जाता है.
लेकिन इन सब फायदों को बीच सोलर ई-वेस्ट मैनेजमेंट की चुनौती गंभीर रूप ले रही है .
जानकारों के मुताबिक, अगर भारत सोलर ई-वेस्ट के निपटान पर ध्यान नहीं देता है तो आने वाले वर्षों में उसे बड़ी समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है. भारत में तेजी से बढ़ते सोलर सेक्टर बाजार के बावजूद सोलर ई-वेस्ट मैनेजमेंट के लिए अब तक कोई स्पष्ट नीति नहीं है.
ई-वेस्ट मैनेजमेंट के मौजूदा कानूनों पर नजर डालें तो पता चलता है कि सोलर सेल उत्पादकों के पास सोलर ई-वेस्ट से निपटने की कोई नीति नहीं है और ना ही सरकार ने इस संबंध में कोई नीति बनाई है.
द हिंदू में छपी खबर के मुताबिक, ब्रिज टू इंडिया (बीटीआई) नामक एनर्जी कंसलटेंसी फर्म ने अपनी हालिया रिपोर्ट में चिंता जाहिर की है कि “भारत में साल 2030 तक करीब 2 लाख टन फोटोवॉल्टिक वेस्ट (पीवी) निकलेगा. यह साल 2050 तक बढ़कर 18 लाख टन हो जाएगा.”
भारत में सरकार ने साल 2022 तक 100 गीगावाट सोलर पावर उत्पादन का लक्ष्य रखा है. यही वजह है कि आज वैश्विक स्तर पर भारत सोलर सेल उत्पादकों के लिए एक बढ़ता हुआ बाजार है.
फिलहाल, भारत में सोलर पीवी सेल से 28 गीगावाट सौर ऊर्जा उत्पादन किया जा रहा है. इनमें से अधिकांश पीवी सेल का आयात किया गया है.
रिपोर्ट के अनुसार, भारत में उत्पादित होने वाले सोलर मॉड्यूल 80 फीसदी ग्लास, एल्युमीनियम और गैर-हानिकारक पदार्थों से बनते हैं. लेकिन इनके उत्पादन में धातु यौगिकों और मिश्र धातुओं का भी इस्तेमाल होता है. ये पर्यावरण के लिए हानिकारक होते हैं.
रिपोर्ट लिखती है कि पीवी वेस्ट मैनेजमेंट पर कोई कानूनी दिशा-निर्देश नहीं होने के कारण भारत फिलहाल इस मामले में काफी पिछड़ा हुआ है.
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में केवल चार फीसदी ई-वेस्ट ही रिसाइकल किया जाता है. ऐसे में बढ़ते सोलर उत्पादन के बीच सरकार को पर्यावरण प्राथमिकताओं को ध्यान में रखते हुए इस दिशा में नए कदम उठाने की जरूरत है.