आखिर क्यों जरूरी है जाति का विनाश?


ambedakar's book anhilation of caste is prelude to concept of modern india

 

आंबेडकर की 128वीं जयंती पर पढ़िए आंबेडकर की किताब ‘जाति का विनाश’ का एक अंश :-

जाति हिंदुओं को वास्तविक समाज या राष्ट्र बनाने से रोकती है

जाति की परिणति आर्थिक दक्षता में नहीं होती. जाति नस्ल में सुधार नहीं ला सकती, न सुधार ला पायी है. जाति ने सिर्फ एक काम किया है. इसने हिंदुओं को पूर्णत: असंगठित और नैतिक शक्ति से शून्य बना दिया है.

जिस पहली और सर्वोपरि बात को अवश्य पहचाना जाना चाहिए, वह यह है कि हिंदू समाज एक मिथक है. स्वयं हिंदू नाम ही विदेशी है. मुसलमानों ने यहां के हिंदुओं को यह नाम दिया था, ताकि उनकी अपनी अलग पहचान बन सके. मुस्लिम आक्रमण के पहले किसी भी संस्कृत ग्रंथ में यह नाम नहीं मिलता. उन्हें एक सामान्य नाम की जरूरत ही महसूस नहीं हुई, क्योंकि उन्हें एक समुदाय का गठन होने की प्रतीति ही नहीं थी. अपने आप में हिंदू समाज का अस्तित्व नहीं है. यह जातियों का एक समुच्चय मात्र है. प्रत्येक जाति को अपने अस्तित्व का एहसास है. उसके अस्तित्व का एकमात्र उद्देश्य यह है कि वह बनी रहे. जातियों के संघ का गठन भी नहीं हुआ है. जब तक हिंदू-मुस्लिम दंगा न हो, एक जाति में यह एहसास तक पैदा नहीं होता कि वह दूसरी जातियों से संबद्ध है. दंगे को छोड़ कर अन्य सभी अवसरों पर प्रत्येक जाति अपने को दूसरी जातियों से अलग दिखने और रहने का प्रयास करती है.

समाजशास्त्री जिसे कहते हैं– ‘प्रचार की चेतना, उसका हिंदुओं में बहुत अभाव है. हिंदुओं में एक समुदाय का सदस्य होने यानी हिंदू होने की चेतना नहीं है. प्रत्येक हिंदू में जिस चेतना का अस्तित्व है, वह किसी खास जाति का होने की चेतना है. इसी वजह से यह कहा जा सकता है कि हिंदू न ही एक समाज हैं, न ही एक राष्ट्र.

हालांकि बहुत-से भारतीय ऐसे हैं, जिनका देशप्रेम उन्हें यह स्वीकार करने की इजाजत नहीं देता कि भारतीय एक राष्ट्र नहीं हैं, कि वे व्यक्तियों का एक आकारहीन समूह हैं. उनका दावा है कि प्रत्यक्ष दिखने वाली विविधता के भीतर हिंदू जीवन शैली को चिह्नित करने वाली एक मूलभूत एकता है, क्योंकि उन आदतों और प्रथाओं में, विश्वासों और विचारों में एक निश्चित समानता है, जो समूचे महादेश में पाये जाते हैं. आदतों और प्रथाओं में, विश्वासों और विचारों में समानता जरूर है, लेकिन इस निष्कर्ष को स्वीकार नहीं किया जा सकता है कि इस वजह से हिंदू समाज नाम की कोई चीज है. ऐसा कहना उन आवश्यक वस्तुओं की कुसमझ है, जो समाज का गठन करती हैं. भौतिक रूप से एक-दूसरे के नजदीक रहने से लोग समाज नहीं हो जाते, जैसे कोई व्यक्ति अन्य लोगों से दूर रहने पर भी अपने समाज का सदस्य बना रहता है.

दूसरी बात यह है कि सिर्फ आदतों और प्रथाओं, विश्वासों और विचारों में समानता मनुष्यों को एक समाज के रूप में गठित करने के लिए काफी नहीं हैं. चीजें भौतिक स्तर पर ईंटों की तरह एक हाथ से दूसरे हाथ में स्थानांतरित की जा सकती हैं. इसी तरह, एक समूह की आदतों और प्रथाओं को, विश्वासों और विचारों को दूसरा समूह ग्रहण कर सकता है; और दोनों समूहों के बीच समानता दिखाई पड़ सकती है. संस्कृति का फैलाव प्रसरण से होता है, और यही कारण है कि विभिन्न आदिम कबीलों में भी आदतों और प्रथाओं, विश्वासों और विचारों की समानता होती है, यद्यपि वे पास-पास नहीं रहते. लेकिन कोई यह नहीं कह सकता कि चूंकि उनमें ये समानताएं हैं, इसलिए आदिम कबीले एक समाज थे. इसलिए कि कुछ निश्चित चीजों में समानता समाज बनाने के लिए काफी नहीं होती है.

लोग समाज तब बनाते हैं, जब उनके पास ऐसी चीजें हों, जो उनमें साझा हों. एक जैसी चीजें रखना चीजों की साझेदारी से एकदम भिन्न है. और एकमात्र तरीका, जिसके द्वारा लोग चीजों में एक-दूसरे से साझा करते हैं, एक-दूसरे के साथ संवाद में रहना है. यह बात यह कहने का मात्र दूसरा तरीका है कि समाज संवाद से ही– वस्तुत: संवाद में ही– अस्तित्वमान बना रहता है. इसे ठोस बनाने के लिए, यह पर्याप्त नहीं है कि लोगों के एक वर्ग का काम करने का तरीका लोगों के दूसरे वर्ग से मेल खाता है. समानांतर गतिविधि, समान होने पर भी, लोगों को एक समाज के रूप में गठित करने के लिए पर्याप्त नहीं होती.

यह इस तथ्य से प्रमाणित होता है कि हिंदुओं में विभिन्न जातियों द्वारा मनाये जाने वाले त्योहारों में समानता है. इसके बावजूद विभिन्न जातियों द्वारा समान त्योहारों को समानांतर रूप से मनाये जाने की विधि ने उन्हें एक ऐक्यीकृत पूर्णता में ग्रंथित नहीं किया है. इसके लिए जो आवश्यक है, वह यह है कि व्यक्ति एक साझा गतिविधि में साझेदारी और हिस्सेदारी करे, ताकि उसमें भी वे ही भावनाएं पैदा हों जो दूसरों को ऊर्जस्वित करती हैं. व्यक्ति को एक साझा गतिविधि में साझीदार या अंशधारी बनाना, ताकि उसे महसूस हो कि उस गतिविधि की सफलता उसकी अपनी सफलता है और उस गतिविधि की विफलता उसकी अपनी विफलता– यही वह असली चीज है, जो लोगों को एक-दूसरे से बांधती है और उन्हें एक समाज बनाती है. जाति व्यवस्था साझा गतिविधियों को रोकती है और साझा गतिविधियों को रोक कर इसने हिंदुओं को एक समाज बनने से रोका है, जिसका एक ऐक्यबद्ध जीवन हो और जिसमें अपने होने की चेतना हो.

समाज-विरोधी भावना जाति व्यवस्था का सबसे निकृष्टतम लक्षण है

हिंदू प्राय: किसी गिरोह या समूह के अलग-थलग रहने और दूसरों से दूरी बरतने की शिकायत करते हैं और उन पर समाज-विरोधी भावना न रखने का लांछन लगाते हैं. लेकिन वे आराम से भुला देते हैं कि यह समाज-विरोधी भावना उनकी अपनी जाति व्यवस्था का निकृष्टतम लक्षण है. एक जाति दूसरी जाति के खिलाफ नफरत भरे गीत वैसे ही गाती है, जैसे पिछले युद्ध (प्रथम विश्वयुद्ध) के दिनों में जर्मन अंग्रेजों के खिलाफ नफरत भरे गीत गाते थे. हिंदुओं का साहित्य जातियों की ऐसी उद्‍गम गाथाओं से भरा हुआ है, जिनमें यह साबित करने की कोशिश की जाती है कि हमारी जाति का उद्‍गम गौरवपूर्ण है और अन्य जातियों का उद्‍गम अत्यंत हीन. सह्याद्रिखंड[43] इस प्रकार के साहित्य का एक कुख्यात उदाहरण है.

यह समाज-विरोधी भावना सिर्फ जाति तक सीमित नहीं है. यह गहराई में चली गयी है और इसने उप-जातियों के आपसी संबंधों में भी जहर घोल दिया है. मेरे प्रांत में गोलक ब्राह्मण, देवरुखा ब्राह्मण, कराडा ब्राह्मण, पलाशे ब्राह्मण और चितपावन ब्राह्मण– सभी एक ही ब्राह्मण जाति का उप-वर्ग होने का दावा करते हैं. लेकिन उनके बीच जैसी समाज-विरोधी भावना व्याप्त है, वह उस समाज-विरोधी भावना जितनी ही साफ-साफ दिखाई देती है और उतनी ही जहरीली है, जितनी उनमें तथा अन्य ग़ैर-ब्राह्मण जातियों के बीच. इसमें कुछ भी विचित्र नहीं है. समाज-विरोधी भावना हर उस जगह पायी जाती है, जहां एक समूह के ‘अपने खास हित’ होते हैं, जो उसे अन्य समूहों के साथ पूर्ण अंतरक्रिया करने से रोक कर देते हैं. इसके पीछे जो मिला हुआ है, उसकी रक्षा करने का इरादा होता है.

यह समाज-विरोधी भावना, अपने हितों की रक्षा करने की यह भावना विभिन्न जातियों के एक-दूसरे से बिलगाव में जितने स्पष्ट रूप से प्रकट होती है, उतने ही स्पष्ट रूप से राष्ट्रों के बीच एक-दूसरे से विलगाव में. ब्राह्मण का पहला सरोकार ग़ैर-ब्राह्मणों के हितों से ‘अपने खास हितों’ की रक्षा करना होता है और ग़ैर-ब्राह्मणों का पहला सरोकार ब्राह्मणों के हितों से अपने हितों की रक्षा करने का. अतएव, हिन्दू सिर्फ जातियों का समूह नहीं हैं, वरन वे एक-दूसरे से युद्ध करते बहुत-से समूह हैं, जिनमें से प्रत्येक सिर्फ अपने लिए और अपने स्वार्थपूर्ण आदर्श के लिए जीता है.

जाति का एक और लक्षण है, जो निंदनीय है. आज के अंग्रेजों के पूर्वज वार्स ऑफ रोजेज और क्रॉमवेलियन युद्धों में या तो इस पक्ष की ओर से या उस पक्ष की ओर से लड़े थे. लेकिन जो इस पक्ष से लड़े थे, उनके वंशधर विरोधी पक्ष की ओर से लड़ने वालों के वंशधरों के खिलाफ किसी प्रकार का शत्रु भाव और किसी प्रकार का गुस्सा नहीं रखते. आपसी द्वंद्व को भुला दिया गया है. लेकिन आज के ग़ैर-ब्राह्मण उस अपमान के लिए आज के ब्राह्मणों को माफ नहीं कर सकते, जो इनके पूर्वजों ने शिवाजी का किया था. आज के कायस्थ उस कलंक के लिए आज के ब्राह्मणों को माफ नहीं कर सकते, जो इनके पूर्वजों ने उनके पूर्वजों पर लगाये थे. यह फर्क कहां से आया है? स्पष्टत: जाति व्यवस्था से. जाति और जाति चेतना के बने रहने से जातियों के बीच अतीत के द्वंद्वों की स्मृति हरी बनी रहती है और जातियों को एकजुट होने से रोकती है.

जाति ने हिंदुओं को परस्पर सहयोग, विश्वास और बंधुता की अनुभूति से वंचित किया

जिन कारणों से हिंदुओं के लिए शुद्धि एक असंभव चीज है, उन्हीं कारणों से हिंदू समाज एक संगठन नहीं बन पाया है. संगठन के पीछे विचार यह होता है कि हिंदू के दिमाग से उस कातरता और कायरता को निकाल फेंका जाये, जो उसे, दर्दनाक तरीके-से मुसलमानों और सिखों से अलग रखती है और जिसने उसे अपनी रक्षा के लिए विश्वासघात और धूर्तता के निम्न स्तर के तरीके अपनाने के लिए प्रेरित किया है. स्वाभाविक रूप से प्रश्न उठता है : सिख या मुसलमान वह शक्ति कहां से ग्रहण करता है, जो उसे बहादुर और निर्भय बनाती है? मुझे विश्वास है, यह शारीरिक शक्ति की श्रेष्ठता, खुराक या कसरत की वजह से नहीं है. इसका स्रोत इस भावना से पैदा होने वाली ताकत है कि जब कोई सिख खतरे में पड़ेगा तो सभी सिख उसे बचाने के लिए दौड़ पड़ेंगे या किसी मुसलमान पर हमला होगा, तब सभी मुसलमान उसे बचाने के लिए पहुंच जायेंगे.

हिंदू यह ताकत हासिल नहीं कर सकता. वह इस बात से आश्वस्त नहीं हो सकता कि उसके लोग उसकी सहायता करने के लिए आएंगे. अकेला होने और अकेला होने की किस्मत के कारण वह शक्तिहीन रह जाता है, कातर और कायर बन जाता है और लड़ाई में या तो आत्मसमर्पण कर देता है या भाग निकलता है. सिख और मुसलमान निर्भय रहते हैं और लड़ते हैं, क्योंकि वे जानते हैं कि अकेले होने पर भी अकेले नहीं रहेंगे. इस विश्वास की उपस्थिति एक को डटे रहने में मदद करती है और इसकी अनुपस्थिति दूसरे को भाग चलने के लिए प्रवृत्त करती है.

अगर आप इस मामले का थोड़ा और अनुशीलन करें और प्रश्न करें कि मदद और सहायता के मामले में क्यों सिख और मुसलमान इतना आश्वस्त अनुभव करते हैं और हिंदू क्यों इतना निराशाग्रस्त रहता है, तो आप पायेंगे कि इसके कारण उनकी, सम्मिलित जीवन शैली के फर्क में मौजूद हैं. सिखों और मुसलमानों की सम्मिलित जीवन शैली उनके सदस्यों में भ्रातृत्व की भावना पैदा करती है, जबकि हिंदुओं की सम्मिलित जीवन शैली ऐसा नहीं करती. सिखों और मुसलमानों में एक सामाजिक भावना है, जो उन्हें एक-दूसरे का भाई बनाती है. हिंदुओं में ऐसा कोई तत्व नहीं है, इसलिए कोई भी हिंदू दूसरे हिंदू को अपना भाई नहीं मानता. इससे इस बात का स्पष्टीकरण होता है कि क्यों कोई सिख न केवल कहता है, बल्कि महसूस भी करता है कि एक सिख या एक खालसा सवा लाख लोगों के बराबर है. इससे इस बात का स्पष्टीकरण होता है कि क्यों एक मुसलमान हिंदुओं की एक भीड़ के बराबर है. यह फर्क नि:संदेह जाति की वजह से पैदा होने वाला फर्क है. जब तक जाति का अस्तित्व है, तब तक हिंदुओं का संगठन नहीं हो सकता और जब तक संगठन नहीं होता, तब तक हिंदू कमजोर और कातर बना रहेगा.

हिंदू दावा करते हैं कि वे बहुत सहिष्णु लोग हैं. मेरी राय में, दावा गलत है. बहुत-से मौकों पर वे असहिष्णु हो सकते हैं और यदि कुछ मौकों पर वे सहिष्णु होते हैं, तो इसलिए कि वे इतने कमजोर या उदासीन हैं कि वे विरोध नहीं करते. हिंदुओं की यह उदासीनता इस कदर उनके स्वभाव का अंग हो गयी है कि हिंदू कातरता के साथ कोई भी अपमान या गलत चीज बर्दाश्त कर लेंगे. मॉरिस के शब्दों में, आप उनके भीतर पायेंगे ‘बड़ा कमजोर को लतियाता है, मजबूत कमजोर को पीटता है, क्रूर लोग बेडर हैं, दयावान में साहस नहीं है और बुद्धिमान लोग बेपरवाह रहते हैं.’ हिंदू देवताओं के प्रशस्त-प्रशांत होने के कारण हिंदुओं में जो पीडि़त या अत्याचार-ग्रस्त हैं, उनकी दयनीय स्थिति की कल्पना कर पाना मुश्किल नहीं है. उदासीनता सबसे बुरी किस्म की बीमारी है, जो लोगों में संक्रमित हो सकती है. हिंदू उदासीन क्यों रहता है? मेरी राय में यह उदासीनता जाति व्यवस्था का परिणाम है, जिसने एक अच्छे उद्देश्य के लिए भी संगठन और सहयोग को असंभव बना दिया है.

हर प्रकार के सुधारों को रोकने के लिए जाति ताकतवर हथियार है

सामूहिक मानदंडों, सामूहिक प्राधिकार और सामूहिक हितों के विरोध में व्यक्ति द्वारा अपने मतों और विश्वासों, उसकी अपनी स्वाधीनता और अपने हित का अभिकथन– सभी प्रकार के सुधार की शुरुआत इसी तरह होती है. लेकिन सुधार जारी भी रहेगा, यह उस गुंजाइश पर निर्भर है, जो कोई समूह इस व्यक्तिगत अभिकथन के लिए प्रदान करता है. यदि ऐसे व्यक्तियों के साथ व्यवहार करने में समूह सहिष्णु और न्याय भावना से युक्त है, तो वे अपनी बात रखना जारी रखेंगे और अंतत: अपने साथियों का हृदय परिवर्तन करने में सफल होंगे. इसके विपरीत, यदि समूह असहिष्णु है और इसकी परवाह नहीं करता कि ऐसे व्यक्तियों को दबाने के लिए कैसे साधनों का सहारा लिया जाये, तो वे नष्ट हो जायेंगे और सुधार भी दम तोड़ देगा.

जब किसी भी जाति को ऐसे व्यक्ति को, जो जाति के नियमों को तोड़ने का दोषी है, जाति से बहिष्कृत करने का निर्विवाद अधिकार है और जब यह महसूस किया जाता है कि जाति से बहिष्कृत किये जाने का मतलब है, तमाम तरह के सामाजिक संपर्कों की समाप्ति. तब इस पर सहमति होगी कि जाति से बहिष्कार और मृत्यु के बीच चुनने को कुछ भी नहीं है. अत: इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है कि व्यक्ति के स्तर पर हिंदुओं में जाति की दीवार को तोड़कर अपनी स्वाधीनता प्रदर्शित करने का साहस नहीं रहा है.

यह सच है कि मनुष्य अपने साथियों के साथ रह नहीं सकता. पर यह भी सही है कि मनुष्य अपने साथियों के बगैर भी नहीं रह सकता. वह अपने साथियों का समाज अपनी शर्तों पर पाने की कोशिश करेगा. यदि वह इसे अपनी शर्तों पर नहीं पा सकता, तब वह इसे किसी भी शर्त पर पाने के लिए तैयार हो जायेगा– यहां तक कि इसके लिए वह संपूर्ण समर्पण भी कर सकता है. इसका कारण यह है कि समाज के बिना उसका काम नहीं चल सकता. जाति मनुष्य की इस असहाय स्थिति का फायदा उठाने और उससे अपनी नियम संहिता का सख्ती से– शब्दश: भी और भावत: भी– पालन कराने पर इसरार करने के लिए तैयार रहती है.

कोई जाति बड़ी आसानी से किसी सुधारक की जिंदगी को नरक बना देने के षड्यंत्र के रूप में अपने को संगठित कर सकती है और षड्यंत्र करना अपराध है, तो मैं नहीं समझता कि जाति के नियमों को तोड़ने का साहस करने के लिए किसी व्यक्ति को जाति-बहिष्कृत करने का प्रयास, जैसे घृणित कृत्य को कानून द्वारा दंडनीय अपराध क्यों नहीं बनाया जा सकता? लेकिन जैसी कि स्थिति है, कानून भी प्रत्येक जाति को अपनी सदस्यता को विनियमित करने और भिन्न विचार रखने वालों को जाति से बहिष्कृत करने का दंड देने की स्वायत्तता देता है. जाति रूढ़िग्रस्त लोगों के हाथ में सुधारकों पर अभियोग चलाने और सभी सुधारों की हत्या करने का एक शक्तिशाली हथियार है.

जाति लोक भावना, लोक विचार और लोक उदारता का विनाश करती है

हिंदुओं की नैतिकता पर जाति का प्रभाव साफ-साफ खेदपूर्ण है. जाति ने सार्वजनिक भावना को नष्ट कर दिया है. जाति ने सार्वजनिक दानशीलता की हत्या कर दी है. जाति ने जनमत को असंभव बना दिया है. एक हिंदू के लिए उसकी जाति ही उसका समाज है. उसकी जिम्मेदारी सिर्फ उसकी जाति के प्रति है. उसकी वफादारी उसकी जाति तक सीमित है. सद्‍गुण जाति से बंधे हुए हैं और नैतिकता जाति से घिरी हुई है. सुपात्रों के लिए कोई सहानुभूति नहीं है. योग्य व्यक्तियों के लिए कोई प्रशंसा भाव नहीं है. जरूरतमंद के लिए कोई दानशीलता नहीं है. पीड़ा कोई अनुक्रिया पैदा नहीं करती. दानशीलता है भी, तो जाति से ही उसकी शुरुआत और जाति से ही उसका अंत होता है. सहानुभूति है भी, तो वह अन्य जातियों के व्यक्तियों के लिए नहीं है.

क्या हिंदू किसी महान‍ और अच्छे व्यक्ति के नेतृत्व को स्वीकृति देगा और उसका अनुसरण करेगा? किसी महात्मा को छोड़ दिया जाये, तो उत्तर यह होगा कि वह किसी नेता का अनुसरण तभी करेगा, जब वह उसकी जाति का होगा. ब्राह्मण किसी नेता का अनुसरण तभी करेगा, जब वह ब्राह्मण हो. कायस्थ किसी नेता का अनुसरण तभी करेगा, जब वह कायस्थ हो और दूसरी जातियां भी ऐसा ही करेंगी. जाति को अलग रखकर किसी व्यक्ति के गुणों की सराहना करने की क्षमता हिंदू में नहीं होती है. सद्‍गुण की सराहना है, लेकिन तभी; जब वह व्यक्ति अपनी ही जाति का हो. सारी नैतिकता कबायली मनोवृत्ति जितनी खराब है. मेरी जाति का आदमी– वह चाहे सही हो या गलत; मेरी जाति का आदमी– वह चाहे अच्छा हो या खराब. यह सद्‍गुण का साथ देने अथवा दुर्गुण का साथ न देने का मामला नहीं है. यह जाति के साथ खड़े होने अथवा जाति के साथ नहीं खड़े होने का मामला है. क्या हिंदुओं ने अपनी जाति व्यवस्था का हित साधकर अपने देश के साथ गद्दारी नहीं की है?

मेरा आदर्श: स्वतंत्रता, समानता और बंधुता पर आधारित समाज

मुझे आश्चर्य नहीं होगा, यदि आप में से कुछ लोग जाति द्वारा उत्पन्न विषादपूर्ण स्थितियों की इस थकाऊ कथा को सुनते-सुनते ऊब गये होंगे. इस कथा में नया कुछ भी नहीं है. इसलिए मैं अब समस्या के रचनात्मक पक्ष की ओर मुड़ूंगा. अगर आप जाति को नहीं चाहते, तो आप का आदर्श समाज क्या है– यह प्रश्न आप के द्वारा पूछा जाना अवश्यंभावी है. अगर आप मुझसे पूछते हैं, तो मैं कहूंगा, मेरा आदर्श एक ऐसा समाज होगा, जो स्वतंत्रता, समता और भ्रातृत्व पर आधारित होगा और क्यों न हो?


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