मोदी सरकार में क्यों गहराया है कृषि संकट?
बीजेपी ने 2014 में ‘अबकी बार मोदी सरकार’ के नारों के साथ अच्छे दिन लाने का वादा किया था. सरकार तो बन गई लेकिन वादाखिलाफी हो गई. उलटे तमाम क्षेत्र में हालात बदतर हो गए. रोजगार मिला नहीं और उम्र दंगों की खबरें सुनने में खर्च हो गईं. किसान-मजदूरों पर संकट के बादल और गहरे हो गए.
कहां तो बीजेपी की ओर से घोषणा पत्र में लागत से डेढ़ गुना न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का वादा किया गया था और कहां उनकी मौत के आंकड़ों ने रफ्तार पकड़ ली. यहां तक कि शासन की नजरों में किसान कर्ज माफी को अर्थव्यवस्था के लिए माकूल नहीं पाया गया. नतीजे में देश ने देखा किसानों की बर्बादी और आत्महत्या का चढ़ता ग्राफ और गहराता कृषि संकट.
लेकिन इन सबके बीच कॉरपोरेट जगत को कर्ज माफी का भरपूर फायदा मिला. आंकड़े बताते हैं कि नरेन्द्र मोदी सरकार में सबसे ज्यादा फायदा कॉरपोरेट जगत को ही हुआ है. इसके एवज में कृषि और दूसरे असंगठित क्षेत्र तबाह हुए हैं.
आरबीआई से मिले आंकड़ों के मुताबिक मोदी सरकार ने पिछले पांच साल में करीब सात लाख करोड़ रुपये का बैंक कर्ज राइट-ऑफ किया है. यह पिछले दस साल के मुकाबले करीब 80 फीसदी ठहरता है. वित्तीय वर्ष 2018-19 की तीसरी तिमाही, दिसंबर 2018 तक 1,56,702 करोड़ के बैड लोन को राइट-ऑफ किया गया.
आंकड़ों के मुताबिक साल 2016-17 में 1,08,374 साल 2017-18 में 1,61,328 और दिसंबर 2018 तक 1,56,702 करोड़ का बैड लोन बैंकों के बैलेंस सीट से हटा दिया गया. कुल मिलाकर पिछले तीन साल में 4,26,404 करोड़ का बैड लोन राइट-ऑफ किया गया है. वहीं 12 बड़ी कंपनियों का एनपीए किसानों को माफ किए गए कर्ज से दो गुना है.
एक आरटीआई से मिली जानकारी के मुताबिक कृषि क्षेत्र से जुड़े लोगों का एनपीए 66,176 करोड़ रुपये है. इसमें सरकारी बैंकों का एनपीए 59,177 करोड़ रुपये और निजी बैंकों का 69,99 करोड़ रुपये है. अभी देश पर कुल एनपीए करीब 10,39,000 करोड़ रुपये है जिसमें सरकारी बैंकों का 8,95,000 करोड़ रुपये शामिल है.
इस हिसाब से कृषि क्षेत्र में एनपीए कुल एनपीए का 6.39 फीसदी होता है. वहीं आरबीआई के मुताबिक कृषि एनपीए बैंकिंग क्षेत्र के कुल एनपीए का 8.3 फीसदी है.
द वॉयर में छपी एक आरटीआई रिपोर्ट के हवाले से यह जानकारी भी सामने आई है कि साल 2016 में सरकारी बैंकों ने कृषि कर्ज के रूप में 58,561 करोड़ रुपये सिर्फ 615 बैंक अकाउंट में ट्रांसफर किए गए थे. इस लिहाज से औसतन 95 करोड़ रुपये सिर्फ एक व्यक्ति को दिया गया.
ऐसे में किसान को लेकर सरकार की नीतियों पर प्रश्न खड़ा होता है. एक तरफ जहां छोटे किसान कर्ज में डूबे हुए हैं उन्हें उपज का दाम नहीं मिल पा रहा है. वहीं सरकार उनके नाम का पैसा बड़े उद्योगपतियों के हवाले कर रही है.
सवाल उठता है कि मोदी सरकार ने सिर्फ कॉरपोरेट कर्ज माफ किया किसानों का नहीं?
दिसंबर 2018 को केन्द्रीय कृषि राज्य मंत्री पुरूषोत्तम रूपाला ने कहा था कि सरकार आम चुनाव से पहले किसान कर्ज माफी जैसी कोई योजना लाना नहीं चाहती है. वहीं खुद को किसानों का हितैषी कहने वाली मोदी सरकार के पास इससे जुड़ी कोई रिपोर्ट भी नहीं है.
लोकसभा में 11 दिसंबर 2018 को किसान कर्ज माफी पर सरकार की रिपोर्ट को लेकर सवाल पूछा गया तो केन्द्रीय कृषि राज्यमंत्री ने कहा कि सरकार के पास ऐसी कोई रिपोर्ट नहीं है. हालांकि तब कृषि मंत्री ने भी यह माना था कि देश में गहराते किसानों की आत्महत्या की बड़ी वजह उनका कर्ज में डूबा रहना है. किसानों की आत्महत्या पर साल 2016 के बाद से एनसीआरबी ने कोई आंकड़ा जारी नहीं किया है.
अगस्त 2018 में आई नाबार्ड की एक रिपोर्ट के मुताबिक देशभर के 52 फीसदी से ज्यादा किसान कर्ज में डूबे हुए हैं. हर एक किसान पर एक लाख से ज्यादा का कर्ज है. नेशनल सैम्पल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन (एनएसएसओ) के मुताबिक किसानों पर 58.4 फीसदी संस्थागत ऋण है और 41.6 फीसदी गैर-संस्थागत ऋण है.
साल 2017 में राज्यसभा में पेश किए एक आंकड़े के मुताबिक किसानों पर संस्थागत तौर पर 10.657 लाख करोड़ का कर्ज है. इस तरह यह माना जा सकता है कि किसानों पर 7.6 लाख करोड़ का कर्ज गैर-संस्थागत रूप में है.
किसानों की कर्जमाफी के रूप में अब तक संस्थागत कर्ज को ही शामिल किया गया है. जिसमें भी सिर्फ फसली कर्ज के रुप में बीज, खाद जैसी चीजों के लिए गए कर्ज को माफ किया जाता है. बाकी खेती से जुड़े उपकरण के लिए कर्ज को माफी के दायरे से बाहर रखा गया है.
किसानों को लेकर सरकार की दोहरी नीति को लेकर सवाल उठते रहे हैं. किसान संगठनों का कहना है कि बड़े-बड़े कॉरपोरेट घरानों के लिए करोड़ों के कर्ज माफ किए जाते हैं तो किसानों के लिए ऐसा क्यों नहीं किया जा सकता है.
केन्द्र सरकार किसानों के लिए आखिरी दफा कर्ज माफी योजना 2008 में लेकर आई थी. तब करीब चार करोड़ 40 लाख किसान इसके दायरे में आए थे. सरकार ने इसपर जीडीपी का करीब 1.3 फीसदी खर्च किया था.
क्या प्रधानमंत्री किसान बीमा योजना किसानों के हक में रहा?
जलवायु जोखिम प्रबंधन की एक रिपोर्ट के मुताबिक 70 फीसदी किसानों को प्रधानमंत्री फसल बीमा को लेकर कोई जानकारी नहीं है. महज 30 फीसदी किसानों को ही बीमा के बारे में कोई जानकारी थी. जिसमें केवल 12 फीसदी लोगों ने बीमा कराया था. कुल किसानों का तीन फीसदी किसानों ने फसलों का बीमा करवाया था.
बीमा राशि के रूप में किसानों को एक रुपया थमा दिया गया. यह उन जिलों का हाल था जहां किसानों ने सबसे ज्यादा बीमा भरा था. महाराष्ट्र के बीड जिले की बात की जाए तो यहां के करीब तीन लाख 38 हजार किसानों ने 13 करोड़ 13 लाख रुपये का बीमा भरा था. वहीं इलाके के सिर्फ नांदूरघाट बैंक से ही हजारों किसानों को फसल बीमा के रूप में 1 से 5 रुपये मिले.
नवंबर 2018 को एक आरटीआई के तहत मिली जानकारी के हवाले से छपी द वायर की एक रिपोर्ट के मुताबिक बीमा कंपनियों के मुनाफे में 350 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई है. जबकि बीमा कवर करने वाले किसानों की संख्या में 0.42 फीसदी की वृद्धि हुई. यह आंकड़ा इस देश में किसान बीमा योजना के नाम पर हुई लूट गवाही देता है.
क्या फसल बीमा योजना राफेल से भी बड़ा घोटाला है ?
फसल बीमा योजना के नाम पर बीमा कंपनियों की लूट को लेकर वरिष्ठ पत्रकार और किसान कार्यकर्ता पी. साईनाथ का मानना है कि यह राफेल से भी बड़ा घोटाला है. उनके मुताबिक बीमा कंपनियां भारत के सिर्फ एक जिले से बीमा राशि के रूप में करीब 173 करोड़ बटोरती हैं. जबकि यहां बहुत कम हिस्सा बीमा के रूप में दिया जाता है.
यही नहीं उन्होंने यह भी दावा किया है कि बीमा कंपनियां किसानों का पैसा मुंबई जैसे इलाकों में बांट रही हैं जबकि वहां किसान हैं ही नहीं.
पी. साईनाथ कहते हैं कि कृषि संकट अब राष्ट्रीय संकट बन चुका है. किसान अपनी खेती कॉरपोरेट के हाथों में गंवाते जा रहे हैं. साल 1991 से 2011 के बीच करीब 1.5 करोड़ किसानों भूमिहीन हो चुके हैं और मजदूरी कर रहे हैं.
पिछले 20 साल में 3 लाख 10 हजार किसान आत्महत्या करने को मजबूर हुए हैं. यह मानवता की त्रासदी है. सभ्यता का संकट है.
क्या कर्ज माफी अर्थव्यवस्था के लिए सही नहीं है?
दिसंबर 2018 में हिंदी पट्टी के मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की बनी नई सरकारों ने
किसानों को दो लाख रुपये तक के कर्ज से राहत देने की घोषणा की थी. बीजेपी की ओर से कांग्रेस को इस मुद्दे पर काफी घेरा भी गया. नीति आयोग के चेयरमैन ने यह कहते हुए इसकी आलोचना की थी कि यह समस्या का समाधान नहीं है.
इससे पहले 2017 में आरबीआई के तत्कालीन गवर्नर उर्जित पटेल ने राज्य सरकारों को किसानों का कर्ज माफ करने पर हिदायत दी थी. उर्जित पटेल ने चिंता जताते हुए कहा था, अगर बड़े पैमाने पर
किसानों का कर्ज माफ किया जाएगा तो इससे वित्तीय खतरा बढ़ जाएगा. उन्होंने यह भी कहा था कि कर्ज माफी से डिफॉल्टर्स को बढ़ावा मिलेगा और क्रेडिट व्यवस्था खराब होगी.
इस मामले में अर्थशास्त्री और नोबल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेना का मानना है, “मैं इस बात से
सहमत नहीं हूं कि कर्ज माफी पूरी तरह से गलत चीज है. कृषि संकट कई समस्याओं में से एक है. हम 1920 के दशक से ही इस पर बात कर रहे हैं.”
इसके उलट रघुराम राजन और अरविंद सुब्रमण्यम जैसे अर्थशास्त्री ने कर्ज माफी को सही नहीं माना है. वहीं कृषि जानकार मानते है कि कर्ज माफी कृषि समस्या का हल नहीं है लेकिन इससे किसानों को राहत मिलेगी.