नोटबंदी के बाद आई खर्च में कमी, प्रति व्यक्ति आय पांच साल के न्यूनतम स्तर पर


retail inflation rate increased to 3.99 percent

 

पिछले वित्त वर्ष में प्रति व्यक्ति शुद्ध राष्ट्रीय आय 5.6 फीसदी बढ़ी थी. भारतीय रिजर्व बैंक के मुताबिक यह बीते पांच सालों में सबसे कम थी.

देश के आर्थिक वृद्धि दर में गिरावट का असर प्रति व्यक्ति आय पर भी पड़ा है. इसके कारण लोगों को अपना बजट संकुचित करना पड़ रहा है.

नोटबंदी के बाद के सालों में प्रति व्यक्ति जीडीपी और अतिरिक्त खर्च योग्य आय (डिसपोजेबल इनकम) की वृद्धि दर में तेजी से गिरावट हुई है.

डिसपोजेबल आय में कमी होने से उपभोक्ता गैर-जरूरी चीजों पर खर्च कम करते हैं जिससे गैर-जरूरी सामानों की बिक्री में गिरावट आ जाती है.

सामान ना खरीदने के पीछे की बड़ी वजह अर्थव्यवस्था में मांग की कमी का होना है. वर्तमान में अर्थव्यवस्था में सुस्ती होने की अहम वजह यही है.

आरबीआई ने कहा है, “भारत में कुल मांग का मुख्य आधार प्रत्याशित रूप से कमजोर हुआ है. तीसरी तिमाही से कृषि क्षेत्र में मूल्य वर्धित (वैल्यू एडेड) विकास और इससे संबंधित गतिविधियां धीमी हुई हैं. इसके कारण ग्रामीण क्षेत्रों में मांग में कमी आई है.” आरबीआई ने यह भी कहा है कि 2019-20 में उपभोक्ता मांग और निजी निवेश में तेजी लाना सर्वोच्च प्राथमिकता है.

भारत में प्रति व्यक्ति औसत आय पड़ोसी देश चीन और बाकी देशों से भी काफी नीचे है. आरबीआई के उपलब्ध डेटा के मुताबिक भारत में 2018-19 में औसत प्रति व्यक्ति सालाना सकल राष्ट्रीय आय 92,565 रुपये थी.

विश्व बैंक का डेटा बताता है कि 2018 में डॉलर के संदर्भ में भारत में औसत प्रति व्यक्ति सालाना आय 7,680 डॉलर थी. चीन में यह 18,140 डॉलर थी और बाकी विश्व में 17,903 डॉलर थी.

वित्त वर्ष 2017 में थोड़ा सुधार होने के बाद आय वृद्धि दर में लगातार गिरावट हुई है. इसी दौरान नोटबंदी और जीएसटी लागू करने के बाद व्यवसायों में मंदी आनी शुरू हो गई थी. नतीजतन लोगों की आय पर इसका प्रभाव पड़ा और लोगों की खर्च करने की क्षमता घट गई, जिससे उपभोक्ताओं के खर्च पर रोक लग गई.

वित्त वर्ष 2017 में व्यक्तिगत निजी उपभोग व्यय में 6.86 फीसदी की वृद्धि हुई थी. लेकिन इसके बाद के दो सालों में इसमें कोई वृद्धि नहीं हो पाई.

कम खर्च का असर मांग में कमी के रूप में साफ जाहिर होता है. इसकी वजह से ही भारतीय अर्थव्यवस्था की रफ्तार थमी हुई है. ग्रामीण अर्थव्यवस्था को आय में भिन्नता के लिए अधिक संवेदनशील माना जाता है और इस तरह मंदी का प्रभाव ग्रामीण क्षेत्रों में भी अधिक प्रमुख है.


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