कैसे रहते हैं 1600 फीट नीचे ये लोग!
प्रकृति हमें हर रोज़ चकित करती रहती है. हम अपने निजी दायरों की कै़द से निकलकर जितनी दूर तक प्रकृति की गोद में जाते हैं, हमें उतनी ही ज्यादा उसकी विविधता और अचरजों से परिचित होने का अवसर भी मिलता है. कल्पना कीजिए कि आप एक ऐसी इमारत के शीर्ष पर खड़े हैं, जो 114 से भी ज्यादा मंजिलों वाली है. बताइए तो जरा कि इतनी ऊंचाई पर पहुंचकर कैसा महसूस कर रहे हैं आप…? रोमांच हो रहा होगा. हृदय की धड़कनें बढ़ गयी होंगी और भय की एक ठंडी लहर भी देह के अंदर लगातार उठ रही होगी.
अब आप इस इमारत को उल्टा कर दीजिए. यानी इमारत आसमान की तरफ न जाकर ज़मीन के अंदर धंसी हुई हो. और बताइए कि धरती की इतनी गहराई में अगर आप पहुंच गए हों, तो कैसा अनुभव करेंगे? बहुत ही अजीब सा, है न….या शायद समुद्र की अतल गहराईयों में उतर जाने जैसा. और अगर इतने गहरे में जाकर आपको रहना भी पड़े, रहना भर नहीं पड़े, बल्कि पूरा जीवन ही गुजारना पड़े, तो कैसा लगेगा…? अब खुद से एक सवाल कीजिए कि क्या आप वहां पर रह सकेंगे?
पर मध्यप्रदेश में एक जनजाति ऐसी भी है, जो सदियों से इतनी ही गहराई में, अपनी असंख्य पीढ़ियों से होकर गुजरते हुए, आज भी बसर कर रही है. इस जगह का नाम है, पातालकोट और जनजाति है भारिया जनजाति. पाताल यानी कि धरती के नीचे जल वाला एक अबूझ संसार और कोट याने क़िला. पाताललोक का क़िला.
महाभारत में एक कथा आती है, जिसमें दुर्योघन आदि भाई, भीम को मूर्च्छित अवस्था में नदी में फेंक देते हैं और भीम नदी के तल से होते हुए पहुंच जाते हैं, पाताललोक. महाभारत में पाताललोक के बारे में पढ़ने के बाद, यदि पृथ्वी पर सचमुच पाताललोक देखना हो, तो आपको मध्यप्रदेश के ज़िले, छिंदवाड़ा में आना पड़ेगा. छिंदवाड़ा ज़िले के तामिया विकासखंड में ऐसी ही एक अनोखी दुनिया है, जिसे पातालकोट के नाम से जाना जाता है.
सतपुड़ा के ऊंचे-ऊंचे पहाड़ों की तराई में है, यह पातालकोट. यहां आकर यदि आप ऊंचाई पर खड़े होकर, पातालकोट पर निगाह डालेंगे, तो आपको ऐसा प्रतीत होगा जैसे कि धरती का एक विशाल भूखंड ही ज़मीन के अंदर की तरफ धंसता चला गया है. इसकी आकृति अंग्रेजी भाषा के ‘यू’ आकार जैसी है. गहराई है 1600 फुट. और उसके अंदर की दुनिया का आकार है, 79 वर्गकिलोमीटर. यहां निवास करती है भारिया जनजाति. उनके पास भी पाताललोक को लेकर एक मिथक है और वह यह, कि लंका का राजा रावण अपने आराध्य शिव की तपस्या करने के लिए पाताललोक के रास्ते से ही आया-जाया करता था. तो इस तरह पाताललोक से भारत के दो महा आख्यानक ग्रंथों महाभारत और रामायण का रिश्ता भी जुड़ जाता है.
भारिया जनजाति के बारे में एक दंतकथा भी प्रचलित है. उसके अनुसार भारिया लोग असल में भारवाहक लोग हुआ करते थे. सन् 1817 में नागपुर राज्य के राजा रघुजी भौंसले को अंग्रेजों ने युद्ध में हरा दिया था. तब रघुजी और उनके भारवाहकों आदि को कै़द करके चुनारगढ़ के क़िले में रखने का निर्णय अंग्रेजों ने लिया था. नागपुर से चुनारगढ़ का रास्ता सिवनी, जबलपुर, रीवा, मिरजापुर और वाराणसी होकर जाता है. जब अंग्रेज सैनिकों की कड़ी चौकसी में रघुजी भोंसले को इस रास्ते से ले जाया जा रहा था, तभी मौका पाकर रघुजी और उनके भारवाहक चकमा देकर भाग निकले. वे छिंदवाड़ा के सघन वन-क्षेत्र में जाकर छिप गए. उनमें से कुछ भारवाहक तो पातालकोट जैसी सुरक्षित जगह पाकर उसमें जा घुसे.
अंग्रेजों ने रघुजी भोंसले और उनके भारवाहक सैनिकों की बहुत खोजबीन की, परंतु अपार जंगलों में वे उनके निशान तक न प्राप्त कर सके. जो भारवाहक पातालकोट की गहरी खोह में घुस गए थे, उन्होंने वहीं पर अपना स्थायी ठिकाना बना लिया. यही लोग भारिया कहलाने लगे. इनकी बोली भरनाटी या भरनोटी है, जिसमें मराठी भाषा के भी कुछ शब्दों के होने से भी इस मान्यता को बल मिलता है, कि उनके पूर्वज रघुजी भोंसले के भारवाहक रहे होंगे.
पर इतिहास खंगालने और तर्क करने से इस मान्यता के पैर उखड़ जाते हैं. सन् 1817 का समय इतना प्राचीन समय नहीं है, कि तब भारियों जैसी अविकसित सभ्यता वाले जन हुआ करते हों और वे पातालकोट जैसी जगह पर रहा करते हों. या यह कि वह भौंसलों जैसी विकसित सभ्यता वाले मराठा राजा और प्रजा के साथ निवास करती हुई वह अविकसित जनजाति सह-अस्तित्व में पाई जाए. यह भी समझ से परे ही है कि पहले तो वह एक विकसित सभ्यता रही हो और बाद में अंग्रेजों के चंगुल से भागकर, एक गहरी में खोह में छिप जाने से ही वह एक अविकसित सभ्यता में बदल जाए. जो भी हो, इस जनजाति के इतिहास पर अभी और ज्यादा अनुसंधान और शोध की आवश्यकता से इंकार नहीं किया जा सकता.
पातालकोट में भारिया जनजाति के लोगों के 16 गांव हैं. पर इनमें से सिर्फ़ 6 गांवों में ही लोग निवास करते हैं, बाकी के उजाड़ पड़े हुए हैं. पर जब गांव मौजूद हैं, तो यह विश्वास भी करना ही पड़ेगा कि पहले इन गांवों में भी लोग रहते रहे होंगे. मौजूदा समय में यहां पर तकरीबन 275 परिवारों की बसाहट है. 1600 फीट नीचे का संसार ही इनका कुल संसार है. उसके बाहर की दुनिया से उनका ज्यादा संपर्क अब भी नहीं है.
पातालकोट के भारिया जनजाति के लोगों को आधुनिक सभ्यता के साथ जोड़ने के प्रयास मध्यप्रदेश सरकार निरंतर करती रही है. इसलिए अब वे पातालकोट से बाहर भी आते-जाते हैं. पातालकोट का भूखंड गहराई में होने और दूसरी तरफ सतपुड़ा के पहाड़ों की अपार ऊंचाई के कारण, पातालकोट में सुबह होने का वक़्त होता है- 9 बजे. सूर्यदेवता अपनी उजास लेकर 9 बजे से पहले वहां तक नहीं पहुंच पाते. हमारी शाम की तुलना में पातालकोट की शाम भी जरा जल्दी ही हो जाती है. 3 या 4 बजे तक दिन अस्त होने लगता है. इस तरह हमारे 12 घंटों के दिन के मुकाबले उनका दिन 6 या 7 घंटों का ही होता है.
इतने कम समय के लिये धूप रहने के कारण भारिया जनजाति के लोगों के लिए वैसी खेती कर पाना नामुमकिन ही है, जैसी कि हम समतल पर रहने वाले लोग किया करते हैं. इसलिए वे अपने पारंपरिक ढंग वाली पद्धति से कोदों, कुटकी और जबनी ही उगाया करते हैं. अब मक्का की खेती करना भी उन्होंने सीख लिया है. पहले वे अपनी पारंपरिक कृषि प्रणाली ‘आंजूढइया’ से खेती किया करते थे. इसका भी वही तरीका है, जो बैगाओं की बैंवुर खेती का है. अर्थात् जंगल काटना, लकड़ियों में आग लगाना और उसकी राख में कुटकी बोना. यही बैंवर-कुटकी कहलाती है.
भारिया लोगों को सरकार ने हल-बैल मुहैया कराये थे, पर इन आदि-जनों ने सरकारी हलों को घर के सामने सजावट वाली सामग्री की तरह रख दिया है. वे धरती को माता मानते हैं और हल चलाकर माता का पेट फाड़ना उन्हें किसी भी कीमत पर गवारा नहीं है. वहां पर औसतन 50 इंच सालाना पानी बरसता है, लिहाजा वे खरीफ की फसलें ही प्रमुख रूप से लिया करते हैं. पातालकोट में बहुत से छोटे-छोटे नाले और झरने भी हैं. इनका पानी बहकर आपस में मिलता जाता है और आगे चलकर उत्तर दिशा की ओर बहने वाली दुधी नदी का निर्माण करता है. दुधी आगे जाकर नर्मदा में मिल जाती है.
इस कामचलाऊ खेती के अलावा भारिया लोगों के पास अपनी आजीविका चलाने के लिए दूसरा साधन है, पशुपालन. वे मुर्गियां और बकरियां पालते हैं. मुर्गी की बीट और बकरियों की लेंडी का उपयोग खाद के तौर पर करते हैं और इस तरह जैविक खेती के ध्यजवाहक की भूमिका भी वे ही निभा रहे हैं. पातालकोट में चार और महुआ के पेड़ पाए जाते हैं. इन पेड़ों से चिरोंजी और महुआ फूल का संग्रहण करके भी वे अपने लिए भोजन सामग्री जुटाते हैं.
त्यौहार मनाते समय भारिया जन, आटे में महुआ मिलाकर रोटी अथवा ‘सुवारी’ बनाते हैं. वैसे ही जैसे कि हम लोग तेल में तलकर पूरियां बनाते हैं. उनके भोजन में कुटकी के पेज और मक्के की रोटी को प्रमुख स्थान प्राप्त है. इसके अलावा वे आम की गुठली के अंदर पाए जाने वाले बीज के आटे की रोटी भी खाते हैं. इसके लिए उन्हें पहले गुठली का टोटरापन निकालने की खातिर, उसे पानी में ठीक तरह से घोना पड़ता है.
पातालकोट के भारिया आदिवासियों ने अपनी परिस्थितियों से जूझकर ही अपने भोजन की वस्तुओं का आविष्कार किया है. अपने आसपास मौजूद प्राकृतिक संसाधनों से ही उन्होंने सब कुछ अर्जित किया है. पातालकोट में ‘भातकंद’ नाम का एक कंद पाया जाता है. वे इस कंद को ज़मीन से उखाड़कर गर्म राख में गड़ा देते हैं. जब वह पक जाता है या उनकी भाषा में ‘चुड़’ जाता है, तब उसे एक सिरे से पकड़कर खाने वाली थाली या दूसरे बर्तन में जाकर जोर से हिला देते हैं, तो उसमें से चावल के पके हुए दानों जैसे कण निकल पड़ते हैं. एक कंद से ही थाली भर भात मिल जाता है. इस तरह उनकी धरती माता उन्हें भर-पेट भात मुहैया कराती है. भारिया बैंवुर-कुटकी भी खाते हैं.
पातालकोट के ये आदिवासी घुटने तक आने वाली धोती और ऊपरी शरीर पर ‘सलूजा’ पहनते हैं. यह कमीज जैसी बनावट वाला पहिरावा है. वे अपने सिर पर एक सफेद कपड़ा उसी तरह लपेटते हैं, जैसे कि पगड़ी पहनी जाती है. वे अपने हाथों में हमेशा ही टंगिया और कुल्हाड़ी रखा करते हैं. इन्हीं से वे अपने लिये लकड़ी, फल आदि प्राप्त करते हैं और यही उनकी आत्मरक्षा का अस्त्र भी है. स्त्रियां हंसिया रखती हैं. वे भी घुटने तक आने वाली साड़ियां पहनती हैं. आभूषणों के तौर पर गले में मणियों की माला, कान में कर्णफूल, हाथों में कंगन-चूड़ियां और विनोरियां पहना करती हैं. पैरों में पहनती हैं, बेड़ियां. ये सभी गिलट और कांसे के बने होते हैं.
सभी जनजातीय संस्कृति की तरह भारिया संस्कृति भी दिन भर जी तोड़ मेहनत और शाम को भोजनादि से फुर्सत पाकर नाचने-गाने के जरिये मनोरंजन करने पर विश्वास करती है. उनके नृत्य भड़म, सैतम और करम लैला कहलाते हैं. वे नाचते समय जिन वाद्ययंत्रों का प्रयोग करते हैं, वे हैं- ढोल, टिमकी, झांझ, ढोलक और बांसुरी. भारिया स्त्रियां मंजीरा और चिटकुला बजाती हैं. ये लोग मेघनाद को अपना आराध्य मानकर उसकी पूजा करते हैं. पूजा वाले दिन सामूहिक रूप से त्यौहार जैसा उत्सव मनाया जाता है. मनपसंद भोजन करते हैं और रात-रात भर नाचते-गाते रहते हैं. मेघनाद के अलावा उनके और भी बहुत से देवी-देवता हैं, जैसे कि हरदुललाला, मुठुआदेव, घुरलापाठ, बाघदानी, भैंसासुर, जोगनी, खेड़राई और चण्डीमाई.
भारिया अपनी पारंपरिक शिल्प कला से भी जुड़े हुए हैं. वे छींद के पेड़ के पत्तों से कलात्मक चीजें बनाना जानते हैं. अपने घरों की दीवारों को पीली या सफेद मिट्टी से पोतकर उस पर गेरू से चित्रकारी भी किया करते हैं. घरों के दरवाजों पर चित्र उकेरे जाने की उनमें परंपरा है. पेड़ की छालों से रस्सी बनाना भी उन्हें आता है.
सरकारों की लगातार कोशिश रही है कि उन्हें भी अपनी तरह का तथाकथित विकसित सभ्यता वाला बना दिया जाए. उन्हें कभी पहनने के लिए कपड़े उपलब्ध कराए गए और कभी जिंदगी की दूसरी ज़रूरतों को पूरा करने वाली चीजें. इस तरह विकास के आधुनिक मॉडल से भारिया-जनों को जोड़ने का खूब प्रचार भी किया गया. वस्त्रहीनों को कपड़े पहनाकर सरकारें गर्वित हुईं, पर भारिया जनजाति के लोगों ने उन कपड़ों और आधुनिक संसाधनों के प्रति कोई विषेश रुचि नहीं दिखाई. वे अपनी तरह की जीवन शैली में संतुष्ट और सुखी हैं. अपनी परंपरा से उन्हें बेहद लगाव है.
पुराना समय उन्होंने कैसे बिताया होगा, यह नृतत्वशास्त्रियों और इतिहासकारों के लिए एक शोध का विषय है, पर अब हमारी सभ्यता के लगातार हस्तक्षेप के चलते वे सप्ताह में एक बार पातालकोट की दुनिया से बाहर आने लगे हैं. वे हर गुरुवार को छिंदी गांव में लगने वाले बाज़ार में नमक और ऐसी ही दीगर चीजें, जिन्हें पातालकोट में पाया या उगाया नहीं जा सकता, खरीदने आते हैं. उन्हें इसके लिये भारी कीमत चुकानी पड़ती हैं. वे विनिमय बाज़ार प्रणाली में अब भी हैं. एक किलो नमक के लिसे उनसे एक किलो चिरोंजी ले ली जाती हैं. हमारे बाज़ार में चिरोंजी के दाम 400 रुपये प्रति किलोग्राम तक हैं. हमारी इस तथाकथित विकसित सभ्यता वाला व्यापारी-समुदाय उन्हें भरपूर तरीके से लूटने में ही अपनी सभ्यता की श्रेष्ठता का प्रमाण मानता है.
भोले और सरल प्रकृति वाले हमारे ये आदि-बंधु यहां आकर गुड़ की जलेबियां खाने का लुत्फ उठाते हैं और स्त्रियां गिलट के गहनों को खरीदकर अनुपम आनंद का अनुभव किया करती हैं. हम शहरी और विकसित लोगों ने तो अपनी दुनिया को प्रकृति से काट लेने में ही अपना विकास देखने की दृष्टि हासिल कर रखी है, परंतु इन प्रकृति और पर्यावरण प्रेमियों से हमेंबहुत कुछ सीखने के लिए मिल सकता है, यदि हम अपने विकसित होने के दंभ से निकल पाए तो.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)