स्व से गुजरता है सर्वोदय का रास्ता
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मनुष्य जीवन का ध्येय क्या है? परम साम्य की प्राप्ति. ‘अभिधेयं परम साम्यम्’… अभिधेय सम्पूर्ण जीवन के चिंतन का विषय है. जिस दिशा में जीवन के सम्पूर्ण चिंतन को ले जाना है, इंद्रियों को मोड़ना है, जिसको लक्ष्य करना है, उसी को ‘अभिधेय’ कहते है. हमारा अभिधेय ‘परम साम्य’ है. परम साम्य. केवल आर्थिक या सामाजिक वस्तु नहीं है. यह दोनों से बढ़कर एक साम्य है, मन का संतुलन या मानसिक साम्य. लेकिन इन तीनों से भी परे एक चीज है, जो ‘परम साम्य’ कहलाती है.
एक है आर्थिक साम्य, जो हर एक व्यवहार में मददगार होता है. दूसरा है सामाजिक साम्य, जिसके आधार पर समाज में व्यवस्था रहती है. तीसरा है मानसिक साम्य, जिससे मनुष्य के मन का नियंत्रण होता है. इन सबमें परम योग क्या है? चित्त का समाधान, चित्त का संतुलन, चित्त का साम्य. चित्त का साम्य ‘परम साम्य’ है. यह अनुभूति कि हम सब एक हैं.
आर्थिक, सामाजिक साम्य से मानसिक साम्य नि:संशय श्रेष्ठ है. लेकिन इन तीनों साम्यों से परे एक साम्य है, जिसके पेट में ये सारे आ जाते हैं, वह है आत्यंतिक परम साम्य. सारांश में कहें तो परम साम्य यानी ब्रह्म. इसलिए हमारा अभिधेय ब्रह्म प्राप्ति हुआ. हमने ‘परम साम्य’ कहा, क्योंकि हम एक पद्धति बताना चाहते हैं. छोटे-छोटे साम्यों का उपयोग करते-करते परम साम्य तक कैसे पहुंचे, इसकी पद्धति बताई.
हमें आर्थिक, सामाजिक या मानसिक साम्य स्थापित करना है. हमें भिन्न-भिन्न अपर साम्य की स्थापना करनी है. उन्हें स्थापित करने से उस परम साम्य का दर्शन होगा, जो पहले से ही मौजूद है, लेकिन हमारे अंधत्व के कारण दिखता नहीं था. इस तरह अपर साम्यों की प्राप्ति करके परम साम्य का दर्शन होगा, तो ‘अभिधेयं परम साम्यम्’ संपन्न हो जाएगा.
हमने गीता को साम्ययोग नाम दिया है और बताया है कि परम साम्य की प्राप्ति हमारा लक्ष्य है. परम साम्य यानी जहां चेतन और चेतन में तो भेद है ही नहीं, जड़ और चेतन का भी भेद जहां नहीं रहता है, ऐसी साम्य की परम अवस्था. साम्ययोग का मानना है कि हर एक मानव में एक ही आत्मा समान रूप से बसता है. साम्ययोग मानव-मानव में भेद नहीं करता, बल्कि मानव-आत्मा और प्राणीमात्र के आत्मा में भी बुनियादी भेद नहीं मानता.
प्रत्येक मनुष्य में समान आत्मा है, इसलिए सबको जीने के समान अवसर भी मिलने चाहिए. व्यक्ति की बौद्धिक योग्यता को देखे बिना हम उसे जमीन, मकान, रोटी, आरोग्य, शिक्षा आदि जीवन के साधन मुहैया करवाएं. यह आज के युग की और प्राचीन अद्वैत के सिद्धांत की मांग है.
हमलोग सत्य विचार पर समाज की रचना करना चाहते हैं. ‘भगवान ने हमें जो बुद्धि, शक्ति और दौलत दी है, वह समाज की सेवा के लिए है. उसका स्वतंत्र भोग करना उचित नहीं. समाज को समर्पण करने के बाद ही हम उसे भोग सकते हैं. उपनिषद में कहा गया है कि यह समस्त जगत ईश्वरमय है और समर्पण करके ही प्रसाद के रूप में उसका भोग करना चाहिए.
अपनी बुद्धि के मालिक हम नहीं, भगवान हैं. हमारे सभी गुण समाज के लिए है, इसलिए हमें चाहिए कि अपने पास की सारी शक्तियों को ईश्वर की देन मानें और समाज को अर्पण कर दें. हम तो अपने शरीर के भी मालिक नहीं, उसके ट्रस्टी मात्र हैं. साम्ययोग कहता है कि संपत्ति किसी भी रूप में क्यों न हो, उसके मालिक हम नहीं हैं. तुलसीदासजी ने यही कहा है, “संपति सब रघुपति कै आम्ही” सभी संपत्ति ईश्वर की हैं.
आज तक लोग अपने को संपत्ति का मालिक मानते आए हैं. उसमें हितों का विरोध निर्माण होता है. किंतु जहां ‘ट्रस्टीशिप’ का विचार आता है, वहां पूरी वैचारिक क्रांति होती है. यानी अपनी अपनी चीजों पर हम जो अपनी मालकी मानते हैं, वह गलत है. हमारे पास जितनी भी शक्तियां है, समाज की सेवा के लिए हैं, व्यक्तिगत स्वार्थ साधने के लिए नहीं. व्यक्तिगत स्वार्थ तो अपने स्वार्थ को समाज के चरणों में समर्पित कर देने में ही है. सारे समाज को अपना स्वार्थ अर्पण कर देना और समाज के हित के लिए सतत प्रयत्न करना ही हमारा स्वार्थ है.
मेरी विचारधारा के मुख्य चार अंग हैं. एक है उद्देश्य, जिसे मैंने नाम दिया है ‘साम्ययोग’. दूसरा है तत्वज्ञान. तत्वज्ञान में मैं समन्वय चाहता हूं. तीसरा है सामाजिक, आर्थिक ध्येय. यह है ‘सर्वोदय’ और उसे अमल में लाने की जो पद्धति है, वह है ‘सत्याग्रह’.
‘सत्याग्रह’ जीवन पद्धति है. उसके आधार पर जो समाज रचना खड़ी होगी, वह ‘सर्वोदय’ होगा. उसके लिए आज दुनिया में जो भिन्न-भिन्न चिंतन और तत्वज्ञान चलते हैं, उन सबके बीच का विरोध टालकर ‘समन्वय’ करना होगा. समन्वय का यह सिद्धांत सभी वादों-विवादों को खत्म करनेवाला है. इन तीनों के परिणामस्वरुप व्यक्तिगत तथा सामाजिक चित्त की समता प्राप्त होगी. उसे मैंने ‘साम्ययोग’ नाम दिया है. साम्ययोग गीता का शब्द है, समन्वय वेदांत का है और सर्वोदय शब्द आधुनिक विज्ञान का है, जो पश्चिम से प्राप्त हुआ है.
हमने अहिंसा की शक्ति से स्वातंत्र्य प्राप्त किया है, जबकि उसके लिए दुनिया के दूसरे मुल्कों को हिंसा के तरीके अख्तियार करने पड़े लेकिन यह निश्चित समझिए कि उसके लिए अनेक खतरों का सामना करने के बाद अब हम अगर दूसरा कदम, आर्थिक, सामाजिक समानता कायम करने का नहीं उठाते, तो हमारा स्वातंत्र्य खतरे में है. समाज में ऊंच और नीच के भेद रहे, तो समाज बनता ही नहीं. हम अपने समाज को नैतिक समाज बनाना चाहते हैं, जिसमें हर एक व्यक्ति अपनी शक्ति समाज को समर्पित करेगा. स्वराज्य के बाद हमें अब साम्ययोग की स्थापना का आदर्श सामने रखना होगा. इसी को हमने सर्वोदय कहा है.
साम्ययोग के कारण आर्थिक क्षेत्र में भी क्रांति होती है. नैतिक मूल्यों के समान आर्थिक क्षेत्रों मे भी श्रम का मूल्य समान होना चाहिए. आज शारीरिक काम की अपेक्षा बौद्धिक काम की मजदूरी ज्यादा दी जाती है. उसकी प्रतिष्ठा भी ज्यादा होती है. लेकिन इस तरह का फर्क बिल्कुल बेबुनियाद है. साम्ययोग का विचार आत्मा की समता पर निर्भर है, इसलिए आर्थिक क्षेत्रों में भी वह कोई भेद स्वीकार नहीं कर सकता. समाज में हर एक की सेवा का प्रकार भिन्न हो सकता है, लेकिन उसका आर्थिक मूल्य समान ही होना चाहिए. साम्ययोग के सिद्धांत के अनुसार जब नैतिक मूल्यों में अंतर नहीं आता तो आर्थिक क्षेत्र में भी अंतर नही आना चाहिए.
इसी तरह राजनैतिक क्षेत्र में भी हमारे आज के मूल्य बदल जाएंगे. हम न सिर्फ शोषण रहित, बल्कि शासनमुक्त समाज की रचना चाहते हैं. साम्ययोग की कल्पना के अनुसार शासन गांव-गांव में बंट जाएगा. यानी गांव-गांव में अपना राज होगा, मुख्य केंद्र में नाममात्र के लिए सत्ता होगी. इस तरह होते होते शासनमुक्त समाज की ओर हम आगे बढ़ेंगे.
साम्ययोग आर्थिक, नैतिक, राजनैतिक और सामाजिक क्षेत्रों में परिवर्तन लाना चाहता है. इसी को क्रांति कहते हैं. आजकल लोग हिंसा को ही क्रांति समझते है. लेकिन जहां बुनियादी चीजों में क्रांति नहीं, वहां ऊपर-ऊपर के परिवर्तन को क्रांति कहना गलत होगा. क्रांति तभी होती है, जब हम अपने नैतिक जीवन में परिवर्तन करते हैं. हमारा दावा है कि साम्ययोग नैतिक मूल्यों में परिवर्तन करता है, क्योंकि उसकी बुनियाद आध्यात्मिक है और वह जीवन की सारी शाखा-उपशाखाओं में आमुलाग्र क्रांति करता है.
क्रांति तब होती है, जब उसका त्रिकोण होता है. प्रथम व्यक्तिगत जीवन में परिवर्तन में होता है. फिर विचार परिवर्तन होता है और फिर समाज परिवर्तन होता है. ये तीन जब होते है तब क्रांति होती है.
भूदान यज्ञ का पहला कदम है ‘दान’ और अंतिम कदम है ‘न्यास. दान का अर्थ है देना, ‘संविभाग:’ यानी कि अपने पास जो चीज है, उसका एक हिस्सा समाज को देना. नित्य दान यानी किसी खास मौके पर करने का धर्म नहीं, सतत करने का है. ‘न्यास’ में मालिकी का पूरा विसर्जन है. मैं अपने पास संग्रह रखूंगा ही नहीं. जो कुछ होगा गांव को दे दूंगा. फिर समाज की तरफ से मुझे जो मिलेगा, वह मैं लूंगा. मैं नारायण का आश्रित बनूंगा. न्यास यानी समाज में लीन हो जाना, व्यक्तिगत मालिकी मिटाकर समूह की शरण लेना.
इस जमाने की तीन विशेष देनें गिनी जा सकती हैं. एक सर्वधर्म समन्वय और सर्व उपासनाओं के समन्वय की एक नई दृष्टि भारत में विकसित हुई है. दूसरी, चित्त से ऊपर के स्तरों में जाकर परमात्मा की अनुभूति पाना और फिर नीचे उतरकर उस अनुभूति में सारे विश्व को लपेटकर विश्व को ऊपर के स्तर पर चढ़ाना. तीसरा, सत्याग्रह दर्शन. चौथी चीज सामने आ रही है, वह है ‘साम्ययोग’. गीता ने ब्रह्म की व्याख्या की है, निर्दोषं हि समं ब्रह्म – ब्रह्म यानी परम साम्य, समता.
(साम्य योग पर विनोबाजी भावे के विचारों का संकलन, विनोबा साहित्य खंड 13, 15 से साभार)
( यह लेख विवेकानंद माथने जी ने हमें भेजा है.)