बनारस में मोदी के अजेय होने का मिथक टूट सकता था!


condition of weavers in modi constituency Banaras

 

हमारे देश में अगर सत्ता मेहरबान हो तो आतंकवादी वारदातों का दुर्दांत आरोपी भी अदालत से बीमारी का बहाना बनाते हुए जमानत पर जेल से बाहर आकर और रामनामी ओढकर चुनाव लड़ सकता है. सत्ता की मेहरबानी से बलात्कार और हत्या के कुख्यात आरोपी भी ऐसा कर सकते हैं, लेकिन सत्ता न चाहे तो सीमा पर पहरेदारी कर चुका एक मामूली पूर्व सैनिक चुनाव नहीं लड सकता. यही है दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की नंगी हकीकत, जो इस बार के लोकसभा चुनाव में साफ तौर पर देखने में आ रही है.

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय निर्वाचन क्षेत्र बनारस में चुनाव आयोग ने सत्ता के इशारे पर नाचते हुए समाजवादी पार्टी के टिकट पर मैदान में उतरे तेजबहादुर यादव का नामांकन छलपूर्वक खारिज कर दिया. घटिया भोजन की शिकायत करने पर सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) से बर्खास्त कर दिया गया तेजबहादुर कभी वास्तविक रूप से सीमा का चौकीदार हुआ करता था. वह स्वयंभू ‘चौकीदार’ नरेंद्र मोदी को चुनौती देने के लिए बनारस के चुनाव मैदान में उतरा था लेकिन मुकाबले से पहले ही उसे मैदान से बाहर कर दिया गया. अगर उसका नामांकन रद्द नहीं होता और वह मुकाबले में बने रहते तब भी पैसे और सत्ता की ताकत के आगे उसका जीतना लगभग असंभव ही था लेकिन फिर भी उसे रास्ते से हटा दिया गया.

बनारस में मोदी तब भी चुनाव जीतते और अब भी जीतेंगे लेकिन तेजबहादुर को जिस तरह मुकाबले से हटाया गया है, वह उनके डोलते आत्मविश्वास और नैतिक पराजय का प्रतीक है.
प्रधानमंत्री मोदी इन दिनों देश भर में अपनी चुनावी रैलियों में सेना और सुरक्षा बलों के शौर्य और जवानों की शहादत को बतौर अपनी उपलब्धि पेश कर लोगों से वोट मांग रहे हैं. इसके लिए उनकी आलोचना भी हो रही है तथा चुनाव आयोग को भी खरी-खोटी सुनाई जा रही है.

बनारस में तेजबहादुर भी इसी मुद्दे पर फोकस करते हुए प्रधानमंत्री के खिलाफ चुनाव मैदान में उतरे थे. तेजबहादुर यादव वही शख्स हैं, जिन्होंने कोई दो-सवा दो साल पहले बीएसएफ के जवानों को घटिया भोजन दिए जाने की शिकायत सोशल मीडिया के माध्यम से की थी. शुरू में तो गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने जिस तरह तेजबहादुर की शिकायत का संज्ञान लिया और जांच के आदेश दिए, उससे ऐसा लगा था कि जवानों को घटिया खाना देने के लिए बीएसएफ के जिम्मेदार अधिकारियों पर कार्रवाई होगी. लेकिन बाद में बीएसएफ प्रशासन ने जांच की खानापूर्ति करते हुए तेजबहादुर की शिकायत को खारिज कर दिया. यही नहीं, उनकी शिकायत को अनुशासनहीनता करार देकर तथा उनका कोर्ट मार्शल कर उन्हें सेवा से बर्खास्त भी कर दिया गया.

यह सच है कि हरियाणा के एक गरीब किसान का बेटा तेजबहादुर अतीत में बेहद उद्दंड, गालीबाज रहा है और अपनी सांप्रदायिक जेहनियत के चलते नरेंद्र मोदी का अंधभक्त भी. पद और साधन संबंधी हैसियत को छोड दिया जाए तो तेजबहादुर कुल मिलाकर एक तरह से वाणी और आचार-विचार के स्तर पर मोदी के बराबर ही है. हालांकि बीएसएफ से बर्खास्त होने के बाद उसमें भाषा और व्यवहार के स्तर पर काफी-कुछ बदलाव आया है. हर डाकू का भविष्य होता है और संत का अतीत. तेजबहादुर को भी पूरा हक है कि वह अपने अतीत के कुसंस्कारों की कैद से आजाद हो और सभ्य लोकतांत्रिक समाज का हिस्सा बने. लेकिन सत्ता के शीर्ष पर विराजमान अहंकार, मक्कारी और कायरता के मूर्तिमान प्रतीक को तेजबहादुर का ऐसा करना रास नहीं आया.

बनारस के चुनाव मैदान में तेजबहादुर जिम्मेदार नागरिक और संजीदा उम्मीदवार की तरह अपने चुनाव प्रचार में वे सारे मुद्दे उठा रहे थे जो विपक्षी दलों को या विपक्षी उम्मीदवार को उठाना चाहिए. वे प्रधानमंत्री द्वारा सेना का राजनीतिकरण किए जाने पर सवाल उठा रहे थे. वे ‘वन रैंक वन पेंशन’ के मुद्दे पर सरकार और प्रधानमंत्री के दावों को चुनौती दे रहे थे. वे शहीद जवानों के परिवारजनों की सरकारी उपेक्षा का मुद्दा उठा रहे थे. वे बता रहे थे कि सैन्य बलों की तुलना मे अर्ध सैन्य बलों के साथ सरकार किस तरह सौतेला व्यवहार करती है. वे पुलवामा हमले के लिए सीधे तौर पर प्रधानमंत्री को जिम्मेदार ठहरा रहे थे और सवाल कर रहे थे कि वहां भारी मात्रा में विस्फोटक कैसे आया था. तेजबहादुर सिर्फ सैन्य और सुरक्षा बलों के बारे में ही बात नहीं कर रहे थे, बल्कि वे किसानों, बेरोजगारों और छात्रों की बात भी कर रहे थे. वह उन सारे वायदों की याद मोदी को दिला रहे थे, जो उन्होंने पिछले चुनाव में देश से किए थे और अब उनका जिक्र भी नहीं करते. वे राफेल विमान सौदे पर सवाल उठा रहे थे और उज्ज्वला योजना, जनधन योजना, बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ और स्वच्छता अभियान जैसे सरकारी कार्यक्रमों की ज़मीनी हक़ीक़त पर भी अपनी बात कह रहे थे.

यही नहीं, वे बनारस की स्थानीय समस्याओं और जरूरतों की भी चर्चा कर रहे थे. कुल मिलाकर तेजबहादुर सामाजिक और राजनीतिक तौर एक जागरूक नागरिक और उम्मीदवार होने की सभी शर्तें पूरी कर रहे थे. इसके बावजूद वे जब निर्दलीय उम्मीदवार की तौर पर मैदान में थे तब तक उनसे किसी को किसी प्रकार का खतरा नहीं लग रहा था. उनका नामांकन पत्र भी पूरी तरह जांचने के बाद बनारस के जिला निर्वाचन अधिकारी ने स्वीकार कर लिया था. लेकिन जैसे ही समाजवादी पार्टी की ओर से उन्हें गठबंधन का उम्मीदवार घोषित किया और तेजबहादुर ने नया नामांकन दाखिल किया, वैसे ही प्रधानमंत्री के सिपहसालार चुनाव आयोग के माध्यम से उन्हें मुकाबले से बाहर करने के लिए सक्रिय हो गए. गृह मंत्रालय, बीएसएफ प्रशासन और चुनाव आयोग के शीर्ष नेतृत्व की मदद से छल-कपट करते हुए तेजबहादुर का नामांकन खारिज करा दिया गया.

हमारे लोकतंत्र की सबसे बड़ी विडंबना यही है कि पूंजी से पोषित होने वाली राजनीति ने चुनावों को इतना महंगा और आम लोगों की मानसिकता को इस कदर जलवा-प्रभावित बना दिया है कि कोई साधनहीन व्यक्ति अव्वल तो चुनाव लड़ने की हिम्मत नहीं कर सकता, अगर हिम्मत कर भी ले तो जीत नहीं सकता, भले ही उसका व्यक्तित्व कितना ही ईमानदार और आंदोलनकारी क्यों न हो. इस सिलसिले में हाल के वर्षों मे मेधा पाटकर, इरोम शर्मिला, सोनी सोरी, दयामणि बारला की हुई चुनावी हार को मिसाल के तौर पर देखा जा सकता है.

साधनहीन तेजबहादुर जब तक निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर मैदान में थे, तब तक उनसे किसी को खतरा नहीं था. उनके पास न तो चुनाव लड़ने के लिए कार्यकर्ताओं की फौज थी और न ही वे झंडे-बैनर-पोस्टर का प्रदर्शन करने में सक्षम थे. उनके पास कई तो क्या एक साधारण सी जीप या कार भी नहीं थी. करोड़ों रुपये के खर्च पर होने वाली प्रधानमंत्री मोदी की चुनावी रैलियों और रोड शो के मुकाबले तेजबहादुर के पास तो नुक्कड़ सभा करने या छोटा-मोटा जुलूस निकालने तक का भी इंतजाम नहीं था. इसलिए उनकी उम्मीदवारी किसी को भी चुनौतीपूर्ण नहीं लग रही थी.

लेकिन जैसे ही समाजवादी पार्टी ने उन्हें अपना उम्मीदवार घोषित किया, वैसे ही प्रधानमंत्री के खेमे में खलबली मच गई. चूंकि तेजबहादुर मुख्य विपक्षी गठबंधन के उम्मीदवार हो गए थे और उम्मीद जताई जा रही थी कि कांग्रेस भी उन्हें अपना समर्थन दे सकती है. ऐसी स्थिति में उन्हें चुनाव लड़ने के लिए आवश्यक संसाधन भी उपलब्ध हो जाने की संभावना थी.

इसके अलावा विपक्षी दलों का आधार वोट बैंक भी उनके साथ जुड़ जाना स्वाभाविक ही था. कुल मिलाकर चुनौतीपूर्ण मुकाबले के आसार बन रहे थे. हालांकि प्रधानमंत्री मोदी जिस लाव-लश्कर के साथ चुनाव मैदान में हैं, स्थानीय सरकारी मशीनरी का उनके पक्ष में जिस तरह खुलेआम दुरुपयोग किया जा रहा है और जिस तरह ईवीएम में लगातार गड़बड़ियों की शिकायतें आ रही हैं, उसके मद्देनजर उनके खिलाफ किसी का भी जीतना संभव नहीं है. इसके बावजूद तेजबहादुर का नामांकन खारिज करा देना यही बताता है कि मोदी का आत्म विश्वास डगमगाया हुआ था और वे कोई जोखिम उठाना नहीं चाहते थे.

तेजबहादुर के साथ चुनाव आयोग और सत्ता प्रतिष्ठान के अन्य अंगों ने जो छल किया वह तो अपनी जगह है ही लेकिन बनारस में मोदी के लिए चुनाव को निरापद बनाने की जिम्मेदारी से विपक्षी दलों को भी बरी नहीं किया जा सकता- खासकर सपा-बसपा गठबंधन और कांग्रेस को. इन दलों के शीर्ष नेतृत्व ने अपने अहंकार, दब्बूपन और अपने दलीय स्वार्थ के चलते बनारस में मोदी को घेरने का एक बेहतरीन अवसर गंवा दिया.

समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने तेजबहादुर को मोदी के खिलाफ अपनी पार्टी का उम्मीदवार बनाने का जो फैसला चुनाव प्रक्रिया के उत्तरार्ध में लिया, वही फैसला अगर उन्होंने चुनाव प्रक्रिया के प्रारंभिक दौर में ही ले लिया होता और कांग्रेस नेतृत्व को भी उसके नाम पर राजी कर पूरी तैयारी और सावधानी के साथ उनका नामांकन दाखिल कराया होता तो चुनाव आयोग के लिए कोई भी बहाना बनाना आसान नहीं होता और वह तेजबहादुर का नामांकन खारिज नहीं कर सकता था. ऐसी स्थिति में बनारस में मुकाबला बेहद रोमांचक हो जाता.
कांग्रेस ने भी लंबी ऊहापोह के बाद पराजित मानसिकता के साथ बनारस में अपने उसी उम्मीदवार को मैदान में उतारा है जो पिछले चुनाव में मोदी के मुकाबले चौथे स्थान पर रहा था. हालांकि कांग्रेस द्वारा तेजबहादुर का समर्थन कर देने की स्थिति में भी विश्वासपूर्वक नहीं कहा जा सकता था कि बनारस का चुनावी नतीजा चमत्कारी होगा, लेकिन इतना जरूर होता कि बनारस में लड़ाई राजा बनाम रंक या लोकतंत्र के दीपक बनाम अहंकार के तूफान जैसी हो जाती.

याद करें कि 1962 में तीसरे आम चुनाव के दौरान समाजवादी नेता डॉक्टर राममनोहर लोहिया ने ग्वालियर में पूर्व सिंधिया रियासत की महारानी विजयाराजे के खिलाफ सोशलिस्ट पार्टी की ओर से एक मेहतरानी यानी सफाई कामगार सुक्खोरानी को चुनाव मैदान मे उतारा था. विजयाराजे सिंधिया कांग्रेस की उम्मीदवार थीं. वे प्रतीक थी- राजशाही की, आभिजात्य वर्ग की और धन बल की. जबकि सुक्खो मेहतरानी देश में सदियों से अछूत बनाकर सताए जा रहे वर्ग की ही नहीं, बल्कि देश की उन सभी वर्गों की महिलाओं की भी नुमाइंदगी कर रही थीं, जिन्हें पितृ-सत्तात्मक समाज में हमेशा दबाकर रखा गया.

उस चुनाव के माध्यम से महारानी बनाम मेहतरानी की बहस छेड़कर लोहिया ने कहा था कि हजारों सालों से जमी सामाजिक विषमता और रूढ़ियों की चट्टानें सुक्खो रानी को चुनाव में खड़ा करने से टूटेगी तो नहीं, लेकिन थोड़ी दरकेगी जरूर. बनारस में तेजबहादुर पर दांव लगाकर राहुल गांधी की कांग्रेस यह पहल कर सकती थी, लेकिन उसने नहीं की. कांग्रेस न सही, दलितों और पिछड़ों की ‘अलमबरदार’ सपा और बसपा तो लोहिया और आंबेडकर को याद करते हुए शुरू में ही तेजबहादुर को अपना उम्मीदवार बना सकती थी. मुलायम सिंह यादव ने भी तो आखिर चंबल की बागी और समाज की सताई हुई फूलन देवी और लालू प्रसाद यादव ने पत्थर तोड़ने वाली भगवती देवी को चुनाव मैदान में उतारने की प्रतीकात्मक लेकिन सराहनीय पहल की थी.

फूलनदेवी और भगवती देवी के चुनाव जीतकर देश की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक महफिल यानी लोकसभा में पहुंचने से हमारे लोकतंत्र की खूबसूरती में निखार ही आया था. तेजबहादुर के विपक्षी उम्मीदवार बन जाने से सबसे बड़ी बात यह होती कि पुलवामा के शहीदों और सेना के नाम पर बड़ी-बड़ी ढींगे हांक रहे प्रधानमंत्री और उनके दल के समूचे चुनाव अभियान की दिशा बहुत हद तक बदल जाती. वे चुनावी रैलियों में सेना के नाम का वैसा इस्तेमाल नहीं कर पाते, जैसा अभी कर रहे हैं. लोकतंत्र में किसी को भी अजेय नहीं माना जा सकता, लिहाजा मोदी के अजेय होने का मिथक भी टूट सकता था, ठीक उसी तरह जैसे 1977 मे इंदिरा गांधी के अजेय होने का मिथक टूटा था.


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