क्या स्कूलों में होने वाली धार्मिक प्रार्थनाएं गलत हैं?


the prayer enforced throughout the country in kendriya vidyalayas is unconstitutional

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क्या स्कूलों में संस्कृत में होनी वाली धार्मिक प्रार्थना शिक्षा को लेकर वैज्ञानिक नजरिए के खिलाफ है? या यह इस देश की वृहद संस्कृति का प्रवाह है? या फिर शिक्षा का हिन्दुत्ववादी एजेंडा है. अगर स्कूलों में होने वाली प्रार्थना का रुख प्रतिगामी है तो यह कहीं न कहीं नेहरू के वैज्ञानिक नजरिए की परिकल्पना के खिलाफ एक साजिश ही कही जाएगी.

केंद्रीय विद्यालयों में संस्कृत में होनी वाली प्रार्थना को लेकर सुप्रीम कोर्ट में दाखिल विनायक शाह की याचिका में ऐसे ही कुछ सवाल उठाए गए हैं. शाह ने अपनी याचिका में संविधान के अनुच्छेद 25 और 28 का हवाला देते हुए कहा है कि धार्मिक प्रार्थना किसी वृहत संस्कृति का प्रवाह नहीं है बल्कि यह बहुसंख्यक की संस्कृति की वंदना है. यह अपने असली रूप में अल्पसंख्यक, नास्तिक और तर्कवादी समुदाय के धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकारों का हनन करता है जिसकी इजाजत हमारे संविधान में नहीं है.

विनायक शाह ने अपने इसी तर्क के साथ सुप्रीम कोर्ट से देश के 1125 केंद्रीय विद्यालयों में सुबह-सुबह हिन्दू धर्म पर आधारित होने वाली प्रार्थना को रोकने की मांग की है. हालांकि कोर्ट ने भी 10 जनवरी को इसी याचिका के मद्देनजर केंद्रीय विद्यालयों को नोटिस जारी किया था.

28 जनवरी को इस पूरे मामले पर सुनवाई करते हुए जस्टिस आर एफ नरीमन और विनीत सरन की पीठ ने भी कहा, “यह एक गंभीर संवैधानिक मसला है. जिसकी पड़ताल बेहद जरूरी है. इसके लिए इसे संविधान पीठ के पास विचार करने के लिए भेजा जा रहा है. और बेहतर होगा कि इसकी सुनवाई कम-से-कम पांच जज की संविधान पीठ करे.”

क्या संस्कृत में प्रार्थना गलत है

केंद्रीय विद्यालय एक ऐसी संस्था है जो पूरी तरह से सरकार के फंड पर निर्भर है. इसलिए धार्मिक शिक्षा के मामले में पूरी तरह से संविधान के अनुच्छेद 28(1) के अंतर्गत आता है. संविधान का अनुच्छेद 28(1) के मुताबिक ऐसी कोई भी शैक्षणिक संस्था जो सरकारी खर्च पर चलती है धार्मिक शिक्षा को बढ़ावा नहीं दे सकती है.

विनायक शाह ने अपनी याचिका में ‘अस्तो माँ सदगमय’ प्रार्थना का हवाला दिया है उसका उल्लेख हिन्दू धर्म के वृहदअरण्यक उपनिषद में मिलता है. और इस प्रार्थना में आए श्लोक के अर्थ इस तरह हैं, “हे भगवान मुझे अज्ञानता से ज्ञानता की ओर ले चलो. अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो. भगवान मुझे मृत्यु से अमरत्व की दिशा दो.”

विनायक शाह ने याचिका में अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा है कि जब बच्चों को दी जाने वाली शिक्षा में परमेशवर और धार्मिक विश्वास को प्राथमिकता दी जाएगी तो उनके बीच वैज्ञानिक नजरिया पैदा करने में रुकावट होगी. और शिक्षा में इस तरह की सोच को सरकार के खर्च पर बढ़ावा नहीं दिया जा सकता है और न ही सभी बच्चों पर थोपा जा सकता है.

जब इस मामले पर सुनवाई चल रही थी तो केन्द्र की तरफ से पेश हुए सॉलीसीटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि संस्कृत के श्लोकों का अर्थ वैश्विक सत्य है. और केवल इनका संस्कृत में लिखा जाना इन्हें सांप्रदायिक नहीं बनाता. यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट के हर एक हॉल में “यतो धर्मा स्ततो जय:” लिखे हुए हैं जिसका मतलब होता है जहां न्याय है वहीं जीत है जो कि महाभारत से लिया गया है. इस पर जस्टिस नरीमन ने कहा,”इससे यह मतलब नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट धार्मिक है.”

विनायक शाह के मुताबिक, “केंद्रीय विद्यालयों में 1965 से असंवैधानिक तरीके से छात्रों की आस्था का लिहाज किए बगैर हिन्दी और संस्कृत में प्रार्थना करवाई जाती है. और सभी छात्रों को इसके लिए अपनी आंखें बंद करके हाथ जोड़े रखना होता है. इस दौरान छात्रों पर कड़ी निगरानी रखी जाती है. कोई बच्चा अगर ऐसा नहीं करता है तो उसे पूरे स्कूल के सामने दंड दिया जाता है.”

ऐसे में यह सवाल खड़ा हो उठता है कि बगैर वैज्ञानिक दृष्टिकोण के शिक्षा का अर्थ क्या है और इसका उद्देश क्या रह जाएगा? कहीं ऐसा तो नहीं है कि हम आगे बढ़ने की जगह पीछे जा रहे हैं. ‘एक संस्कृति’ के ऐसे शोर में धकेले जा रहे हैं जहां यह बताया जाता है कि आइन्सटाइन से बेहतर सापेक्षता का सिद्धांत वेद में मौजूद है. जहां एक विज्ञान सभा में इस बात पर चर्चा जोर पकड़ती है कि क्यों न पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय का नाम बदल कर भारत माता विज्ञान कर दिया जाए.

सुप्रीम कोर्ट में पहले भी यह सवाल उठा था

2002 में सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा राय ने एनसीईआरटी का धार्मिकता की ओर झुकाव के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में एक ऐसी ही याचिका दायर की थी. तब इस मामले की सुनवाई करते हुए जस्टिस धर्माधिकारी ने कहा था, “बच्चों को दी जाने वाली शिक्षा में सभी तरह के विचार और धर्म के दर्शनशास्त्र के बारे में जानकारी देनी चाहिए. ताकि उनके पास अपने तरीके से जीवन जीने का विकल्प मौजूद हो. और वे खुद तय कर सके कि उन्हें किस ओर बढ़ना है.”

हालांकि तब जस्टिस धर्माधिकारी ने इस बात पर कोई चर्चा नहीं की थी कि धर्म को एक अकादमिक तौर पर पढ़ाना और जब उसे एक प्रौपेगेंडा के तौर पर फैलाने में फर्क है. आज इस आधुनिक युग में हमें धार्मिक शिक्षा नहीं बल्कि धर्म के बारे में शिक्षा की जरूरत है.

संविधान में सभी धर्मों को समानता दी गई है. अगर इनमें से कोई भी शिक्षा और प्रौपेगेंडा का रूप लेता है तो धर्मांधता में बदल जाएगा. आज के समय में यह भारत के संदर्भ में एक गंभीर प्रश्न है.


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