इस अंक में खास – मंचीय कवियों का बाजार और कविता की तमाम धाराओं के अंतर्विरोध, अब किसी राजनीतिक पार्टी पर भरोसा न रहा – डॉ कुंअर बेचैन और साहित्यिक सांस्कृतिक गतिविधियों की ‘परिक्रमा’.