योजना आयोग जरूरी क्यों है?


Why NITI Aayog is not relevent in India

 

राहुल गांधी का यह एलान बेहद अहम है कि अगर कांग्रेस सत्ता में आई तो नीति आयोग को भंग कर फिर से योजना आयोग का गठन किया जाएगा. चुनाव अभियान के सिलसिले में राहुल गांधी ने अब तक न्यूनतम आय योजना, स्वास्थ्य का अधिकार कानून लाने, तीन साल तक बगैर किसी अनुमति के लघु एवं मझौले उद्योग लगाने का प्रावधान करने आदि जैसी कई महत्त्वपूर्ण घोषणाएं की हैं. योजना आयोग को वापस लाने की बात उस सिलसिले में उनका अगला बड़ा एलान है. यह एक दूरगामी प्रभाव वाली घोषणा है, जिसका संदर्भ कहीं बड़ा है.

नरेंद्र मोदी ने 2014 में योजना आयोग को खत्म करने का एलान किया, तो कई हलकों में यह समझा गया कि यह जवाहर लाल नेहरू की विरासत को मिटाने के उनके उत्साह का परिणाम है. मगर बात इतनी ही नहीं थी. इसके पीछे अर्थव्यवस्था एवं विकास संबंधी वह दृष्टि भी थी, जिसके प्रतीक के रूप तब मोदी उभरे थे. 2014 के आम चुनाव में मोदी ने ‘न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन’ का नारा दिया था. इस नारे की जड़ें उसी नजरिए में है. इसका सबसे पहले बखान 1980 के दशक में अमेरिका में राष्ट्रपति रोनाल्ड रेगन ने किया था. उसके तहत प्रचलित हुई रेगन-(मार्गरेट) थैचर अर्थव्यवस्था इसी सिद्धांत पर टिकी थी. 1990 के दशक में यह दुनिया भर ‘वॉशिंगटन कॉनसेन्स’ के नाम चर्चित हुई. यह धुर नव-उदारवादी सोच है, जिसमें जोर राज्य की आर्थिक भूमिका को अधिकतम सीमित करने पर रहता है. 2014 में भारत में यह सोच अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच गई. इसी का शिकार योजना आयोग बना.
आजादी के बाद विकास के लक्ष्य तय करने, विकास की योजना बनाने, और योजनाओं के परिणामों का मूल्यांकन करने में योजना आयोग की निर्णायक भूमिका रही. चूंकि यह काम जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व में और उनकी सोच के तहत हुआ, इसलिए स्वाभाविक है कि योजना आयोग के नाम के साथ नेहरू की पहचान जुड़ी रही है. इसलिए यह यूं ही नहीं है कि नेहरू नव-उदारवादी और दक्षिणपंथी समूहों का निशाना बने रहते हैं.

बहरहाल, अब साफ है कि योजना आयोग को बिना किसी वैकल्पिक तैयारी के खत्म किया गया. उसकी जगह जिस नीति आयोग (National Institution for Transforming India) ने ली, वह आज तक अपनी भूमिका तय नहीं कर पाया है. अपने गठन के बाद से अब तक उसने क्या किया है, यह बताना आयोग के सदस्यों के लिए भी कठिन हो सकता है. योजना आयोग के ना रहने और नीति आयोग की भूमिका स्पष्ट ना होने का परिणाम यह हुआ कि देश में विकास का सारा विमर्श भटक गया है. इसके हानिकारक परिणाम आने वाले वर्षों में और ज़ाहिर होंगे.

इस पृष्ठभूमि में राहुल गांधी की घोषणा आस जगाने वाली मालूम पड़ती है. अगले 23 मई के बाद देश में गैर-बीजेपी सरकार बनेगी या नहीं, फिलहाल कहना मुश्किल है. इसके बावजूद ताजा एलान से राहुल गांधी ने यह मजबूत संदेश जरूर दिया है कि देश की मुख्यधारा राजनीति में एक वैकल्पिक आर्थिक नज़रिया भी मौजूद है, जिसको लेकर कांग्रेस पार्टी मतदाताओं का समर्थन मांगने जा रही है. यह दृष्टिकोण योजनाबद्ध विकास का है. ऐसी योजना जिसके लक्ष्य और कार्यक्रम सारे देश के लिए हों और जो संविधान के मूलभूत मूल्यों से प्रेरित हों.

कुछ समय पहले एक संवाद में राहुल गांधी ने कहा था कि वे “लेफ्ट, राइट, सेंटर” में यकीन नहीं करते. इसके बदले वे ऐसे चलन में विश्वास करते हैं, जिसमें सबकी बात सुनी जाए. यह बात थोड़ी अजीब-सी लगी थी, क्योंकि आम तौर पर राजनीतिक शक्तियों, नेताओं और सोच की पहचान इन्हें “ब्रांडों” से होती है. इसीलिए इस बयान को राहुल गांधी की राजनीति में किसी खास ब्रांड से चिन्हित होने से बचने की कोशिश के रूप में देखा गया. मगर हाल में जो चुनावी वादे कांग्रेस अध्यक्ष ने किए हैं, उनसे सोशल डेमोक्रेटिक पॉलिटिक्स में उनके बढ़ते भरोसे का साफ संकेत मिलता है.

नव-उदारवादी सोच अब अमेरिका और यूरोप में भी बंद गली में पहुंच चुकी है. अब वहां दौर इस सोच के खिलाफ उग्र प्रतिक्रिया का है. अलग-अलग देशों में ऐसी ताकतों और नेताओं का उभार हुआ है, जो जन-कल्याण के क्षेत्र में राज्य की भूमिका बढ़ाने का अभियान चला रहे हैं. ऐसे में ये परिघटना भारत में ना हो, यह मुमकिन नहीं है. अगर राहुल गांधी को ताजा घोषणाओं को आने वाले दिनों में पर्याप्त जन-समर्थन मिला, तो माना जाएगा आखिरकार भारत ने भी दक्षिणपंथी-कंजरवेटिव-सांप्रदायिक झटकों से चोट खाने के बाद उनसे लगे जख्मों से उबरने की यात्रा शुरू कर दी है.


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