आदिवासी बेदखली आदेश के खिलाफ देशव्यापी आन्दोलन


Tribal backlash on BJP brews

 

आदिवासियों के निष्कासन वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ आदिवासी और पारंपरिक लोगों को जागरूक करने के लिए सिविल सोसायटी संगठनों ने मंगलवार 26 फरवरी से देशव्यापी आंदोलन शुरू किया है.

सुप्रीम कोर्ट के फैसले से लगभग 20 लाख आदिवासी प्रभावित होंगे.

आदिवासी और वनवासियों के संगठन की संस्थआ सीएसडी (कैंपेन फॉर सर्वाइवल एंड डिगनिटी) ने “भाजपा सरकार जवाब दो” कार्यक्रम की घोषणा की है. यह अभियान  10 मार्च तक चलेगा.

बीती 13 फरवरी को शीर्ष अदालत ने बंगाल, ओडीशा, झारखंड और पूर्वोत्तर सहित 19 राज्यों को निर्देश दिया था कि वे वन भूमि पर रहने वाले आदिवासी और पारंपरिक समुदायों  को जंगल से बेदखल करने के लिए कदम उठाएं.

सरकार ने वन अधिकार के तहत मिलने वाली मान्यता, जिसे वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) भी कहा जाता है, के तहत अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वनवासियों के दावों को खारिज कर दिया था.

सीएसडी के संयोजक शंकर गोपालकृष्णन ने कहा कि भाजपा सरकार ने अंतिम चार सुनवाइयों में आदिवासियों के पक्ष में एक भी शब्द नहीं कहा. सुप्रीम कोर्ट का फैसला इसी का परिणाम है.

उन्होंने कहा मई 2014 से ही मोदी सरकार इस कानून को खत्म करने की कोशिश कर रही थी और यह उसका आखिरी चरण है.

सीएसडी ने मंगलवार 26 फरवरी को भोपाल में जल जंगल जीवन बचाओ साझा मंच कार्यक्रम का आयोजन किया है. वहीं आदिवासी छात्र संगठन और उससे जुड़े समूह गुरुवार 28 फरवरी को मध्य प्रदेश के सभी जिलों में रैलियां करेंगे.

इसके अलावा ये आयोजन छत्तीसगढ़, राजस्थान, गुजरात और ओडिशा में भी होंगे. साथ-साथ अगले चार दिनों में महाराष्ट्र, तमिलनाडु, उत्तराखंड और झारखंड में बैठक होगी.

गोपालकृष्णन ने कहा प्रत्येक कार्यक्रम के आयोजन का उद्देश्य केंद्र सरकार की भूमिका के बारे में जागरूकता फैलाना होगा. उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार को आदेश को पलटने के लिए तत्काल कदम उठाने होंगे.

सेवानिवृत नौकरशाह और सामाजिक न्याय के पक्षधर पीएस  कृष्णन ने जनजातीय मामलों के मंत्री जुएल ओराम को अदालत के फैसले को पलटने के लिए तुरंत एक अध्यादेश लाने का आग्रह करते हुए पत्र लिखा है.

पत्र में उन्होंने लिखा है कि ऐसा मालूम होता है कि इस पूरे मामले में आपका मंत्रालय कहीं था ही नही. उन्होंने लिखा कि पर्यावरण और वन मंत्रालय ने एसटी से संबंधित तथ्य और संवैधानिक और कानूनी स्थिति को अदालत के समक्ष ठीक से नहीं रखा है.

उन्होंने लिखा है कि पहला कदम आदेश को रोकना है. लेकिन, समय की कमी है. इसलिए, तत्काल अध्यादेश जारी करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है.

 


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