प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना को क्यों वैकल्पिक बनाना चाहती है सरकार?


why government want pmfby to be voluntary

 

केन्द्र सरकार अपनी महत्वकांक्षी कृषि बीमा योजना पीएमएफबीवाई से हाथ खींचती नजर आ रही है. साल 2016 में केन्द्र की मोदी सरकार ने कृषि सुधार के लिए पैकेज तहत प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना को लॉन्च किया था.  17 साल पुरानी राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना(एनएआईएस) की जगह लाई गई नई योजना में किसानों को आठ से 12 फीसदी प्रीमियम के बजाय डेढ़ से पांच फीसदी देने का प्रावधान है.

पीएमएफबीवाई के प्रीमियम में 50-50 फीसदी केन्द्र और राज्य की सरकार अनुदान देती हैं.

जानकारों के मुताबिक पीएमएफबीवाई को किसानों के लिए वैकल्पिक बनाने से बीमित किसानों की संख्या घटेगी और जोखिम बढ़ेगा और कुल प्रीमियम घटने से प्रति किसान प्रीमियम बढ़ सकता है.

बैंकों या अन्य संस्थाओं से ऋण लेकर खेती करने वाले किसानों के लिए फिलहाल पीएमएफबीवाई के तहत बीमा करवाना अनिवार्य है. साल 2016 की खरीफ की फसल से लेकर 2018 की रबी की फसल के बीच कुल 19,1152 लाख किसानों ने पीएमएफबीवाई योजना के तहत फसल बीमा लिया. इनमें 73 फीसदी ऋण लेकर खेती करने वाले किसान हैं. यानी करीब तीन-चौथाई किसानों ने अनिवार्य रूप से इस योजना के तहत खुद को पंजीकृत करवाया है.

पिछले दिनों केन्द्र सरकार की ओर से लोकसभा में पीएमएफबीवाई को किसानों के लिए ऐच्छिक बनाये जाने की चर्चा हुई. बीजेपी ने आम चुनाव में इस योजना को किसानों के लिए ऐच्छिक बनाने का वादा भी किया था.

हालांकि जानकारों का मानना है कि बीमा योजना को लागू करने में आ रही दिक्कतों और केन्द्र सरकार की ओर से फंड की कमी की वजह से सरकार इसे वैकल्पिक बनाने पर विचार कर रही है.

साल 2015 से साल 2019 के बीच केन्द्र सरकार बीमा योजना के लिए अनुदान के रूप में 36,500 करोड़ रुपये से ज्यादा खर्च कर चुकी है. आलोचकों का दावा है कि खर्च के मुकाबले किसानों को फायदा नहीं हो पाया है. देश के कई हिस्सों में शर्तों पर खरा नहीं उतरने या जानकारी के अभाव में किसान फसल क्षतिपूर्ति के लिए दावा नहीं कर पाए हैं या उन्हें तकनीकी कारणों से मुआवजा नहीं मिल पाया है.

उदाहरण के लिए हरियाणा के सिमरन संधू की फसल पानी में डूबकर बर्बाद होने के बावजूद उन्हें मुआवजा नहीं मिल पाया. बीमा शर्तों में धान की फसल का पानी में डूबने को प्राकृतिक आपदा के अंतर्गत नहीं रखा गया है. बीमा को ऐच्छिक बनाने से संधू जैसे किसानों को राहत मिल सकती है. लेकिन इसके कई दूरगामी परिणाम देखने को मिलेंगे. बीमा नहीं होने पर फसल बर्बाद होने की स्थिति में किसानों के लिए ऋण चुकाना मुश्किल होगा और उनका जोखिम बढ़ेगा.

पश्चिम उत्तर प्रदेश में फसल के खराब होने की स्थिति में मुआवजा मिलने की दर काफी कम रही है. जबकि सेन्टर फॉर साइंस एंड इन्वायरमेंट (सीएसई) की जुलाई 2017 में जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक अप्रैल 2017 तक योजना से मिलने वाले प्रीमियम से बीमा कंपनियों को 10,000 करोड़ रुपये का फायदा हुआ है. मुआवजा देने में बीमा कंपनियों के ढीले-ढाले रुख और बीमा कंपनियों के भारी मुनाफे की आलोचना भी हुई है.

बीमा कंपनियों को सरकार क्रॉप कटिंग एक्सपेरिमेंट(सीसीई) का पूरा डाटा नहीं दे पाई है. सीसीई से बीमा कंपनियां उपज का निर्धारण करती हैं. यह मुआवजे के भुगतान के लिए जरूरी है.

पीएमएफबीवाई में बीमा कंपनियों को फसल बुआई के तीस दिनों के भीतर प्रत्येक पंचायत में कम से कम चार फसलों के लिए सीसीई डेटा देने का प्रावधान है. लेकिन लोगों की कमी की वजह से सरकार सीसीई की प्रक्रिया पूरी नहीं कर पाई है.

इस साल देशभर में मॉनसून की आवक कमजोर रही है. इसकी वजह से आने वाले समय में मुआवजे के दावों में बढ़ोत्तरी की उम्मीद है.

केन्द्र सरकार राज्यों की प्रतिक्रिया का इंतजार कर रही है. अगर राज्यों ने केन्द्र की मंशा को हरी झंडी दे दी तो बीमा को वैकल्पिक बनाने का रास्ता साफ हो जाएगा.


Big News