बूंदें ओस की: मासूम…मजबूर और मजदूरी


 

11 साल की एक मासूम लड़की जो पढ़-लिखकर कुछ बनना चाहती थी लेकिन आज घर-घर जा कर बर्तन मांजने और झाड़ू पोछा का काम कर रही है. 11 साल की यह मासूम ओड़िशा की रहने वाली है. माता-पिता का साया बचपन में उठ गया. बुजुर्ग दादी इसका पालन-पोषण कर रही है. इस मासूम के जीवन में एक एनजीओ अस्पायर उम्मीद की किरण बन कर आया. अस्पायर ने इस बच्ची को पढ़ाने का बीड़ा उठाया और अपने साथ लेकर गया लेकिन अचानक कोरोना की वजह से इस मासूम को वापस अपने दादी के पास आना पड़ा. घर की माली हालत इतनी खराब है कि अब वो लोगों के घरों में जाकर उनके बर्तन साफ करती है, झाड़ू पोछा लगाती है. सवाल ये उठता है कि ऐसे मासूम बच्चों के लिए सरकार क्यों नहीं आगे आती है? क्यों एनजीओ के जरिए ऐसे मासूमों को सहारा मिलता है?


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