भीड़ की हिंसा में मारे गए दलित बच्चों के परिवार ने किया गांव छोड़ने का फैसला
ANI
मध्य प्रदेश के शिवपुरी जिले के भावखेड़ी गांव में भीड़ की हिंसा में मारे गए दो दलित बच्चों के परिवार ने गांव छोड़ने का फैसला किया है. घटना के लिए जिम्मेदार गांव के रामेश्वरम यादव और हकीम यादव से पिता ने डर जाहिर करते हुए कहा, “हमें डर है कि अब वो हमें मारने के लिए आएंगे.”
परिवार के लोगों में जहां एक ओर गुस्सा है वहीं उनमें एक तरह का डर घर कर गया है.
बुधवार सुबह पंचायत भवन के सामने शौच करने के आरोप में दो बच्चों (खुशी और अरुण) को रामेश्वरम यादव और हकीम यादव ने कथित तौर पर पीट-पीटकर बुरी तरह जख्मी कर दिया. जिसके बाद मौके पर पहुंची पुलिस उन्हें फौरन जिला अस्पताल लेकर गई जहां डॉक्टरों ने दोनों को मृत घोषित कर दिया.
द हिंदू लिखता है कि बच्चों के पिता ब्बलू वाल्मीकि शोकाकुल हैं. पिता ने अखबार से कहा, “उनकी क्या गलती थी? वो बस वहां शौच करने गए थे. अगर मारने वाले इतने ही बाहुबली हैं तो उन्हें मुझे मारना चाहिए था.”
उन्होंने विस्तार से बताया कि किस तरह उन्हें और उनके बच्चों को गांव में अलग-अलग मौकों पर जातीय भेदभाव का सामना करना पड़ा. वाल्मीकि ने बताया, “पंचायत ने हमारे लिए शौचालय नहीं बनाया. मैंने उन्हें कहा कि मैं एक घर और एक शौचालय के लिए योग्य हूं और एक सचिव के जरिए इनके लिए आवेदन किया. पर मेरी अर्जी को रद्द कर दिया गया.”
दलितों के मेहतर समुदाय से आने वाले वाल्मीकि करीबन 20 साल पहले इस गांव में आए थे. वो गांव में समारोह के दौरान डफली बजाकर कमाई करते हैं. साल की शुरुआत में उन्होंने घटना के आरोपी रामेश्वरम यादव के भाई की शादी में भी डफली बजाई थी.
पुलिस ने इन दोनों आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया है. साथ ही पिता की शिकायत पर हत्या और एससी/एसटी एक्ट के तहत मामला दर्ज किया है.
शिवपुरी की डिप्टी कलेक्टर पल्लवी वैद्य ने कहा, “अधिकारी मामले में जातीय पक्ष पर जांच कर रहे हैं.” उन्होंने कहा, “मृत बच्चों के घरवालों को 8,25,000 रुपये का मुआवजा दिया जाएगा.” इससे पहले पंचायत की ओर से उन्हें 25 हजार रुपये का मुआवजा दिया गया.
हालांकि अब घटना के बाद गांव का “अधिपति” होने के बावजूद वाल्मीकि गांव छोड़ना चाहते हैं. उन्होंने कहा, “भले ही यादव अभी चुप हैं लेकिन हमें डर है कि इसके बाद वो हमें भी मारने की कोशिश करेंगे.”
उन्होंने एक घटना को याद करते हुए कहा, “दो साल पहले मैंने यादव भाइयों की खेत से लगती सड़क के किनारे लगे एक पेड़ से अपनी झोपड़ी के लिए डाली तोड़ी थी. तब उन्होंने मुझे जाति सूचक गालियां दी थी और मुझे मारने की भी धमकी दी थी.” वो कहते हैं कि “हम मुआवजे के पैसे से एक घर खरीद लेंगे.”
वाल्मीकि एक किसान मजदूर हैं. उन्होंने कहा कि यादवों ने उनकी ढाई बीघा जमीन अवैध रूप से हड़प ली है. वो कहते हैं कि एक बार यादवों ने उनसे कहा था कि “आखिरकार तुम हमारे मजदूर हो. 100 रुपये की जगह हम तुम्हें 50 रुपये देंगे.. या तुम्हें काम ही नहीं देंगे.”
वो कहते हैं कि गांव में जातिगत भेदभाव बहुत ज्यादा होता है. “हमें गांव के हैंडपंप से पानी भरने के लिए ढाई-ढाई घंटे इंतजार करना पड़ता है. जब सब भर लेते हैं उसके बाद ही हमें पानी मिलता है.” इसी वजह से उन्होंने खुशी और अरुण का स्थानीय प्राथमिक विद्यालय जाना बंद करवा दिया था क्योंकि हर बार वो प्यास से बेहाल घर लौटते थे.”
वो कहते हैं कि यादवों ने कहा है कि “उनके मोड़ा-मोड़ी हमारे बच्चों के साथ स्कूल के बेंच पर नहीं बैठेंगे. तो अध्यापकों ने उनके बच्चों को घर से जमीन पर बैठने के लिए सामान लाने के लिए कह दिया.
मिड डे मील के लिए हमारे बच्चों को घर से बर्तन लाने के लिए कह दिया गया था. वो करीब दो-तीन साल तक स्कूल गए. जिसके बाद ये उनके लिए बहुत ज्यादा हो गया. अगर वो गांव के स्कूल में नहीं पढ़ पाएंगे तो उन्हें हम और कहां भेजेंगे.”
उनकी सबसे बड़ी बेटी (12 साल) ने स्कूल छोड़ दिया है. स्कूल के अध्यापक उसे शौचालय और क्लास साफ करने के लिए हर हफ्ते 10-20 रुपये देते हैं.
वाल्मीकि ने बताया कि खुशी अरुण की बुआ थी लेकिन दोनों की उम्र में केवल कुछ साल का अंतर था इसलिए अरुण खुशी को दीदी कहता था.
(सभी नाम बदल दिए गए हैं.)