प्रासंगिकता खोता जा रहा है संयुक्त राष्ट्र
संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेश
मसूद अजहर को वैश्विक आतंकी घोषित करने के संयुक्त राष्ट्र के प्रयास विफल हो गए और इस विफलता का श्रेय पहले की तरह इस बार भी पड़ोसी देश चीन को दिया जा सकता है. चीन ने तकनीकी आधार पर फ्रांस द्वारा मसूद अजहर को वैश्विक आतंकी बनाए जाने के प्रस्ताव पर वीटो लगाते हुए इस मामले को समझने के लिए और कुछ समय लेने की बात कही. हालांकि संयुक्त राष्ट्र संघ में इस प्रस्ताव के गिर जाने के बाद इस पूरे मसले पर देश में फिर से आरोप प्रत्यारोप की राजनीति का दौर शुरू हो गया है.
बीजेपी ने तो इस पूरे मसले और अक्टूबर 1945 को अस्त्तित्व में आए संयुक्त राष्ट्र में चीन के वीटो अधिकार को भी हास्यास्पद तरीके से नेहरू से जोड़ डाला. दरअसल, देश में राजनीतिक बहस का जो स्तर मौजूदा दौर में है उसे देखते हुए इस प्रकार की प्रतिक्रियाएं स्वाभाविक भी हैं. परंतु इस पूरे घटनाक्रम में एक बहस जो पीछे छूट जाती है वह है संयुक्त राष्ट्र का अलोकतांत्रिक ढांचा और कुछ शक्तिशाली देशों को हासिल विशेषाधिकार.
पांच देशों को हासिल वीटो अथवा निषेधाधिकार इन पांच शक्तिशाली देशों को दुनिया के ताकवतवर पुलिसकर्मियों में बदल देता है जिससे संयुक्त राष्ट्र के सदस्य एक देश के एक वोट का कोई मूल्य नही रहा जाता है.
वास्तव में विश्व शांति, सुरक्षा और मानवाधिकारों का दायित्व संभालने वाले संयुक्त राष्ट्र की अंतरराष्ट्रीय मंच पर प्रभावहीन होती भूमिका और इस पर अमेरिका जैसे देशों के पक्षपाती रवैये का बढ़ता प्रभुत्व इस अंतरराष्ट्रीय संगठन की प्रासंगिकता पर सवाल खड़े करता है. शांति और जनवाद के तमाम दावों के बावजूद इसकी अपारदर्शी, प्रभावहीन भूमिका और लोकतंत्र के अभाव की कार्यप्रणाली पर समय समय पर खड़े किए जा रहे सवाल इस संगठन की निरर्थकता को ही रेखांकित कर रहे हैं.
परमाणु शक्ति संपन्न शक्तिशाली देशो का संगठन विश्व शांति का प्रहरी होने के बेशक लाख दावे करे मगर यह भी निर्विवाद तथ्य है कि अपनी वीटो शक्ति, असमान भूराजनैतिक प्रतिनिधित्व और राष्ट्र राज्यों के बीच असंतुलित मताधिकार के कारण संयुक्त राष्ट्र संघ के निर्णय और सत्ता संतुलन ऐतिहासिक रूप से दुनिया की पांच महाशक्तियो के पक्ष में झुके होते थे, परंतु वर्तमान आर्थिक, राजनीतिक और सामरिक रूप से एकध्रुवीय होती दुनिया के शक्ति समीकरणों ने संयुक्त राष्ट्र को मानों अमेरिका की मातहत संस्था ही बना कर रख दिया है.
जिस प्रकार पांच वीटो की ताकत रखने वाले देश अपनी इस वीटो का इस्तेमाल करते हैं उससे संयुक्त राष्ट्र के दिन प्रति दिन प्रभावहीन और कमजोर होने और उसकी घटती हस्तक्षेप की ताकत प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्वयुद्ध के मध्य रहे लीग ऑफ नेशन अर्थात राष्ट्र संघ की याद ताजा हो जाती है. राष्ट्र संघ की कमजोरी और अपने हितों की पूर्ति के लिए दुनिया के उस समय के ताकतवर देशों का गठजोड़ ही द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका का कारण बना था. दुनिया के शांतिकामी देशों और लीग ऑफ नेशन्स को अंगूठा दिखाकर इटली के तानाशाह मुसोलिनी ने इथोपिया के साथ दूसरे युद्ध में अपनी भारी भरकम फौज दी और इसमें राष्ट्र संघ के दखल से जाहिर हुआ कि किस प्रकार वह केवल अपने सदस्य देशों के हितों के लिए काम करता है.
इसी प्रकार राष्ट्र संघ की विफलता स्पैनिश गृह युद्ध और चीन जापान युद्ध में जाहिर हुई तो वहीं द्वितीय विश्व युद्ध की नींव रखने वाले इन संघर्षों और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान राष्ट्र संघ के रेड क्रॉस राहत शिवरों और चिकित्सा शिविरों पर हमलों के आरोपों ने भी राष्ट्र संघ की कमजोरी और प्रभावहीनता को पूरी तरह उजागर करके रख दिया था. जब पिछले दशक के मध्य में गाजा पट्टी पर इजराइल द्वारा हमलों के दौरान जब संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा इजराइल को 17 बार चेतावनी देने के बावजूद उसने गाजा पट्टी में स्थित उसके तीन हजार लोगों के राहत शिविर पर हमला किया तो इस एक घटना ने राष्ट्र संघ और द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान उसकी निरर्थकता की याद को जिंदा कर दिया था.
वास्तव में संयुक्त राष्ट्र संघ का वर्तमान स्वरूप आधारभूत रूप से औपनिवेशिक काल की मित्र राष्ट्रों द्वारा विश्व को नियंत्रित करने की अवधारणा पर टिका है. दूसरे विश्व युद्ध के बाद 1945 में सुरक्षा परिषद की स्थापना के समय दुनिया का बहुत बड़ा हिस्सा सम्राज्यवादी देशों का गुलाम था तो स्वाभिवक है कि उस समय के सत्ता समीकरण और दुनिया में शांति और सुरक्षा स्थापित करने के मापदंड और परिभाषाएं वर्तमान समय से एकदम भिन्न थी.
यही कारण है कि दुनिया के ताकतवर देशों को दुनिया में शांति स्थापित करने के लिए कुछ विशेषाधिकार प्राप्त हुए. फासीवादी खलनायक धुरी देशों जर्मन, जापान और इटली को हराने और भविष्य में ऐसे खतरों के दोहराए जाने की आशंका को देखते हुए मित्र राष्ट्रों को इस प्रकार का विशेषाधिकार मिलना स्वाभाविक भी था. परन्तु वर्तमान समय में दुनिया के देशो के बीच शक्ति संतुलन और राजनीतिक चेतना में मात्रात्मक और गुणात्मक स्तर पर भारी बदलाव आ चुका है. हालांकि सुरक्षा परिशद के पांचो स्थायी सदस्य अभी भी सामरिक दृष्टि से दुनिया के दस सबसे ताकतवर देशो में शुमार हैं और निर्विवाद रूप से दुनिया के आधे हथियारों का मालिक अमेरिका है. उसके बावजूद भी कई नई क्षेत्रिय शक्तियों और अर्थव्यवस्थाओं का दुनिया के नक्शे पर पर्दापण हुआ है. इन परिवर्तन के बाद भी अब तक सुरक्षा परिषद के शक्ति संतुलन और निर्णयों को प्रभावित करने वाली वीटो पावर की स्थिति 1945 की अवस्था में है.
यह वीटो अर्थात निषेधाधिकार ही संयुक्त राष्ट्र संघ के जनवाद विरोधी स्वरूप का सूत्रधार और प्रमुख कारक है. यह वीटो की शक्ति किसी भी प्रस्ताव को सुरक्षा परिषद के एजेंडे में जाने से रोक सकती है, प्रस्ताव को निरस्त कर सकती है और यहां तक कि वीटो के इस्तेमाल की धमकी भर से ही किसी प्रस्ताव की मूल भावना और उसकी भाषा या पाठ्य को बदला जा सकता है. जिस प्रकार चीन ने इस पूरे मामले को समझने के लिए समय लेने के नाम पर ही मसूद अजहर के प्रस्ताव पर तकनीकी अडंगा लगाकर अपने वीटो का मसूद अजहर को आतंकी घोषित करने के प्रयास को तीसरी बार झटका दिया है.
संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना से इक्कीसवीं सदी के पहले दशक तक अमेरिका 82 बार रूस या पूर्व सोवियत संघ 123 बार, इंग्लैंड 32 बार, फ्रांस 18 बार और चीन 6 बार इस वीटो शक्ति का इस्तेमाल कर चुके थे. वीटो के प्रयोग और उसके राजनीतिक निहितार्थो की भी सभी देशों की एक लम्बी और अलग दास्तान है.
जहां पूर्व सोवियत संघ ने अपनी वीटो शक्ति का ज्यादातर इस्तेमाल संयुक्त राष्ट्र की स्थापना के शुरुआती दस सालों में किया था वहीं अमेरिका ने नवउदारवाद के दौर में 1984 के बाद से अभी तक 45 बार वीटो की अपनी शक्ति का इस्तेमाल किया है. ध्यान रहे कि संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना के शुरुआती दस साल वो थे जब दुनिया के अधिकतर गुलाम देशों को आजादी मिली और नए तरह के उभरते अंतरराष्ट्रीय संघर्षो में नव स्वतंत्र देशों की आजादी को बचाने की आवश्यकता थी मगर इस नई उदारवादी एकध्रुवीय दुनिया में रूस ने महज चार बार वीटो शक्ति का इस्तेमाल किया जबकि इंग्लैंड तक भी इसका इस्तेमाल उससे अधिक 10 बार कर चुका है.
वीटो से किस प्रकार अपने हित साधने वाले राजनीतिक समीकरणों का बचाव किया जा सकता है इसका सटीक उदाहरण मध्यपूर्व में अपनी उपस्थिति और मुस्लिम विरोधी रवैये के लिए कुख्यात इजराइल है. अमेरिका इजराइल के खिलाफ या उसकी आलोचना के लिए आने वाले प्रस्तावों पर अस्सी के दशक से अभी तक 32 बार वीटो कर चुका है. दरअसल यही संयुक्त राष्ट्र संघ की इस गैर जनवादी वीटो की शक्ति का राजनीतिक अर्थशास्त्र है जिसमे महाशक्तियों के आर्थिक हितों को साधने वाली राजनीतिक तिकड़मों की भरमार ज्यादा और दुनिया की शान्ति और सुरक्षा की फ्रिक कम है.
असल स्थायी सदस्यता के लिए संघर्षरत तीसरी दुनिया के देशों को स्थायी सदस्यता से अधिक ऐसे संयुक्त राष्ट्र संघ के पुर्नगठन के लिए कोशिश करनी चाहिए जो दुनिया के शक्तिशाली देशों के दुनिया पर वर्चस्व की अपेक्षा दुनिया में लोगों की भूख, बेकारी, स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास और समाजिक विस्थापन, देशों के बीच संघर्षो एवं देशों के भीतर समाजिक संघर्षो के सवालों को संबोधित करते हुए सबके लिए आतंकवाद मुक्त और शांतिपूर्ण और सुरक्षित दुनिया का निर्माण कर सके. समानता के आधार पर आपसी सहमति से बनी ऐसी विश्व जनवादी व्यवस्था का निर्माण ही दुनिया में संयुक्त राष्ट्र संघ के शांति और सुरक्षा के उद्देश्य को पूरा कर सकता है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)