कोरोना के खिलाफ लड़ाई वैज्ञानिक चेतना के बिना नहीं जीती जा सकती
पूरी मानव जाति इस समय कोरोना वायरस के खिलाफ जंग लड़ रही है . भारत में भी इस लड़ाई में पूरी चिकित्सा बिरादरी डटी हुई है. कोरोना के खिलाफ इस लड़ाई में सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक है भारतवासियों में ‘वैज्ञानिक दृष्टिकोण और तर्कसंगत सोच’ की कमी जिसके चलते लोग कई तरह के पूर्वाग्रहों से ग्रसित हैं. हमारे देश में एक तर्कहीन समाज का निर्माण हुआ है और पिछले कुछ वर्षो में यह संस्कृति और मजबूत हुई है.
कुछ दिन पहले ही हिमाचल प्रदेश के प्रतीष्ठित अखबार में एक खबर छपी जिसका शीर्षक था, ‘भूतों की मदद से कोरोना को रोकेगा हिमाचल’. इस खबर में आयुर्वेद विभाग के अफसर डा. दिनेश के हवाले से बताया गया था कि आयुर्वेद विभाग कोरोना को भगाने के लिए भूत तंत्र का सहारा लेगा, जो आयुर्वेद की पुरानी विद्या है. इस खबर को प्रकाशित करने में अख़बार को संकोच नहीं हुआ और न ही नागरिकों से कोई प्रितिक्रिया आई. हिमाचल प्रदेश की भाजपा सरकार से तो कोई क्या ही आशा करे क्योंकि भाजपा तो ऐसी सोच के पक्ष में ही है. इससे पहले भी भारत में कई लोग गौ मूत्र से कोरोना को भगाने और Covid 19 वीमारी को ठीक करने के दावे कर चुके है.
भारत में कोरोना के शुरुआती मरीज मिलने पर दिल्ली में अखिल भारतीय हिन्दू महासभा के कार्यकर्ताओं ने गौ मूत्र पार्टी का आयोजन किया था जिसमे कोरोना से बचने के लिए गौ मूत्र पिया गया. धूर्त लोग संकट की ऐसी घडी में भी आम जन मानस को ठगने से बाज नहीं आये और कोरोना से बचाने का दावा करते हुए गौ मूत्र और गोबर को बेचने में लग गए. गौमूत्र की कीमत तो 500 रुपये प्रति बोतल तक रखी गई. भारीतय समाज की जड़ता की ही यह निशानी है कि न तो पुलिस ने और न ही प्रशासन ने इनके खिलाफ कोई कदम उठाया. कोलकाता में भाजपा नेता द्वारा आयोजित ऐसी ही एक गौमूत्र पार्टी में गौमूत्र पीने की वजह से एक स्वयसेवी के स्वस्थ्य ख़राब होने पर उसे हस्पताल में दाखिल करना पड़ा. तब जाकर भाजपा नेता के खिलाफ पुलिस कार्यवाही की गई वो भी तब जब पीड़ित ने शिकायत दर्ज करवाई थी.
यह कोई अलग-अलग घटनाये नहीं है वल्कि हमारे समाज की मनोदशा का परिणाम है जहाँ लोग वैज्ञानिक समझ को नहीं अपनाते और तर्क से बचते है. जनता बहुत से काम तो इसी लिए करती है क्योंकि इसके लिए किसी ने कहा था, ऐसा सुना था, किसी बाबा ने बताया था आदि आदि. उपरोक्त घटनाओं में अगर गौमूत्र से सही में बीमारी ठीक होती है किसी भी तर्कसंगत इंसान को कोई दिक्कत नहीं होगी वशर्ते ऐसा वैज्ञानिक शोध से प्रमाणित हो, चिकित्सक इसके लिए पर्ची पर लिखे जैसे वह अन्य दवाइयां लिखते है. परन्तु अंधभक्तों की तरह इस मिथ्य का पालन करना केवल और केवल अवैज्ञानिक समझ का ही परिणाम है.
वैज्ञानिक समझ के लिए विज्ञान का कोई बहुत बड़ा विद्वान होने की आवश्यकता नहीं है. यह तो जीवन जीने का तरीका है, एक विश्व दृष्टिकोण है, एक मेथड (method) है. वैज्ञानिक समझ हमारे अंदर हर घटना का कारण जानने की जिज्ञासा पैदा करता है. हर घटना को तर्क से समझने की कोशिश ही हमें इस और ओर ले जाती है. जिस तरह सत्य की खोज या किसी घटना के सही कारण का पता करने का आनंद प्राप्त करने के लिए वैज्ञानिक कड़ी मेहनत करते है उसी तरह वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले व्यक्ति सही का पता करने के लिए तर्क व तथ्यों का सहारा लेते है. वैज्ञानिक दृष्टिकोण की एक खासियत यह है कि यह अज्ञानता या पूरे ज्ञान के अभाव को स्वीकार करता है. वैज्ञानिक दृष्टिकोण को मानने वाले व्यक्ति कभी यह दावा नहीं करते कि उनको सबकुछ आता है या वह कभी गलत नहीं हो सकते इसलिए वह हमेशा तथ्यों को जांचते है परिस्थितियों की परख करते हैं. इसके विपरीत अतर्कसंगत लोग अपने आप को सर्वज्ञानी समझते है इसलिए कभी भी अपनी भूल स्वीकार नहीं करते है.
चेतन और वैज्ञानिक सोच वाला समाज विकसित करना एक लम्बी प्रक्रिया है. इसके लिए समाज में तर्क वितर्क और प्रश्न पूछने की संस्कृति को उत्साहन देना होता है. रूढ़ियों, पूर्वाग्रहों, अंधविश्वासों और कुप्रथाओं के खिलाफ सचेत व तार्किक अभियान जनता में चलाना होता है. स्वाभाविक है कि शिक्षा की इसमें विशेष भूमिका है परन्तु इसे जीवन जीने के एक हिस्से के तौर पर विकसित करना पड़ता है. इसके लिए समाज और सरकारों को मिलकर प्रयास करने पड़ते है. ऐसी सोच वाले समाज को हाथ धोना नहीं सिखाना पड़ता और न ही ऐसे समाज के नागरिक अपने रोगो के लक्षण छुपाते है जैसा कि वर्तमान में हमारे देश में हो रहा है. यह इस सोच का ही परिणाम है कि लोग इस बीमारी के लक्षणों के बावजूद सामने नहीं आ रहें है उल्टा कई लोग तो छुपा रहें है. इसका कारण है भारत में किसी गंभीर बीमारी को कलंक (स्टिग्मा) के रूप में देखा जाता है. बीमारी के सही कारणों का ज्ञान न होने के कारण और तार्किक समझ के आभाव में लोग मरीजों को ही हीन भावना से देखते है. ऐसा ही इस बीमारी के मरीजों के साथ हो रहा है. आलम यह है कि इस बीमारी के गंभीर परिणामों को जानने के बाबजूद लोग सोशल स्टिग्मा (social stigma) के डर से अपने लक्षणों को छुपा रहें हैं जो इस संक्रमण को ज्यादा गंभीर बना रहा है और इसके बीमारी सामाजिक संक्रमण के खतरे को बढा रहा है.
हालाँकि आज़ादी के बाद वैज्ञानिक दृष्टिकोण को लेकर हमारे नीतिनिर्धारक (कम से कम सैद्धांतिक तौर पर) स्पष्ट थे इसीलिए भारत का संविधान भारत के नागरिकों को वैज्ञानिक चेनता विकसितकरने के लिए प्रोत्साहित करता है. संविधान के अनुच्छेद 51 ए (एच) के तहत मौलिक कर्तव्यों के अनुसार, वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानवतावाद और जांच पड़ताल और सुधार की भावना का विकास करना, भारत के प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य होगा. यह संविधान में नागरिकों के कर्तव्य के तौर पर तो चिन्हित किया गया परन्तु जहाँ के प्रधानमंत्री ही पूरे देश के वैज्ञानिकों के सामने गणेश को प्लास्टिक सर्जरी का उदाहरण बताये तो जनता में कौन से विचार को प्रोत्साहन मिलेगा यह कम से कम हमारे लिए तो समझना मुश्किल. वैसे तर्कहीन और अवैज्ञानिक बातों के प्रचार के लिए तो सरकार के मंत्रियों में होड़ सी लगी दिखती है.
किसी भी देश में लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण और तर्कशील समाज प्राथमिक जरूरत है क्योंकि विवेकशील नागरिक की लोकतंत्र में वैज्ञानिक दृष्टिकोण से उम्मीदवारों और पार्टियों की नीतियों, मैनिफेस्टो और उनके कामों की विश्लेषणात्मक समीक्षा कर सकते है अन्यथा नागरिक अपने मत का प्रयोग गलत आधारों पर करेंगे. असल में यही हमारे देश की कहानी है जहाँ हर चुनाव में जनता के मुद्दे गायब है और धर्म, जाती और क्षेत्र ही मताधिकार की कसौटी बनते है.
वर्तमान में तो हालत और भी गम्भीत है जब राजनीतिक पार्टियां सोशल मीडिया को अपने कार्यकर्ताओं और समर्थकों द्वारा नियंत्रित कर रहीं है. देश में सत्तासीन पार्टी ने तो इसमें महारत हासिल कर ली है . ऐसे परिस्थिति पैदा करने के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण और तार्किक विचार को नागरिकों से दूर ही रखना पड़ता है. जो भी मैसेज मुख्यालय से चला, लोगो को उस पर विश्वास करना ही सिखाया जाता है. किसी भी तरह का प्रश्न या तथ्यों की पड़ताल की मनाही. इसी की परिणाम है पिछले 6 वर्षो में बड़े स्तर पर झूठी, तथ्यहीन, अतार्किक और पूर्वाग्रहों से भरी हुई अफवाहों की बाढ सी आ गई है. इनमे से बहुत सी अफवाहें या झूठी खबरे समुदाय विशेष के खिलाफ घृणा से भरी होती है जो जनता में नफरत को बढ़ावा देती है. यह कोई रहस्य नहीं है कि इस पूरी प्रक्रिया का राजनीतिक फायदे के लिए उपयोग किया जा रहा है. लेकिन इस तर्कहीन समाज में अवैज्ञानिक संस्कृति पर किसी का नियंत्रण नहीं रहता है. यह एक घातक समाज होता है जो तर्क से परे केवल पूर्वाग्रहों पर काम करता है वैसा ही वर्तमान महामारी के दौर में भी हो रहा है.
इस महामारी के दौरान हमारे प्रधानमंत्री के दो अहवाहनो और जनता में इनकी प्रतिक्रिया से हमारे समाज की दयनीय भेड़चाल वाली और भक्तिवादी संस्कृति का पता चलता है. मोदी जी की एक खासियत है कि वह जनता को व्यस्त रखने में माहिर और असल प्रश्नो से आसानी से बच निकलते है. ऐसे ही प्रयास थे 22 मार्च के दिन ताली और थाली बजाने का अहवाहन और 5 अप्रैल को मोमबत्ती तथा दिया जलाने का कार्यक्रम. हालांकि दोनों ही अवसरों पर देश की जनता सरकार की कोरोना वायरस से लड़ने की तैयारियों में जानना चाहती थी . खैर लोगो ने भी बिना सोचे समझे प्रचार शुरू कर दिया. कई अंधभक्तो ने (जिनको मोदी जी की हर बात को अटल सत्य साबित करना होता है) इन अहवाहनो को फर्जी वैज्ञानिक व्याख्या से लाभदायक सिद्ध करने की कोशिश की. हालाँकि ऐसा कोई दावा न तो मोदी जी ने और न ही सरकार ने किया. परन्तु सोचने की संस्कृति ही नहीं और केवल भीड़ चाल का प्रचलन हो तो परिस्थिति नियंत्रण के बाहर होना तय होता है. दोनों ही अवसरों पर एक पागलपन की तरह लोगो ने कार्यक्रमों में शिरकत. यहाँ तक कि विजय जुलूस की तरह लोग सड़को पर निकल आये और भौतिक दूरी (सामाजिक नहीं) बनाये रखने के लक्ष्य को ही पराजित कर दिया और संक्रमण के खतरे को ही बढ़ाया. दूसरा आहवाहन तो ज्यादा खतरनाक था. लोगो ने केवल मोमबत्ती तथा दिए नहीं जलाये पर खूब पटाखे भी चलाये. देश में लोग कोरोना से मर रहें है, हज़ारों लोग अपने घरों से दूर भूख से मरने की कगार पर है पर देश के नागरिक किस चीज की ख़ुशी मन रहें हैं, किसी के भी तर्क से बाहर है. भाजपा की एक नेत्री ने तो आवेश और उन्माद में आकर हवा में फायर तक किया. अजीब स्तिथि है हम स्वाश से जुड़ी एक बीमारी के खिलाफ लड़ाई में पटाखे जला रहें है. क्या यह तार्किक समाज का चलन है. कतई नहीं परन्तु यह आचरण है एक ऐसे समाज का जो किसी भी कार्य की वजह नहीं जानना चाहता. बस टीवी पर घोषणा हुई. एक सुव्यवस्थित तंत्र प्रचार में लग गया और इवेंट हो गया. क्यों? उत्तर किसी के पास नहीं.
इस संकट की घडी में जब एक तरफ लोग बीमारी से मर रहें है और दूसरी तरफ लॉकडाउन (lockdown) के चलते देश की मेहनतकश जनता विशेषतौर पर असंगठित मज़दूर, खेतमज़दूर और प्रवासी मज़दूर भूख से जीवन बचाने की लड़ाई लड़ रहें है वहीँ हमारा समाज कई तरह के पूर्वाग्रहों के चलते नफरत में बंट रहा है. ऐसी स्तिथि में सबको एक साथ रहने की जरूरत है. वायरस से लड़ने के लिए जहाँ जरूरत है शारीरिक दूरी बनाने की वहीँ यह लड़ाई सामाजिक एक जुटता के बिना नहीं जीती जा सकती. इसके लिए जरूरत है एक सजग और सचेत समाज की. हमारा देश में आलम तो यह है की हम इस लड़ाई में सुरक्षा प्रावधानों के आभाव में दिन रात काम करने वाले चिकित्सा समुदाय के तथाकथित सम्मान के लिए थाली तो पीट सकते है परन्तु जब ऐसा ही कोई डॉक्टर या नर्स हमारे मोहल्ले, हमारी बिल्डिंग या क्षेत्र में रहते है तो संक्रमण के डर से उनसे अभद्र व्यवहार करते है और हिंसा तक करते है. ऐसी कई खबरे कई शहरों से आ रहीं है . पिछले एक महीने में हमारे अतार्किक समाज के मुसलमानों के खिलाफ पूर्वाग्रह खुल कर सामने आएं है. सरकार को तो अपनी नाकामी छुपाने के लिए कोई न कोई निशाना चाहिए ही होता है. तार्किक दिमाग को यह समझाने की कोई जरूरत नहीं पड़ती कि सभी तरह का धार्मिक कट्टरवाद विज्ञानं के खिलाफ ही होता है और वीमारी के खिलाफ वैज्ञानिक लड़ाई में रूकावट ही पैदा करता है फिर चाहे वह मरकज जमात जो यह मंदिरों में रामनवमी वाले या तमाम बंदिशों के वावजूद जन्मदिन की पार्टी मानाने वाले. हालाँकि सभी के अपने दावे है जिन पर यहाँ हम चर्चा नहीं कर रहें है. लेकिन वैज्ञानिक समझ वाला समाज जानता है कि देश का हर मुसलामान जमाती नहीं है, जिस तरह देश का हर हिन्दू आरएसएस का नहीं है. इसलिए गलत की निंदा करते हुए भी वह किसी समुदाय के खिलाफ नफरत नहीं करता. लेकिन भारत में इसके बिलकुल विपरीत हुआ है पिछले एक महीने में एक नफरत भरा पागलपन, वो भी संकट के दौर में.
इस सर्वव्यापी महामारी से अगर हमने सफलता से निकलना है तो यह वैज्ञानिक दृषिकोण और विज्ञान के बिना संभव नहीं . एक बड़ा सबक यह भी है कि हम सचेत होकर एक ऐसे समाज के निर्माण के लिए काम करें जो ऐसे संकट में देश के साथ खड़ा हो न कि अवरोध उत्पन्न करें. लेकिन इसके लिए जरूरत है कड़े कदम उठाने की, श्राप देने वालों को सांसद बनाएंगे तो आम इंसान के लिए क्या आदर्श स्थापित करेंगे. सरकारें नहीं करेंगी तो नागरिक समाज को आगे आना पड़ेगा. तकनीक के प्रयोग के साथ वैज्ञानिक नागरिकों की चेतना भी आगे की तरफ लेकर जानी होगी. विकसित तकनीत और तकनिकी संस्कृति वाले समाज का मष्तिस्क अगर वैज्ञानिक चेतना वाला न होकर पिछडे और तर्कविहीन विचारों वाला होगा तो यह समाज में एक बड़ा अंतर्विरोध पैदा करता है जो समाज के विध्वंश का ही कारण बनता है.