चुनाव 2019 अखिलेश, राहुल के नाम!


Akhilesh and Rahul Gandhi were hero of Lok Sabha election 2019

 

चुनाव नतीजे कुछ भी आएं लेकिन आजाद भारत के चुनाव इतिहास में 2019 का चुनाव अखिलेश, राहुल गांधी के नाम दर्ज रहेगा. क्यों? क्योंकि अखिलेश यादव की समझ, सूझ-बूझ से उत्तर प्रदेश मोदी-शाह को हराने का वाटरलू मैदान बना है. उधर राहुल गांधी को श्रेय इसलिए क्योंकि चौकीदार चोर के उनके हल्ले से नरेंद्र मोदी के खिलाफ अखिल भारतीय लड़ाई का माहौल बना रहा. राहुल गांधी का लगातार हिम्मत के साथ नरेंद्र मोदी-शाह से लड़ना अकल्पनीय बात है. नेहरू-गांधी वंश में ऐसी लड़ाई पहले किसी ने नहीं लड़ी. सोचें, नरेंद्र मोदी, अमित शाह की धूर्तताओं, प्रोपेगेंडा, झूठ, संस्थाओं के दुरूपयोग, सीबीआई-ईडी-मीडिया सबसे से तो राहुल गांधी को परेशान किया गया. पूरे पांच साल एक ही प्रोपेगेंडा कि राहुल गांधी पप्पू हैं. नासमझ हैं, लीडर लायक नहीं हैं. मैंने नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के लक्षणों को देख चार साल पहले लिखा था कि राहुल गांधी घर बैठे रहें तब भी जंगल में खोए राजकुमार के मिलने का बाद में शोर बनेगा और राहुल गांधी की मजे से राजनीतिक कमान बनेगी.

और आज देखिए कि राहुल गांधी का चेहरा मुस्कराता हुआ है तो मोदी-शाह का हैरान-परेशान. कांग्रेस को जितनी भी सीटें मिलें, राहुल गांधी का नेतृत्व अब उनके खुद के द्वारा अर्जित, कमाया हुआ है. राहुल गांधी ने प्रमाणित किया है कि वे निडर हैं, छप्पन इंची छाती लिए हुए हैं. उन्हें मोदी-शाह-अंबानी-अदानी किसी की परवाह नहीं है. वे दो टूक स्टैंड लेने में समर्थ हैं. चुनाव प्रचार में भी राहुल गांधी की यह साफगोई गजब थी कि कांग्रेस तो है ही असंगठित पार्टी. लेकिन जनता पर भरोसा है.

राहुल गांधी का हल्ला बोल, मीडिया की एकतरफा कवेरज के बावजूद मीडियाकर्मियों से बोलना-मिलना और मजे से मुस्कराते हुए चौकीदार चोर का मैसेज पूरे देश में बनवा देना इस चुनाव की वह दास्तां है, जिसे इमरजेंसी के बाद के चुनाव के साथ इसलिए याद किया जाएगा क्योंकि नरेंद्र मोदी की अहंकारी सत्ता के आगे बिखरे विपक्ष के बावजूद विपक्ष का अखिल भारतीय नैरेटिव एक अकेले राहुल गांधी की बदौलत हुआ.

मगर राहुल गांधी से ज्यादा बड़ा और निर्णायक रोल अखिलेश यादव का है. इसलिए कि अखिलेश यादव की समझदारी से ही चुनाव 2019 का निर्णायक फैसला उत्तर प्रदेश में है. मायावती को हैंडल करना, उनके साथ एलायंस बना कर साझा चुनाव लड़ना असंभव काम था. मगर अखिलेश यादव ने असंभव को संभव बनाया. बहनजी को धीरे-धीरे एलायंस के लिए तैयार किया. उपचुनावों में मौन सहमति से साझा चुनाव लड़ उसके फायदे समझाए. मायावती से संवाद बनाया. अपना मानना है कि मायावती ने उसी अंदाज में अखिलेश यादव पर शर्तें थोपी, जैसे उनका स्वभाव है. कांग्रेस से समझौता नहीं होने दिया. अजित सिंह की रालोद पार्टी के लिए सीटे अखिलेश याकि सपा के कोटे से छुड़वाई. बसपा ने शहरी सीटें अखिलेश को लड़ने के लिए ज्यादा दीं. और अखिलेश ने महानगरों में भाजपा की मजबूत स्थिति के बावजूद मायावती की बात मानी. बसपा को उसकी पसंद की सीटें लेने दीं. अखिलेश की सूझबूझ और होशियारी का पीक था जब मैनपुरी में एक मंच पर मायावती और मुलायम सिंह यादव ने परस्पर सद्भाव दिखाया.

मैं मान रहा हूं कि यदि यूपी में सपा-बसपा-रालोद एलायंस नहीं बना होता तो न केवल मोदी-शाह की उत्तर प्रदेश में आंधी बनती, बल्कि यूपी की एकतरफा लड़ाई से पूरे उत्तर भारत में विपक्ष अधमरा हो कर चुनाव लड़ रहा होता. सो, राहुल गांधी ने लड़ाई का अखिल भारतीय माहौल बनाया तो अखिलेश यादव को मोदी-शाह की देश के सबसे बड़े प्रांत में कमर तोड़ने के निर्णायक काम का श्रेय.

आप कह सकते हैं कि नतीजे आए नहीं और मैं फतवा मार रहा हूं! यदि मोदी की आंधी आई और भाजपा को 300 पार सीट मिली तब? अपने को परवाह नहीं. तब भी रिकार्ड रहेगा कि राहुल गांधी और अखिलेश ने क्या खूब लड़ी लड़ाई. धर्म और कर्म का निर्वहन किया. और मैं इनकी लड़ाई, इनके कर्म का फल बनता देख रहा हूं.

एग्जिट पोलः भाजपा को रखेंगे 200 से ऊपर

सोशल मीडिया पर इंडिया टुडे के कथित एक्जिट पोल की एक टीवी क्लिप चली. उसमें भाजपा की सीटों का अनुमान 177 था. अपने को आश्चर्य हुआ. भला किसी सर्वे संस्था- मीडिया हाउस की हिम्मत जो भाजपा को 200 से कम सीट पर दिखला दे? अमित शाह ने जनवरी 2019 से आंकड़ा तय किया हुआ है 300 सीट! इसमें उत्तर प्रदेश म ें74 सीट, पश्चिम बंगाल में 23 सीट की दिशा तय  है तो मुकेश अंबानी की टीवी-18 की चैनलों या अरूण पुरी के इंडिया टुडे ग्रुप के बस में भला 200 से कम सीट की खतरे की घंटी सुनाना क्या संभव? तभी अपने को 177 के वीडिया की क्लिप नहीं जंची.

यह भी जान लें कि शुक्रवार को ही शाह-मोदी ने दिशा तय करा दी है. प्रेस कांफ्रेंस करके कह दिया कि भाजपा को तीन सौ सीटें आ रही हैं. शाह ने इससे पहले भी दावा कर दिया था कि छठे चरण में ही भाजपा को बहुमत मिल गया है. जब उन्होंने बता दिया है और सीटें कितनी आ रही हैं तो सवाल है कि किस न्यूज चैनल वाले की मजाल होगी जो वह एक्जिट पोल में दिखाए कि भाजपा को अकेले दो सौ सीटें नहीं आ रही हैं? आम धारणा और समझ के हिसाब से भाजपा को कम से कम एक सौ सीट के नुकसान का आकलन है पर क्या किसी चैनल में या सर्वेक्षण करने वाली एजेंसी में इतनी हिम्मत है कि वह रविवार की शाम को बताए कि मोदी और शाह का दो महीने का प्रचार अभियान पंक्चर हो गया है और भाजपा दो सौ सीटें नहीं जीतने जा रही है?

ध्यान रहे पिछले लोकसभा चुनाव में सारे चैनलों ने खम ठोंक कर कहा था कि भाजपा और एनडीए की भारी जीत होने वाली है और कांग्रेस का सूपड़ा साफ है. 2014 में चाणक्य-न्यूज 24 के एक्जिट पोल में एनडीए को 340 सीट मिलने की भविष्यवाणी की गई थी, जो पूरी तरह सही रही. एनडीए को 336 सीटें मिलीं. कांग्रेस चुनाव हार रही है यह उस समय हर चैनल को दिख रहा था.

इसके बाद ट्रेंड सा बना है कि हर चुनाव में ओपीनियन पोल और एक्जिट पोल में भाजपा की बढ़त बतानी है. लोकसभा चुनाव के बाद हुए दिल्ली और बिहार के विधानसभा चुनावों में भी चैनलों ने कांटे की लड़ाई बताई और कुछ चैनलों ने तो भाजपा की बढ़त भी दिखाई. ओपीनियन पोल छोड़ दें तो एक्जिट पोल में भी यहीं ट्रेंड रहा. 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में इंडिया टीवी-सी वोटर ने भाजपा को 25 से 33 और इंडिया टुडे-सिसरे ने 19 से 27, एबीपी ने 26, टुडेज चाणक्य ने 22 और न्यूज नेशन ने 23 से 27 सीटों की भविष्यवाणी की थी. पर भाजपा को सीटें मिलीं सिर्फ तीन. इसी तरह बिहार 2015 के चुनाव में सारे चैनलों ने राजद-जदयू गठबंधन और एनडीए के बीच कांटे की टक्कर बताई थी. एबीपी का एक्जिट पोल भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए को 108, इंडिया टुडे 113-127, एनडीटीवी 125, इंडिया टीवी 101-121 और टुडेज चाणक्य 155 सीटें दे रहा था. पर असल में एनडीए को सिर्फ 59 सीटें मिलीं. हर चुनाव में भाजपा की जीत दिखाने का ट्रेंड उसके बाद हर राज्य के चुनाव में दिखा.

यह ट्रेंड पिछले साल के अंत में हुए पांच राज्यों के चुनाव तक दिखा है. छत्तीसगढ़ का एक्जिट पोल विफलता का स्मारक है. इस चुनाव के असली नतीजे में भाजपा का सूपड़ा साफ हुआ उसे सिर्फ 15 सीटें मिलीं. लेकिन कई चैनल एक्जिट पोल में भाजपा को जीत दिला रहे थे. एबीपी न्यूज अपने एक्जिट पोल में भाजपा को 52 सीटें दे रहा था और टाइम्स नाऊ 46 सीटें दे रहा था. न्यूज 18 के हिसाब से भाजपा को 46, न्यूज एक्स के मुताबिक 42 और रिपब्लिक टीवी के मुताबिक 41 सीटें मिल रही थीं. पोल ऑफ द पोल्स में भाजपा को 41 सीटें मिल रही थीं. पांच चैनलों ने कांग्रेस के बहुमत की भविष्यवाणी की थी और पांच ने भाजपा की. पर किसी ने भाजपा को 25 से कम सीट नहीं बताई थी.

ऐसे ही मध्य प्रदेश के एक्जिट पोल में टाइम्स नाऊ, न्यूज नेशन, रिपब्लिक टीवी और न्यूज 18 ने भाजपा को बहुमत मिलने का अनुमान लगाया था. राजस्थान में जरूर चैनलों ने सही ट्रेंड पकड़ा और कांग्रेस की सरकार बनने का अनुमान लगाया पर उसमें भी किसी ने नहीं कहा कि कांग्रेस सौ के नीचे रूक रही है. कांग्रेस को सबसे कम 102 सीटें टाइम्स नाऊ ने बताई थीं. बाकी चैनलों का आकलन 145 सीटों तक का था पर कांग्रेस 99 पर रूकी.

अब इस बार के लोकसभा चुनाव का एक्जिट पोल आने वाला है. उससे पहले अगर चैनलों के ओपीनियन पोल पर नजर डालें तो साफ हो जाएगा कि कौन सा चैनल क्या एक्जिट पोल दिखाएगा. इस साल जितने भी ओपीनियन पोल हुए हैं उनमें भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए की बढ़त बताई गई है. आठ अप्रैल को टाइम्स नाऊ ने अपने सर्वे में एनडीए को 279 सीटें दी हैं. छह अप्रैल को इंडिया टीवी ने 275 सीटें दी हैं. अप्रैल में रिपब्लिक टीवी के हिंदी चैनल रिपब्लिक भारत के सर्वेक्षण में भाजपा को अकेले 264 और एनडीए को 310 सीट मिलने की भविष्यवाणी की गई है. इंडिया टीवी ने मार्च में एनडीए को 285 सीटें दी थीं. मार्च में जी न्यूज ने एनडीए को 264 और न्यूज नेशन ने 270 सीटें दी हैं.

जाहिर है जब सारे चैनल अपने ओपीनियन पोल में भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए को बहुमत के आसपास या बहुमत से ज्यादा सीटें दिखा रहे हैं तो उनका एक्जिट पोल इससे अलग नहीं होगा. एक्जिट पोल तक में गलत साबित होने वाले चैनल भी निश्चित रूप से भाजपा की ही बढ़त दिखाएंगे. यह हैरानी की बात होगी अगर कोई चैनल अपने एक्जिट पोल में भाजपा को दो सौ से कम और कांग्रेस को एक सौ से ज्यादा सीट दिखाता है.

ममता का 10-15 सीट हारना अच्छा!

मन ममता बनर्जी की तारीफ में है लेकिन दिमाग कहता है कि ममता बनर्जी को 10-15 सीटों का झटका लगे. सचमुच ममता पर विश्लेषण में मुझे बहुत मुश्किल है. मन मुरीद है यह सोचते हुए कि ममता ने मोदी-शाह को क्या गजब छकाया. जैसे को तैसा, ईंट का जवाब पत्थर से दिया. नोटबंदी की घोषणा से लेकर चुनाव प्रचार के आखिरी दिन तक ममता बनर्जी ने जितनी तरह से, जैसे वाक्यों से नरेंद्र मोदी से लोहा लिया है वह बेमिसाल है. ममता बनर्जी रत्ती भर नहीं घबराईं. सीबीआई, ईडी किसी की परवाह नहीं की. सो, खूब लड़ी मर्दानी के नाते ममता बनर्जी चुनाव 2019 की नंबर एक योद्धा!

मगर ठीक विपरीत दिमाग कहता है कि पश्चिम बंगाल में मोदी-शाह को मौका भी ममता बनर्जी से मिला. यदि वे समझदारी दिखातीं, घर संभाले रहतीं, तृणमूल कांग्रेस में सबको मान-सम्मान देतीं तो मुकुल रॉय जैसे आज नरेंद्र मोदी-अमित शाह के सिपहसालार नहीं होते. सत्ता ने ममता बनर्जी को भी उतना ही अहंकारी बनाया है, जितना नरेंद्र मोदी बने हैं. मोदी-शाह के अहंकार को ममता बनर्जी ने अपने अहंकार से काटने की जो राजनीति की उससे बगांल में खुद उनके खिलाफ माहौल बना. बावजूद इसके यदि वे 42 में से 40सीट जीत गईं तो अहंकार में और चूर होगीं. तब दिल्ली में विपक्ष के एलायंस में मुश्किल होगी. कांग्रेस, मायावती, शरद पवार सभी को ममता बनर्जी नचा देंगी.

तभी अपना दिमाग चाह रहा है किममता बनर्जी 25 सीट पर सिमटें तो विपक्ष का भला होगा. ममता बनर्जी को सबक मिलेगा और पश्चिम बंगाल में भाजपा के मजबूती से खड़े हो जाने के बाद वे पश्चिम बंगाल में अपनी सरकार, अपनी पार्टी को दुरुस्त करने और व्यवहार सुधारने को मजबूर होंगी.

हां, इस बात को जान लिया जाए कि पश्चिम बंगाल में भाजपा का हल्ला हिंदू बनाम मुस्लिम राजनीति से नहीं है न ही वहां कोई मोदी की हवा है. इस बात को समझें कि पश्चिम बंगाल में भाजपा, नरेंद्र मोदी की हवा नहीं है, बल्कि ममता बनर्जी का एक विरोध बना है. गैर-बांग्लाभाषी मतलब हिंदी भाषी लोगों, वाम मोर्चे के लोगों और तृणमूल के विभीषणों से ममता बनर्जी के खिलाफ माहौल है जिस पर कैलाश विजयवर्गीय, अरविंद मेनन, मुकुल रॉय ने यह थीसिस बनाई कि भाजपा 15 से 25 सीट जीत सकती है. अपना मानना है कि भाजपा को अधिकतम छह सीट मिलेगी (टेबल देखें). लेकिन कोलकाता के अपने परिचित और जानकारों की थीसिस है कि भाजपा 0 से 15 के बीच कुछ भी पा सकती है. इस थीसिस में फिर मेरा मानना है कि तब भाजपा को जीरो सीट मिलेगी. क्योंकि ममता बनर्जी की नंबर एक सफलता 80 प्रतिशत से ऊपर रिकार्ड तोड़ मतदान करवाना है. ऐसे में भाजपा के लिए 2014 और 2016 के विधानसभा चुनाव के क्रमशः 17 और 10 प्रतिशत वोट को 35 से 40 प्रतिशत के बीच जंप करा सकना संभव नहीं मानता. ठीक है कि तृणमूल के भेदिये ही ममता से परेशान भितरघात कर रहे होंगे, लेफ्ट फ्रंट के नेता और वोट ममता को हराने के लिए भाजपा को वोट दे रहे होंगे. लेकिन इस सब के बावजूद बांग्ला भद्रजन, बांग्ला अस्मिता में बंधा मध्य वर्ग, देहात-दलित आबादी, और 30 प्रतिशत मुस्लिम आबादी मोदी-शाह की गोदीमें नहीं बैठ सकती. इसलिए बंगाल में भाजपा का हल्ला सीट में कन्वर्ट नहीं मिलेगा. हां, वोट प्रतिशत जरूर 2014 के 17 प्रतिशत के मुकाबले 30 प्रतिशत तक जा सकता है. इसलिए डर है कि यदि ममता बनर्जी 40 सीट जीतीं तो उनका अहंकार दिल्ली में विपक्षी एलायंस में गुलगपाड़ा बनवाएगा!

चुनाव के एक महानायक पवार भी

देश के कई नेताओं ने भाजपा और मोदी-शाह की जोड़ी को रोकने के लिए जमीनी स्तर पर काम किया है. अपना हित छोड़ा और गठबंधन बना कर भाजपा को टक्कर दी. ऐसे नेताओं में एनसीपी के शहर पवार भी हैं. पवार के प्रति नरेंद्र मोदी का पूरा सद्भाव रहा है. मोदी और उनके वित्त मंत्री अरुण जेटली भी पवार के पुराने चुनाव क्षेत्र बरामती जाकर उनकी तारीफ कर चुके हैं. इसके बावजूद पवार ने महाराष्ट्र में मोदी और शाह से आमने सामने का मुकाबला बनाने का जबरदस्त प्रयास किया.

शरद पवार को पता था कि अंत में भाजपा और शिव सेना मिल कर लड़ेंगे. इसलिए वे कभी भी शिव सेना के जाल में नहीं फंसे. शिव सेना के नेता मुंहजबानी भाजपा की आलोचना करते रहे पर पवार ने उनसे दूरी रखी. बहुत कायदे से उन्होंने शिव सेना से अलग हुए उद्धव ठाकरे के भाई राज ठाकरे को अपने साथ मिला. पवार की मेहनत थी, जो राज ठाकरे की पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना चुनाव लड़ने नहीं उतरी. राज ने कांग्रेस और एनसीपी के उम्मीदवारों के लिए परोक्ष और प्रत्यक्ष रूप से काम किया. शरद पवार ने किसानों के मूड को सबसे पहले समझा था तभी उन्होंने किसान आंदोलन का एक तरह से नेतृत्व किया और भाजपा के सहयोगी व किसान नेता राजू शेट्टी को एनडीए से अलग किया. राजू शेट्टी किसान नेता हैं और उनकी पार्टी स्वाभिमानी पक्ष किसानों की राजनीति करती है. वे पिछली बार भाजपा के साथ मिल कर लड़े थे और हटकणंगले सीट से जीते थे. इस बार पवार ने कांग्रेस और एनसीपी गठबंधन में उनको लाकर यह सीट उनके लिए छोड़ी. पवार ने मराठा आरक्षण आंदोलन का भी एक तरह से नेतृत्व किया और परदे के पीछे से इस आंदोलन को हर संभव मदद पहुंचाई.

ध्यान रहे शरद पवार को राहुल गांधी को लेकर कई तरह की आपत्तियां थीं. वे राहुल से बात नहीं करते थे. पर जब राहुल गांधी अध्यक्ष हो गए तो पवार ने सारी आपत्तियों को दरकिनार कर सीधे राहुल गांधी से बात की. कांग्रेस और एनसीपी का तालमेल कराया और दोनों के हितों को समझते हुए सीटों का बंटवारा कराया. पिछले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को दो और पवार की पार्टी को चार सीटें मिलीं. पर पवार ने इस आधार पर अपनी सीटें बढ़ाने की जिद नहीं की. उन्होंने पुराने फार्मूले पर ही 22 सीटें लड़ना कबूल किया. सीटों के बंटवारे से लेकर उम्मीदवार तय कराने तक पवार हर छोटी बड़ी चीज पर नजर रखे रहे. उन्होंने खुद लोकसभा चुनाव लड़ने का फैसला भी कर लिया पर जब अजित पवार ने अपने बेटे को लड़ाने का फैसला किया तो पवार पीछे हट गए, यह कहते हुए परिवार से तीन लोगों को लड़ने की जरूरत नहीं है.

पवार की पार्टी में भी भाजपा ने बड़ी सेंध लगाई. उनके करीबी विजय सिंह मोहिते पाटिल और रंजीत सिंह मोहिते पाटिल को भाजपा ने तोड़ लिया पर पवार पर इसका असर नहीं हुआ. उन्होंने प्रचार में पूरी शालीनता बरती. चाहे ईवीएम का मुद्दा हो या विपक्षी एकजुटता दिखाने का कोई और मौका, पवार हर मौके पर विपक्ष के साथ खड़े रहे. तभी जब इस बात की चर्चा हो रही है कि भाजपा का असली और नंबर एक विरोधी कौन है उस सूची में पवार का नाम भी रखना होगा.

तेजस्वी, हेमंत और मरांडी ने भी की मेहनत

उत्तर प्रदेश में जो काम मायावती, अखिलेश यादव और अजित सिंह ने किया वहीं काम बिहार में तेजस्वी यादव और झारखंड में हेमंत सोरेन व बाबूलाल मरांडी ने किया. उत्तर प्रदेश की तरह बिहार का मामला भी बेहद उलझा हुआ है. चुनाव लड़ने के लिए जातीय समीकरण सबसे अहम है और दक्षिण भारत की तरह हर जाति की पार्टी बन गई है. ऊपर से लालू प्रसाद यादव जेल में बंद हैं. झारखंड की भाजपा सरकार ने लालू प्रसाद से लोगों के मिलने पर भी जबरदस्त पाबंदी लगा रखी है. तभी बिहार में विपक्षी गठबंधन ज्यादा मुश्किल था. फिर भी तेजस्वी यादव ने कमाल की परिपक्वता दिखाई और आखिरकार कांग्रेस व दूसरी कई पार्टियों के साथ महागठबंधन बन गया.

ध्यान रहे बिहार पर नरेंद्र मोदी और अमित शाह का पूरा फोकस रहा है. तभी दोनों ने सारे पुराने विवाद भूला कर नीतीश कुमार की एनडीए में वापसी कराई. नीतीश के आते ही बिहार में भाजपा का गठबंधन अपने आप जीतने लायक बन जाता है. इसके बावजूद राजद और कांग्रेस के महागठबंधन ने एनडीए को बड़ी चुनौती दी है. बिहार में एनडीए ने पिछली बार 31 सीटें जीती थीं. पिछली बार के गठबंधन में से तीन सांसदों वाली उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी बाहर हो गई है और दो सांसदों वाला जदयू वापस आ गया है. सो, एनडीए का गठबंधन 30 सांसदों वाला है. यानी 40 में से 30 सांसद एनडीए के हैं. तभी भाजपा और जदयू के नेता इस बार भी 33 से कम सीट की उम्मीद नहीं कर रहे थे. पर अब इस आंकड़े तक पहुंचना मुश्किल हो गया है. राजद, कांग्रेस, रालोसपा, हम और वीआईपी के गठबंधन अच्छी टक्कर दे रहा है.

पांच पार्टियों का यह गठबंधन बनाना पहली चुनौती थी. पिछले चुनाव में राजद 27 और कांग्रेस 12 सीटों पर लड़ी थी. इस बार गठबंधन बनाते समय कांग्रेस अड़ी थी वह 12 से कम सीटों पर नहीं लड़ेगी. कांग्रेस की ओर से यह भी कहा जा रहा था कि भाजपा के दो सांसद शत्रुघ्न सिन्हा और कीर्ति आजाद और एनसीपी के एक सांसद तारिक अनवर कांग्रेस में आ गए हैं इसलिए उसे ज्यादा सीटें चाहिए. कांग्रेस की जिद से ऐसा लग रहा था कि गठबंधन नहीं हो पाएगा. पर लालू प्रसाद के दिशानिर्देश और तेजस्वी की व्यावहारिक समझ से गठबंधन हुआ. राजद ने अपनी सात और कांग्रेस ने तीन सीटें छोड़ीं. इन दस सीटों का बंटवारा तीन पार्टियों में हुआ. उपेंद्र कुशवाहा की रालोसपा को पांच, मुकेश साहनी की वीआईपी को तीन और जीतन राम मांझी की हम को दो सीटें मिलीं.

तेजस्वी ने अपने कोटे की 20 सीटों में से भी एक सीट सीपीआई माले के लिए छोड़ी. माले के नेता राजू यादव को राजद ने अपनी टिकट से आरा से चुनाव लड़ाया. फिर दो सीटें राजद ने शरद यादव के लिए छोड़ी है. राजद की टिकट पर शरद यादव मधेपुरा और उनके करीबी अर्जुन राय सीतामढ़ी सीट से चुनाव लड़ रहे हैं. इस तरह प्रभावी तरीके से देखें तो राजद सिर्फ 17 सीटों पर लड़ रही है. ध्यान रहे राजद इकलौती पार्टी है, जिसका आधार राज्य की सभी 40 लोकसभा सीटों पर है. फिर भी वह सिर्फ 17 सीटों पर लड़ रही है तो उसका एकमात्र मकसद भाजपा और जदयू गठबंधन को रोकना है.

बिहार की तरह ही झारखंड में भी चार पार्टियों का गठबंधन बनाना आसान नहीं था. कांग्रेस, जेएमएम, जेवीएम और राजद के बीच टकराव के कई कारण थे. इसके बावजूद भाजपा को रोकने के लिए चारों पार्टियां एक साथ आईं. राजद ने एक की बजाय दो सीट पर अपना उम्मीदवार उतार दिया है इसके बावजूद बाकी पार्टियों ने और खास कर कांग्रेस ने गठबंधन तोड़ने की बजाय उस एक सीट की अनदेखी करके बाकी 13 सीटों पर गंभीरता से चुनाव लड़ा.
झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता हेमंत सोरेन ने परिपक्वता दिखाई और किसी सीट पर अड़े नहीं. उनकी पार्टी जमशेदपुर सीट नहीं चाहती थी लेकिन जब उन्होंने देखा कि कांग्रेस चाईबासा सीट के लिए अड़ रही है तो उन्होंने जिद छोड़ी और जमेशदपुर सीट पर समझौता किया. इसी तरह कांग्रेस को मुस्लिम उम्मीदवार के तौर पर फुरकान अंसारी को लड़ाने के लिए गोड्डा सीट चाहिए थी पर जब उसने देखा कि बाबूलाल मरांडी अपने करीबी प्रदीप यादव के लिए इस सीट पर अड़ रहे हैं तो उसने भी समझौता किया. सभी पक्षों ने कुछ कुछ समझौता किया, जिससे अंततः कांग्रेस सात, झारखंड मुक्ति मोर्चा चार, झारखंड विकास मोर्चा दो और राजद एक सीट पर लड़े.

…और केजरीवाल, कन्हैया ने किए धरे पर पानी फेरा

पश्चिम बंगाल जैसे गिने चुने राज्यों को छोड़े तो चुनाव 2019 में मोटे तौर पर भाजपा के खिलाफ विपक्षी एकता बन गई है. जिन राज्यों में विपक्षी एकता नहीं बनी उनमें दिल्ली और हरियाणा का खासतौर से जिक्र किया जा सकता है. दिल्ली में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी दोनों का अलग अलग लड़ना भाजपा के लिए वरदान साबित हुआ. दिल्ली की वजह से ही भाजपा को पूरे देश में प्रचार का मौका मिला है कि विपक्ष बंटा हुआ है. दिल्ली में अगर आप संयोजक और मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल जिद्द नहीं पकड़ते तो समझौता होता और अपने आप पूरे देश में इसका मैसेज होता.

केजरीवाल इस जिद्द पर अड़े रहे कि उनको दिल्ली में चार या पांच सीटें चाहिएं, साथ में हरियाणा में भी सीट चाहिए और चंडीगढ़ की सीट भी छोड़ी जाए. पहले तो वे पंजाब में भी गठबंधन के लिए अड़े थे पर बाद में उन्होंने पैंतरा चला और 18 सीटों पर गठबंधन की बात करने लगे. इन 18 सीटों में सात दिल्ली, दस हरियाणा की और एक चंडीगढ़ सीट है. जब कांग्रेस से बात नहीं बनी तो केजरीवाल ने दिल्ली में प्रचार किया कि कांग्रेस को वोट देने का मतलब है भाजपा को जिताना. उनके प्रचार से और उनके 66 विधायकों की मेहनत से दिल्ली में वोट बुरी तरह से बंटे. दिल्ली में भाजपा जीत रही है तो उसके लिए एकमात्र जिम्मेदार कारण अरविंद केजरीवाल हैं.

यहीं हाल हरियाणा में हो रहा है. वहां भी केजरीवाल ने इनेलो से अलग हुई दुष्यंत चौटाला की जननायक जनता पार्टी से तालमेल कर लिया. नतीजा यह हुआ है कि हरियाणा में मुकाबला बहुकोणीय हो गया है. पिछली बार भी कई पार्टियों के लड़ने से भाजपा को फायदा हुआ था. इस बार भी भाजपा के मुकाबले कांग्रेस, इनेलो, आप व जजपा और बसपा व लोकतंत्र सुरक्षा पार्टी का गठबंधन चुनाव लड़ रहा है. इस तर बहुकोणीय मुकाबले में सबसे बड़ा फायदा भाजपा को मिल रहा है.

केजरीवाल की तरह कन्हैया यानी लेफ्ट ने भी भाजपा की बड़ी मदद की है. लेफ्ट पार्टियां पहले विपक्षी एकता की धुरी होती थीं पऱ इस बार विपक्ष के बिखराव में लेफ्ट का हाथ रहा है और कई जगह उसके लोग सीधे भाजपा की मदद कर रहे हैं. सीपीएम का पूरा काडर पश्चिम बंगाल में भाजपा की मदद कर रहा है.

ममता बनर्जी को हराने के लिए लेफ्ट फिर ऐतिहासिक गलती कर रहा है. बहरहाल, सीपीआई ने बिहार में गठबंधन की अनदेखी करके कन्हैया कुमार को बेगूसराय सीट से चुनाव में उतार दिया. इस सीट पर राजद ने तनवीर हसन को उतारा था. राजद और सीपीआई दोनों ने एक दूसरे के वोट ऐसे काटे हैं कि भाजपा की जीत का रास्ता साफ हुआ है. नतीजों के बाद पता चलेगा कि दोनों के वोट जोड़े जाएं तो भाजपा चुनाव हार जाती. पर सीपीआई ने वैसी स्थिति ही नहीं बनने दी.

साभार: नया इंडिया


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