आदिवासी अधिकारों पर सरकार ने चलाई एक और कैंची


Displaced tribal refugees from Chhattisgarh are living in bad condition in other states

 

सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर रोक लगाने के लिए कोर्ट जाने से पहले सरकार ने आदिवासी दमन के लिए एक और दांव चल दिया है. केंद्र सरकार ने एक सर्कुलर जारी किया है, जिसके मुताबिक अब जंगल की जमीन पर नए प्रोजेक्ट शुरू करने के लिए ग्राम सभा की सहमति की जरूरत नहीं होगी.

इससे पहले वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) के तहत जंगल की जमीन पर कब्जे से पहले जिला कलेक्टर को संबंधित ग्राम सभा से लिखित में सहमति लेनी होती थी. सहमति मिलने के बाद ही इस तरह का कोई प्रस्ताव वन विभाग के पास जाता था. लेकिन नए सर्कुलर के मुताबिक ऐसा करने की कोई जरूरत नहीं होगी.

ये नियम 2009 से चला आ रहा है. इसकी शुरुआत तब हुई जब पर्यावरण मंत्रालय ने किसी प्रोजेक्ट को अनुमति देने से पहले एफआरए अनुमोदन की पूर्व शर्त लगा दी.

पर्यावरण मंत्रालय ने बीती 26 फरवरी को नया सर्कुलर जारी किया है. इसके मुताबिक अब पहले की तरह ग्राम सभा की लिखित अनुमति की जरूरत नहीं होगी. अब एफआरए से संबंधित कार्रवाई जिला जज के आधीन कर दी गई है.

उधर बीते कई सालों से सामाजिक कार्यकर्ता और प्रशासनिक अधिकारी एफआरए के साथ समझौता ना करने के लिए सरकार को आगाह करते रहे हैं. साल 2012 में आदिवासी मामलों के केंद्रीय मंत्री वी किशोर चंद्रा ने तब पर्यावरण मंत्री रहे जयंती नटराजन को एक खत लिखकर किसी प्रोजेक्ट को अनुमति देने में एफआरए के महत्व का जिक्र किया था.

बीती 13 फरवरी को शीर्ष अदालत ने बंगाल, ओडीशा, झारखंड और पूर्वोत्तर सहित 19 राज्यों को निर्देश दिया था कि वे वन भूमि पर रहने वाले आदिवासी और पारंपरिक समुदायों को जंगल से बेदखल करने के लिए कदम उठाएं.


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