क्या हैं मुस्लिम नेतृत्व की चुनौतियां?
17वीं लोकसभा के गठन के लिए सात चरणों के चुनाव का आज आखिरी चरण पूरा हुआ. भारत निश्चय ही दक्षिण एशिया का सबसे महत्वपूर्ण तथा सबसे सफल लोकतांत्रिक देश है. 130 करोड़ की आबादी वाले देश में 90 करोड़ मतदाता हैं, जिसमें लगभग 60 फीसदी ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया. कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो कहीं कोई बड़ी अप्रिय घटना नहीं हुई. जो निश्चय ही बड़ी कामयाबी है.
मगर इसके समानांतर जिस तरह से इस पूरे चुनाव में ईवीएम का मुद्दा, वीवीपैट का मुद्दा, चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन या फिर चुनाव आयोग ही क्यों न हो उनकी निष्पक्षता पर सवालिया निशान लगा है, लोगों का विश्वास इन संस्थाओं में डगमगाया है. ये सारी समस्याएं तो पूरे भारत के लोगों का है. लेकिन जहां तक सवाल मुसलमानों का है तो वे दोहरे बोझ तले दबे हुए हैं. उनमें भी मुस्लिम महिलाएं सबसे निचले पायदान पर खड़ी हैं.
आज की अखबार की सुर्खियों में हमने पढ़ा कि धर्मनिरपेक्ष पार्टियां चुनाव के बाद यह रणनीति बनाने में लगी हैं कि कैसे एक धर्मनिरपेक्ष सरकार का गठन किया जाए. तेलुगू देशम के मुखिया चंद्रबाबू नायडू इस कोशिश में लगे हुए हैं कि कैसे इसपर सफलता पाई जाए. लेकिन बिडंबना यह है कि इस पूरी प्रक्रिया में एक भी मुसलमान नाम नहीं है. ये हैरानी की बात है कि मुसलमान जिनकी आबादी इस मुल्क में 14.2 फीसदी(2011 की जनगणना के मुताबिक) है. इस प्रक्रिया में उनकी भागीदारी शून्य है. हालांकि ये सारी धर्मनिरपेक्ष पार्टियां मुसलमानों के हितों की वकालत तो करती हैं लेकिन इस महत्वपूर्ण प्रक्रिया में मुसलमान गायब हैं.
अगर हम इतिहास पर नजर डालें तो ये पाएंगे कि मुसलमानों की भागीदारी के बगैर इस देश की आजादी नामुमकिन थी. 1912 में जब महात्मा गांधी दक्षिण अफ्रीका में थे और जवाहर लाल नेहरू सियासत में दाखिल भी नहीं हुए थे उस वक्त एक मुसलमान ने आजादी का झंडा उठाया. मौलाना अबुल कलाम आजाद के अखबार अल-हिलाल ने कलकत्ता में आजादी के आंदोलन की बुनियाद डाली.
वही मौलाना आजाद जिन्होंने 18 साल की उम्र में बंगाल के गुप्त आंदोलन युगान्तर और अनुशीलन में जान की बाजी लगा दी. वही मौलाना आजाद जिनसे गांधी जी ने प्रेरणा ली जो आगे चलकर खिलाफत और असहयोग आंदोलन को मिलाकर राष्ट्रीय आंदोलन की एक मजबूत आधारशीला रखी. वही मौलाना आजाद जो 1923 में 30 साल की उम्र में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सबसे युवा अध्यक्ष बने. वही मौलाना आजाद जो भारत की तरफ से सर स्टैफोर्ड क्रिप्स के कैबिनेट मिशन के साथ चीफ निगोशिएटर थे. वही मौलाना आजाद जिन्होंने 1947 में दिल्ली के एलिट मुसलमानों को खबरदार किया था जो कि हालत से घबराकर पाकिस्तान भाग रहे थे.
उन्होंने कहा था, “आप मादरे वतन को छोड़कर कहां जा रहे हैं यहां कि मिट्टी और पानी को. वहां आपकी हैसियत एक मुजाहिर की होगी. वहां आप हमेशा अपने आप को अजनबी महसूस करते रहेंगे.”
क्या 21वीं सदी में जब मुसलमानों की आबादी 20 करोड़ पहुंचने के करीब है. मौलाना आजाद, मोहम्मद अली, शौकत अली, सैयद महमूद, रफी अफमद किदवई, सैफूद्दीन किचलू, जाकिर हुसैन जैसे कद का कोई नेता पैदा नहीं हो सका. या उन्हें मौका ही नहीं दिया गया.
राष्ट्रीय आंदोलन के दौर के कांग्रेस की स्टेज पर कद्दावर मुसलमान लीडर हमेशा नुमाया रहे हैं. मौलाना आजाद ने कांग्रेस के प्लेटफॉर्म पर 1940 में रामगढ़ में एक बात कही. वो बात जो हिन्दू और मुसलमानों की बराबरी की हिस्सेदारी की बात थी जो आज भी प्रासंगिक है.
उन्होंने कहा था, “मैं मुसलमान हूं और फख्र के साथ महसूस करता हूं कि मुसलमान हूं. इस्लाम की तरह तेरह सौ साल की शानदार रिवायतें मेरे विरासत में मुझे मिली है. मैं तैयार नहीं हूं कि इसका कोई छोटे-से छोटा हिस्सा भी नष्ट होने दूं, इस्लाम की तालीम, इस्लाम की तारीख, इस्लामी ज्ञान-विज्ञान, इस्लाम की कला-संस्कृति, इस्लाम की तहजीब मेरी दौलत की पूंजी है. और मेरा फर्ज है कि मैं इसकी हिफाजत करूं. एक मुसलमान होने के नाते मैं मजहबी और कल्चर के दायरे में अपनी खास हस्ती रखता हूं. और मैं बर्दास्त नहीं कर सकता कि इसमें कोई मुदाखलत(हस्तक्षेप) करे. मैं इन तमाम एहसासात के साथ एक और एहसास भी रखता हूं. जिसे मेरी जिन्दगी की हकीकतों ने पैदा किया है. इस्लाम की रूह मुझे इससे नहीं रोकती, वह इस राह में मेरी रहनुमाई करती है. मैं फख्र के साथ महसूस करता हूं कि मैं हिन्दुस्तानी हूं. मैं हिन्दुस्तान की एक और नाकाबिले तकसीम संयुक्त राष्ट्रीयता का एक हिस्सा हूं. मैं इस संयुक्त राष्ट्रीयता का एक ऐसा अहम हिस्सा हूं, जिसके बगैर उसकी अजमत(महानता) का रूप अधूरा रह जाता है. मैं इसकी बनावट का अहम तत्व हूं. मैं अपने इस दावे को कभी छोड़ नहीं सकता.”
यही विचारधारा है जो हिन्दुस्तान के अस्तित्व के लिए तथा उसके भविष्य के लिए सबसे माकूल है. यही विचारधारा हिन्दुस्तान को एक सूत्र में बांध सकती हैं. और इसी विचारधारा को आधार बनाकर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने आजादी की लड़ाई लड़ी और सफल हुई. अब अगर एक बार फिर से इस विचारधारा के साथ 2019 के चुनाव के बाद हम सब खड़े नहीं हुए तो ये पूरे दश के लिए एक त्रासदी होगी और हमारा भविष्य अंधकारमय होगा.
डॉक्टर सैयदा हमीद (लेखिका ट्रस्टी, समृद्ध भारत फाउंडेशन)
रेयाज अहमद (फेलो, मुस्लिम वीमेंस फोरम)