आधे से ज्यादा अमेरिकी ‘फेक न्यूज’ को आतंकवाद से भी बड़ा खतरा मानते हैं


half of americans are agree that fake news is bigger threat than terrorism

  फेसबुक

‘फेक न्यूज’ को लेकर पूरी दुनिया में बहस जारी है. समय के साथ सोशल मीडिया यहां तक की मुख्य धारा की मीडिया में ऐसी खबरों की बाढ़ सी आ गई है. दुनिया के तमाम बड़े लोकतंत्र इससे प्रभावित हो रहे हैं. लोग ना चाहते हुए भी इनका शिकार हो रहे हैं.

अमेरिका के प्यू रिसर्च सेंटर ने इसको लेकर एक अध्ययन किया है. हालांकि ये सिर्फ अमेरिकन लोगों पर किया गया है, लेकिन हर लोकतंत्र के लिए ये समान महत्व का है.

इस अध्ययन में 50 फीसदी से ज्यादा अमेरिकन लोगों ने फेक न्यूज को देश के लिए आतंकवाद से भी बड़ा खतरा बताया है. इस दौरान लोगों ने फेक न्यूज को अवैध आव्रजन, हिंसक अपराध और नस्लवाद से ज्यादा गंभीर समस्या बताया है.

अमेरिकी राष्ट्रपति के लिए 2016 में हुए चुनाव इसका बड़ा उदाहरण हैं. इस दौरान ये भी साफ हुआ कि चुनाव को सुनियोजित रूप से विदेशी शासन भी प्रभावित कर सकते हैं.

ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद से फेक न्यूज गलत सूचना ने राजनीतिक लड़ाई में अहम भूमिका अदा करना शुरू कर दिया है.

इस अध्ययन में पाया गया है कि 70 फीसदी अमेरिकी लोग ये बात मानते हैं कि फेक न्यूज के चलते सरकारी संस्थानों पर उनका भरोसा कम हुआ है. ज्यादातर विशेषज्ञों का कहना है कि इस समस्या पर अगर यथास्थिति बनी रहने दी गई तो ये और गंभीर हो जाएगी.

डेमोक्रेट नेता मार्क वार्नर मानते हैं कि हमने अगर इसको लेकर महत्वपूर्ण कदम नहीं उठाए तो पछताना पड़ेगा.

वार्नर ने समाचार पत्र गार्डियन से बात करते हुए कहा, “फेसबुक, ट्विटर और गूगल जैसी कंपनियों ने इस समस्या की बात मान ली है और इससे निबटने के प्रयास शुरू कर दिए हैं. लेकिन अफसोस ये है कि हमने इसको लेकर अभी तक कुछ नहीं किया है.”

यूएस सीनेट की स्पीकर नैंसी पेलोसी की हाल में एक वीडियो फेसबुक पर वायरल हुई थी. इसे छेड़छाड़ करने के बाद गलत इरादे से डाला गया था. इसमें उनके भाषण को इस तरह से दिखाया गया जैसे वो नशे में बोल रही हों. जब तक फेसबुक ने इसके खिलाफ एक्शन लिया, लाखों लोग इसे देख चुके थे.

पत्रकारिता शोध समूह की निर्देशक एमी मिशेल कहती हैं, “बनाई गई खबर का असर इसकी पहुंच से भी कहीं ज्यादा होता है और ये सही गलत के बीच संदेह पैदा करती है.”

इन सबके बीच अकसर सोशल मीडिया समूह जैसे फेसबुक की देर से कार्रवाई करने को लेकर आलोचना होती रही है. पेलोसी वाले वीडियो के बारे में भी फेसबुक पर ऐसे ही आरोप लगाए गए. इस दौरान सवाल उठाए गए कि अगर फेसबुक समय रहते एक्शन लेता तो इसका असर कम रहता.

दूसरी ओर कुछ लोगों का मानना है कि सोशल मीडिया कंपनियों का सेल्फ रेगुलेट होना संभव नहीं है, क्योंकि इनका बिजनेस ही निगरानी और डाटा माइनिंग पर आधारित है.

ओपन मार्केट्स की निदेशक सराह मिलर कहती हैं, “फेसबुक और गूगल का बिजनेस मॉडल ही सनसनी पूर्ण और बांधने वाली सामग्री के प्रवाह पर आधारित है, जहां ये इसके प्रति जिम्मेदार नहीं होते हैं.”

ऐसी बात भी नहीं है कि ये सोशल मीडिया कंपनियां इसके लिए कुछ नहीं कर रही हैं. अभी हाल में ही फेसबुक ने करोड़ों फेक अकाउंट को अपने डेटा बेस से हटाया था.


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