शाहीन बाग की असाधारण महिलाएं
तुम घर की हो शहजादियां
मुल्कों की हो अबादियां
वीरां दिलों की शादियां
इमां सलामत तुम से है
ऐ माओं बहनों बेटियों दुनिया की जीनत तुम से है
ये मेरे पूर्वज मौलाना अल्ताफ हुसैन हाली द्वारा 1905 में लिखी एक कविता की पंक्तियाँ हैं जो महिलाओं के लिए एक श्रद्धांजलि के रूप में हैं. पिछले दिनों मैंने देखा शाहीन बाग में शब्द जीवित हैं. जब हम शाहीन बाग के विरोध स्थल पर पहुंचे उस वक्त दो हजार से अधिक महिलाएं इस कंपकंपाती ठंढ में सड़क पर बैठी थीं. आज इस विरोध का अट्ठारहवां दिन है. पुरुषों, युवा और वृद्धों की भारी भीड़ महिलाओं के चारों ओर एक घेरे में खड़ी थी.
मंच से हमने भीड़ को देखा, मंच पर तेज रोशनी चमक रही थी और दर्शक एक जैसे थे. महात्मा गांधी, दांडी मार्च, और बाबासाहेब अम्बेडकर के पोस्टर और तख्तियों को राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर और नागरिकता (संशोधन) अधिनियम को खारिज करने वाले नारों के साथ प्रदर्शित किया गया था.
मुस्लिम महिलाओं के साथ काम करने के मेरे सभी 35 वर्षों में, मैंने इस तरह का दृश्य कभी नहीं देखा था. जो मैं देख रही थी, वह मुस्लिम महिलाओं की नई पीढ़ी थी जो बिना किसी डर के निर्भीक होकर बोलती थी.
‘हम यहां पैदा हुए थे और यहीं हम मरेंगे. हम मोदी या अमित शाह से नहीं डरते. वे हमारे राष्ट्र के सबसे पवित्र वसीयतनामे का उल्लंघन करने वाले कौन हैं?’
उज्ज्वल चेहरे और स्पष्ट आवाज़ ने आत्मविश्वास को बढ़ा दिया.
‘जो लोग ‘बेटी बचाओ, बेटी पढाओ’ की बात करते हैं, वे अपनी पुलिस को विश्वविद्यालय में घुसने देते हैं और हमारी लड़कियों को मारते हैं. इस तरह की बर्बरता की अनुमति कैसे दी जा सकती है?’ अधिकांश के लिए, यह उनके जीवन का पहला विरोध था. वे बिना किसी गलतफहमीया बहकावे के अपने घरों से बाहर आ गए थे.
‘क्या आप अपने गृहस्ति को पीछे छोड़ दिया? आपकी रसोई, आपके बच्चे?’ उन्होंने जो उत्तर दिया वह आश्चर्यजनक था. ‘मेरी बेटी ने मुझसे पूछा, माँ, आज उन्होंने पुस्तकालय में जाकर छात्रों के साथ मारपीट की. कल क्या होगा अगर वे मेरे स्कूल में घुसकर हमारे साथ मारपीट करेंगे?’
आज रात, जैसा कि मैंने अपने घर के आराम में इन पंक्तियों को लिखा है, यह वर्ष की सबसे कड़वी और ठंडी रातों में से एक है. मैं उन्हें सांप्रदायिक एजेंडे के ज्वार को मोड़ने के लिए दृढ़ संकल्प के साथ बैठे और नारे लगाते देख सकती हूं, जो उनके अस्तित्व के आधार को नष्ट करने के लिए तैयार है. वे समान रूप से इस विद्रोह को ‘हिंदू-मुस्लिम मुद्दा’ नहीं बनने देने के लिए दृढ़ हैं.
ये महिलाएं इस तरह के आसन्न खतरे के प्रति पूरी तरह से सचेत हैं, जैसा कि वे उत्तर प्रदेश भर में पुलिस कार्रवाई में युवाओं की मौतों के बारे में सुनती हैं. समान रूप से परेशान करने वाली खबर दिल्ली के अस्पतालों के सामने खड़े कार्यकर्ताओं की है, जिनमें से हेड इंजरी से पीड़ित युवाओं को चुपके से आईसीयू में रखा गया है. मेडिको-लीगल रिपोर्ट से बचने के लिए अस्पताल प्रशासन से टकरा रहे हैं पुलिस प्रशासन.
यह वही संविधान है जिसका बचाव करने के लिए वे आए हैं. यह एक धर्मनिरपेक्ष लड़ाई है जिसमें सभी धर्मों के लोग समान भागीदार बने हैं. आमतौर पर मुस्लिम महिलाओं को ट्रिपल तालक, इस्लाम खतरे में है’ या वोट बैंक जैसे मुद्दों के लिए उपयोग किया जाता है, जब वे मतदान केंद्रों के बाहर लाइन में दिखाई देती हैं. लेकिन यह एक अलग लड़ाई है जिसमें वे न केवल मुस्लिम पुरुषों बल्कि सभी धर्मों के पुरुषों और महिलाओं के साथ खड़े हैं.
वे जानते हैं कि संविधान में संशोधन, विकृत और उन्मूलन के इस भयावह खेल में, उनके पास खोने के लिए सब कुछ है. उनकी पूजा का अधिकार, आजीविका का अधिकार और हाँ, उनके जीवित रहने का अधिकार.
मुझे कुछ पोस्टरों में हिटलर का चेहरा दिखाई देता है, जो छवियों की बाढ़ को बढ़ाता है. वह भी 37.3% जर्मन मतदाताओं द्वारा लोकतांत्रिक रूप से चुने गए थे. यह असम में हिरासत शिविरों की छवियां लाता है, वे भारत के मुसलमानों के लिए क्या दर्शाते हैं?
असम में एनआरसी के, बाबरी मस्जिद फैसले की, लिंचिंग की छवियां, सभी मुसलमानों को तबाह करने के एजेंडे में पूरी तरह फिट हैं.
मैं लुटियन दिल्ली के उन बर्खास्त निवासियों में से एक हूं जिन्हें लगता है कि उन्हें छुआ नहीं जाएगा. लेकिन फिर मुझे लगता है कि गुजरात के पूर्व सांसद, एहसान जाफरी, जो 2002 में अहमदाबाद की गुलबर्ग कॉलोनी में अपनी कोठी में मारे गए थे. क्या उन्होंने कभी सोचा होगा कि उनके साथ ऐसा होगा?
शाहीन बाग में धरने पर बैठी महिलाओं और पुरुषों के चेहरों को देखकर मुझे समझदारी और वीरता का एहसास हुआ जो उन्हें यहां खींच लाया है.
भोजन और पानी जैसी उनकी दैनिक जरूरतें, स्वयंसेवकों द्वारा जमा किए गए संसाधनों से संचालित सामुदायिक रसोई द्वारा प्रदान की जाती हैं. उनकी भावना और इच्छा शक्ति भीतर से आती है.
हमें प्रेरणा के लिए रोज वहां जाने की जरूरत है. मैं जामिया क्षेत्र में रहती हूं जो 14 दिसंबर से शुरू हुए विद्यार्थियों के विरोध का और इस तूफान का अगुआ और चश्मदीद रहा है.
लेकिन आज रात, मैंने जो देखा, वह पुष्टि करता है कि शाहीन बाग की महिलाओं के साथ उनकी लड़ाई के पक्ष में पूरा भारत खड़ा हो गया है. मुस्लिम महिलाएं आखिरकार अपने में आ गई हैं.
डॉक्टर सैयदा हमीद (लेखिका और ट्रस्टी समृद्ध भारत फाउंडेशन )
रेयाज़ अहमद (फेलो, मुस्लिम विमेंस फ़ोरम )