झारखंड: आदिवासी अधिकारों पर रक्षात्मक बीजेपी
PTI
आदिवासियों और वनवासियों के वन अधिकारों से संबंधित मामले में सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले से झारखंड एक फिर उबलने लगा है. विपक्षी पार्टियों से लेकर जन संगठन तक शीर्ष अदालत में चले मुकदमे को लेकर केंद्र सरकार के रवैये के विरोध में बगावत का बिगुल बजा चुके हैं. लोकसभा चुनाव के ठीक पहले सुप्रीम कोर्ट का फैसला और विपक्षी दलों के उबाल से झारखंड में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) नेताओं के चेहरे पर चिंता की लकीरें साफ दिखाई दे रही हैं.
झारखंड राज्य के गठन के बाद से ही गैर भाजपाई संगठनों खासतौर से प्रमुख विपक्षी दल झारखंड मुक्ति मोर्च (झामुमो) का आरोप रहा है कि बीजेपी और उसकी सरकार आदिवासियों की पहचान और अस्तित्व मिटाने पर आमादा है. वन अधिकार अधिनियम-2006 के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट में जिस तरह सरकार आदिवासियों के हितों का बचाव करने में नाकाम रही, उससे विपक्षी दलों और आदिवासी संगठनों के आरोपों को बल मिल गया है.
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सड़क पर विपक्ष
सुप्रीम कोर्ट का जैसे ही फैसला आया, कांग्रेस, झारखंड विकास मोर्च और राजद सहित विभिन्न वामपंथी दलों के नेता आदिवासियों व वनवासियों के हकों को लेकर उबल पड़े. कांग्रेस और वाम दलों ने तो विशाल जनसभा और गांव-गांव में अभियान चलाने का फैसला भी कर लिया है. गैर सरकारी संगठनों का मंच झारखंड वन अधिकार मंच लंबी लड़ाई के लिए कमर कस चुका है. मंच ने रांची में प्रेस कांफ्रेंस करके अपना रूख स्पष्ट कर दिया है. इस पूरे मामले में झामुमो भी पीछे नहीं है.
सुप्रीम कोर्ट का फैसला ऐसे समय में आया है, जब झामुमो के कार्यकारी अध्यक्ष और पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ‘झारखंड संकल्प यात्रा’ पर हैं. यह यात्रा यूं तो रघुवर दास सरकार की नाकामियों का पर्दाफाश करने के लिए है. लेकिन अब आदिवासी अस्मिता का मामला भी इसमें जुड़ गया है.
सोरेन ने अपनी ‘झारखंड संकल्प यात्रा’ के तहत जामताड़ा में कहा, “आदिवासियों का अधिकार छीन, उन्हें जंगल से बेदखल करने की सोच रखने वाले कभी झारखंड के हितैषी नहीं हो सकते. वक़्त है ऐसी सोच रखने वालों को भगाने का, वक़्त है इस तानाशाह सरकार को बदलने का.”
दूसरी तरफ जंगल-जमीन अधिकार पदयात्रा 2019 हजारीबाग से 20 फरवरी को शुरू हुई है. साझा मंच के तत्वावधान में निकली यह पदयात्रा 27 फरवरी को रांची में राजभवन के समक्ष सभा के साथ ही समाप्त होगी. इस पदयात्रा में आजसू पार्टी के नेता भी बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रहे हैं. यह पार्टी हाल तक बीजेपी के सहयोगी की भूमिका में रही है.
जमीन से बेदखल होने के बाद कहां जाएंगे आदिवासी?
लंबे समय से यह बहस का विषय रहा है कि जंगलों में केवल वन्य जीव रहें या आदिवासी भी और दूसरी बात यह कि क्या आदिवासियों से जंगलों को खतरा है? रांची विश्वविद्यालय के जनजातीय विभाग के पूर्व अध्यक्ष गिरिधारी राम गौंझू ‘गिरिराज’ ने ऐसे सवालों को लेकर ठोस तर्कों को आधार बनाते हुए ऐसे सवाल करने वालों से सवाल किया है. वे कहते हैं , “सुप्रीम कोर्ट के फैसले से आदिवासी-वनवासी संकट के दोराहे पर हैं. सवाल है कि जंगल को ही अपना सब कुछ मानने वाले ये आदिवासी वहां से बेदखल होने के बाद कहां जाएंगे?
अगर हम सिर्फ झारखंड को लें, तो यहां के पुराने बाशिंदे हैं सदान, आदिवासी-मुंडा, उरांव, खड़िया आदि. इनके खेत-खलिहान और गांव-घरों को न तो प्रकृति ने बनाकर दिया है, और न किसी सरकार या शासक ने. यहां के बाशिंदों ने अपनी हाड़तोड़ मेहनत से जंगल के बीच खाली स्थान पर, पहाड़ों के नीचे और नदियों के किनारे खेत, चांवरा, टांड़ आदि खेती करने के लिए बनाए. जंगल, पहाड़, नदी ही नहीं, जंगली जानवरों को भी इन्होंने बचाकर रखा. सदानों ने ‘कोड़कर’ खेत बनाए, मुंडाओं ने ‘खुटकटी’ व गांव बनाए और उरांवों ने ‘भुइहरी’ खेत बनाए. आदिकाल से ये अपने पुरखों के बनाए खेत-दोन को आबाद करते आ रहे हैं.
जंगलो-पहाड़ों को तो पूंजीपतियों व उद्योगपतियों ने बर्बाद किया. इसके साथ ही श्री गिरिराज सवाल करते हैं, “वर्तमान में सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया है कि वन क्षेत्र में रहने वालों को वहां से बेदखल कर दिया जाए. उनको फिर से बसाने की चिंता क्यों नहीं है? हमेशा से झारखंड के निवासी उजाड़े जाते रहे, बेदखली के शिकार होते रहे. कब इन्हें बसाने की चिंता होगी और उनके अनुकूल कानून कब बनेंगे?” गिरिधारी राम गौंझू ‘गिरिराज’ की बातें झारखंड के आदिवासियों और वनवासियों के प्रतिनिधि वाक्य की तरह हैं.
अनुसूचित जनजातियों की नाराजगी बढ़ी
झारखंड के आदिवासी जल, जमीन और जंगल के सवाल पर पहले से ही नाराज हैं. वे विभिन्न राजनीतिक दलों और संगठनों के बैनर तले समय-समय पर सड़कों पर भी उतरते रहे हैं. अब ताजा विवाद आग में घी जैसा है. दो साल पहले ही झारखंड की रघुवर सरकार ने संताल परगना काश्तकारी अधिनियम-1949 तथा छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908 में संशोधन कर दिया था.
विधानसभा में सत्तारूढ़ दल बहुमत में होने की वजह से इनसे संबंधित विधेयकों को सदन की मंजूरी भी मिल गई थी. इसके तहत सरकार को अधिकार मिलना था कि वह आदिवासियों की कृषि योग्य भूमि का भी अधिग्रहण कर सकती है. विपक्षी दलों के साथ ही सत्ताधारी दल के अनेक नेताओं के विरोध और व्यापक जनांदोलनों को ध्यान में रखकर गवर्नर को इस मामले में हस्तक्षेप करना पड़ा और सरकार अपने मकसद में कामयाब नहीं हो पाई थी. बीजेपी के वरिष्ठ नेता और पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा ने खुलेआम सरकार के इस प्रस्ताव का विरोध करते हुए कहा था कि यह फैसला बीजेपी के लिए आत्मघाती साबित हो सकता है.
सरकार के यू-टर्न के बावजूद गैर बीजेपी दलों और आदिवासी अधिकार संगठनों को एक बार फिर रघुवर सरकार को आदिवासी विरोधी साबित करने का मौका मिला गया था. ये संगठन आज भी आदिवासियों को यह बताने से नहीं चूकते कि रघुवर सरकार कारपोरेट घरानों के लिए आदिवासियों की जमीन पर डाका डालने की फिराक में है.
मोमेंटम झारखंड ग्लोबल समिट हुआ फेल
राज्य में औद्योगिक विकास के लिए दो साल पहले आयोजित ‘मोमेंटम झारखंड ग्लोबल समिट’ से औद्योगिक विकास को भले रफ्तार नहीं मिल पाई. लेकिन आदिवासियों और मूलवासियों के बीच यह संदेश गया कि सरकार सीएनटी-एसटीपी कानून बदलने के लिए क्यों बेचैन थी. ‘मोमेंटम झारखंड ग्लोबल समिट’ में देश-विदेश के कई बड़े पूंजी निवेशकों का जमावड़ा भी हुआ था. लगभग साढ़े चार लाख के एमओयू पर हस्ताक्षर भी हुए थे. सबको भरोसा दिलाया गया था कि राज्य में जमीन की दिक्कत नहीं है.
इस बात को साबित करने के लिए कुछ परियोजनाओं को सरकारी और गैर मजरुआ जमीन मुहैया भी करवा दी गई थी. लेकिन सीएनटी एसपीटी एक्ट में संशोधन नहीं हो पाने की वजह से सरकार की बड़ी किरकिरी हो गई थी.
तेली और कुर्मी को एसटी का दर्जा देने से गया गलत संदेश
खैर, सीएनटी एसपीटी एक्ट में संशोधन का मामला शांत हुआ ही था कि तेली और कुर्मी को एसटी बनाने की सरकारी अनुशंसा से एक बार फिर आदिवासी उबल पड़े. मार्च 2018 में राजधानी रांची के हरमू मैदान में पारंपरिक हथियारों से लैस हजारों आदिवासी रघुवर सरकार के खिलाफ गोलबंद हुए.
आदिवासी आक्रोश महारैली के जरिए आदिवासी संगठनों ने तेली और कुर्मी को एसटी में शामिल होने की कोशिश पर विरोध जताते हुए सरकार के खिलाफ जमकर हुंकार भरी और किसी भी सूरत में इसे लागू नहीं होने देने की घोषणा की. जय आदिवासी युवा शक्ति (जयस) के बैनर तले आयोजित इस आक्रोश महारैली में किसी राजनेता शामिल नहीं किया गया था. आंदोलनकारियों को आदिवासी संगठनों के प्रतिनिधियों ने संबोधित किया था और चुनाव में सत्ताधारी दल को सबक सिखाने का संकल्प लिया था.
झारखंड में आदिवासियों की संख्या घटी
झारखंड के आदिवासी एक तरफ अपने हकों के लिए बार-बार सड़कों पर उतरने को मजबूर होते रहे हैं. वहीं दूसरी ओर पलायन और अन्य कारणों से उनकी संख्या में तेजी से कमी आ रही है. यह बात आदिवासी अधिकार संगठनों के लिए चिंता का सबब बना हुआ है. साल 2011 की जनगणना के मुताबिक झारखंड में 26.11 फीसदी आदिवासी रह गए हैं. साल 1951 की जनगणना के मुताबिक यह संख्या 35.8 फीसदी थी. आदिवासियों की घटती जनसंख्या जल, जमीन और जंगल से उनकी कम होती दखल से जोड़कर देखा जा सकता है.
हाल ही में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की रिपोर्ट ‘ट्राइबल हेल्थ ऑफ इंडिया’ में इस चिंताजनक स्थिति के कई अन्य पहलुओं को उजागर किया गया है. मसलन, देश में आदिवासियों की 104 मिलियन आबादी है. इसमें आधी से अधिक आबादी 809 आदिवासी बहुल क्षेत्रों से बाहर रहती है. साल 2011 की जनगणना के आधार पर यह बात कही गई है. साल 2001 की जनगणना के आधार पर बताया गया है कि जिन गांवों में 100 प्रतिशत आदिवासी थे. 2011 की जनगणना में इन आदिवासियों की संख्या 32 प्रतिशत कम हो गई थी.
अब भी आदिवासियों का संख्या बल इतना तो है ही कि किसी भी राजनीतिक दल के लिए उसे नजरअंदाज करना नामुमकिन है. तभी जब तेली व कुर्मी को एसटी बनाने के विरोध में आदिवासी गोलबंद हुए तो राज्य के 42 विधायकों और दो सांसदों को उनके पक्ष में खड़ा होना पड़ा था. इसलिए संभव है कि सत्तारूढ बीजेपी चुनाव को ध्यान में रखकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के आलोक में देर-सबेर डैमेज कंट्रोल में जुटेगी.
12 जुलाई तक जंगलों से निकालने का आदेश
बीजेपी जनता को बताने की कोशिश करेगी कि रघुवर सरकार आदिवासी हितों की रक्षा के लिए कभी पीछे नहीं है. तभी वन अधिकार कानून को ध्यान में रखकर बड़ी खंख्या में आदिवासी परिवारों को वन पट्टा दिया जा चुका है. इस बीच झाविमो महासचिव बंधु तिर्की ने प्रेस बयान जारी करते हुए केंद्र सरकार से शीर्ष न्यायालय के फैसले को लेकर अध्यादेश लाने की मांग की है.
सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही वन संरक्षण अधिनियम (2006) को चुनौती देने वाली एक याचिका पर सुनवाई करते हुए फैसला दिया है कि ऐसे सभी लोगों को 12 जुलाई तक जंगलों से निकाल दिया जाए, जिनके वनभूमि स्वामित्व संबंधी दावे राज्य सरकारों की ओर से खारिज किए जा चुके हैं.
जस्टिस अरुण मिश्रा, नवीन सिन्हा और इंदिरा बनर्जी की बेंच ने यह फैसला सुनाया. वनवासियों और आदिवासियों को आदिवासी तथा अन्य वनवासी (जंगल के अधिकार की मान्यता) एक्ट- 2006 के तहत अपने दावे सिद्ध करने थे. उपलब्ध जानकारी के मुताबिक देश के 16 राज्यों में कुल 11,72,931 दावों को सिद्ध नहीं किया जा सका था. लिहाजा राज्य सरकारों ने उन्हें खारिज कर दिया.
झारखंड में ही लगभग 30 हजार दावे खारिज किए जा चुके हैं. इस पूरे प्रकरण का सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि भारत सरकार सुप्रीम कोर्ट में मामले की सुनवाई के दौरान आदिवासियों व वनवासियों के हितों की रक्षा करने में पूरी तरह नाकाम रही. पहले से ही सशंकित आदिवासियों और उनके हितों की बात करने वालों को सरकार की मंशा में खोट दिख रही है और वे ‘उलगुलान’ के लिए तैयार दिख रहे हैं.