औरतों के लिए बढ़ता ही गया कश्मीर के आकाश का सूनापन


Desolation of Kashmir's sky for women

 

उत्तर कश्मीर के संबल गांव की रहने वाली 49 वर्षीय समी आरा इंडिगो एयरलाइंस में पायलट हैं. वो एक महीने में चालीस से ज्यादा उड़ानों में अपने क्रू का नेतृत्व करती हैं. पिछले कुछ दिनों से उनकी ज़िंदगी मानो ठहर सी गई है. कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने की घोषणा के बाद से कश्मीर घाटी में उनके सारे संपर्क टूट गए हैं. वहां उनकी 85 साल की वृद्ध मां और उनकी बहन रहती हैं. करीब दस दिनों से उनसे उनका कोई संपर्क नहीं हो पा रहा है. अपनी सरजमीं से उनका संपर्क सिर्फ या तो इलाके के जिला आयुक्त के माध्यम से हो पा रहा है या फिर वहां के हालात पर नजर रख रहे पत्रकारों के माध्यम से. अपने मां से संपर्क करने की उनकी सारी कोशिशें अब तक नाकाम रही है.

कश्मीर के पूर्ण राज्य का दर्जा खत्म होने से उन्हें बहुत फर्क नहीं पड़ता. उनकी चिंता यह है कि एक केंद्र शासित प्रदेश के तौर पर कश्मीर में औरतों के हालात बेहतर होंगे या फिर खराब. अपने बचपन के दिन को याद करते हुए समी कहती हैं कि अस्सी के दशक के शुरुआती दौर का कश्मीर वाकई में धरती का जन्नत था.

कश्मीर की यह खूबसूरती ना सिर्फ प्राकृतिक थी बल्कि सामाजिक स्तर पर भी यह जन्नत था. कश्मीर में औरतों के हालात बेहतर थे. समी खुद एक पुरातनपंथी परिवार से आती हैं लेकिन वो पुराने दिनों को याद करते हुए कहती हैं कि घाटी में महिलाएं उस दौर में बुर्का नहीं पहनती थीं. लड़कियां आजादी से घूमती-फिरती थीं. लेकिन जब से घाटी में चरमपंथ में इजाफा हुआ है लड़कियों के ऊपर एसिड अटैक जैसी घटनाओं में बेतहाशा इजाफा हुआ है. जींस पहनीं लड़कियों के पैरों में बेरहमी से गोलियां मारी गईं.

समी ने ऐसे दमघोंटू माहौल में दमनकारी ताकतों के खिलाफ विद्रोह किया और वहां से निकलकर अपने पिता की आपत्तियों के बावजूद भारतीय एयरलाइंस में एयर होस्टेस के तौर पर नौकरी की. जबकि उनके पिता उन्हें एक डॉक्टर बनाना चाहते थे. कश्मीरी लड़कियों के लिए लड़ने वाली समी उन्हें अपनी आवाज़ उठाने के लिए प्रेरित करती हैं. उन्हें पर्दे से निकलने और अपनी किस्मत बनाने को प्रेरित करती है. समी का कहना है कि कश्मीरी औरतें मनोवैज्ञानिक और सामाजिक तौर पर देश की बाकी लड़कियों से बहुत अलग होती हैं. यही वो वजह है कि समी एक सामाजिक अभियान चलाती हैं, जिसमें वो स्कूल-कॉलेज जाने वाली लड़कियों से संपर्क बनाने की कोशिश करती हैं और उनकी काउंसिलिंग करती हैं ताकि वो अपनी पढ़ाई और करियर पर ध्यान दे पाए.

पायलट के यूनिफॉर्म में समी लड़कियों को नई ऊर्जा और जोश से लबरेज होने के लिए प्रोस्तसाहित करती हैं और उन्हें यह समझाने की कोशिश करती हैं कि कुछ भी असंभव नहीं है. कश्मीर की घाटी में वो एक लोकप्रिय शख्सियत हैं. कम उम्र की लड़कियों को प्रोत्साहित करने के अलावा समी अपनी तनख्वाह का 20 फीसदी हिस्सा बीमार और जरूरतमंद लोगों के लिए दान में देती है. समी के क्लास में पढ़ने वाले ज्यादातर लड़कों ने घाटी में चरमपंथ का दामन थाम लिया है. समी उस माहौल में पली-बढ़ी हैं जो घाटी में हिंसा और अशांति के लिए रास्ता खोलती है. आज समी खुद दो बच्चों की मां हैं और वो कम उम्र के लड़के-लड़कियों को यह संदेश देती हैं कि चरमपंथ का रास्ता कभी न अख्तियार करें और ना ही कभी राजनीति की तरफ रुख करें. इसकी बजाए वो सलाह देती हैं कि नौजवान अपने आप को किताबों तक महदूद रखें और जीवन के लक्ष्य के प्रति बिल्कुल साफ नजरिया रखें.

समी ने मुंबई में एक गैर-कश्मीरी मर्द से शादी की है. इसकी वजह से वो बांदीपुर में अपनी पैतृक संपत्ति पर दावा खो चुकी हैं क्योंकि कश्मीर में जो अब तक कानून रहा है, उसके हिसाब से वो अपनी पैतृक संपत्ति पर हक खो चुकी हैं. लेकिन अब जब कश्मीर से अनुच्छेद 370 हट चुका है तो अब उनकी संपत्ति में फिर से दावा होने की संभावना बनी है. लेकिन इससे बड़ा सवाल उनके सामने यह है कि क्या वो घाटी में बिना शांति बहाल हुए अपने बच्चों को वहां भेज सकती हैं.

कश्मीर में कर्फ्यू और पाबंदियों का मौजूदा दौर कब तक कायम रहेगा. क्या ये पाबंदियां वाकई में कभी दूर हो पाएंगी या फिर अलगाववाद के एक नए दौर की शुरुआत होगी.

कश्मीर के बाशिंदे के तौर पर समी महसूस करती हैं कि अनुच्छेद 370 को खत्म करने से पहले कश्मीरी पंडितों पुनर्वास होना चाहिए था. सरकार के सामने यह ज्यादा महत्वपूर्ण मसला था. समी का मानना है कि इस वक्त की मांग है कि कश्मीरियों से बात किया जाए और उन्हें इस बात का भरोसा दिया जाए कि वे भारत के हिस्सा हैं. समी किसी सच्ची नागरिक की तरह बात करती हैं लेकिन एक महिलावादी होने के नाते वो कश्मीरी औरतों के सामने आने वाली चुनौतियों को लेकर ज्यादा चिंतित हैं. वो खराब मौसम, बिजली की समस्या, घर में मिलने वाली कम सुविधाएं और इन सबसे बढ़कर घर के पुरुष सदस्यों के घरेलू काम में महिलाओं के साथ असहयोग का रवैया को लेकर चिंता करती है.

इन सब के बीच गोलीबारी, सीमापार से आतंकवाद की घटनाएं और पत्थरबाजी की समस्याएं तो हैं ही. समी बताती हैं कि जब वो नौजवान लड़कों की काउंसिलिंग करती हैं तो उन्हें अपने मां और बहनों की घरेलू कामकाज में मदद करने को कहती है. वो उन्हें एहसास दिलाती हैं कि एक महिला की ज़िंदगी कश्मीर में कितनी मुश्किलों भरी होती है. समी कहती हैं कि वो अकेली नहीं है जो कश्मीरी समाज के लिए कुछ अलग करने की कोशिश कर रही हैं बल्कि और भी कई लोग ऐसे हैं जो कश्मीरी समाज में फर्क पैदा करने की कोशिश में लगे हैं.

आजादी के दिन के मौके पर उत्साह से लबरेज समी का कहना है कि वो कश्मीरी औरतों की असल आजादी तब मानेंगी जब कश्मीर की औरतें वो सब कर पाए जो वो अपनी ज़िंदगी में करना चाहती हैं. जब कश्मीर की औरतें कश्मीर के आबोहवा में अपनी चाहतों की उड़ान बिना किसी डर और भर के भर पाएँगी, तो वो दिन उनकी आजादी का होगा. अभी हो सकता है कि एक नई उम्मीद दिख रही हो लेकिन जिनका दिल कश्मीर में बसता हो उनके लिए बड़े पैमाने पर अनिश्चितता के बादल कश्मीर में मंडरा रहे हैं इसमें कोई शक नहीं.

इसी के साथ समी, रॉबर्ट फ्रॉस्ट की मशहूर कविता गुनगुनाती है कि सोने से पहले अभी मीलों का सफर तय करना है. कश्मीर और कश्मीर की औरतों के लिए यह एक बहुत लंबा सफर है.


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