प्रोफेसर आनंद तेलतुम्बड़े के पक्ष में जनसंगठनों की लामबंदी


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जन संस्कृति मंच, दलित लेखक संघ, न्यू सोशलिस्ट इनीशिएटिव, रमणिका फाउंडेशन, साहित्य वार्ता, प्रगतिशील लेखक संघ और जनवादी लेखक संघ ने प्रोफेसर आनन्द तेलतुम्बड़े के ख़िलाफ़ दायर एफआईआर के खिलाफ संयुक्त बयान जारी करते हुए कहा है कि उनकी होने वाली गिरफ़्तारी देश के ज़मीर पर शूल की तरह चुभती दिख रही है.

बयान में संगठनों ने कहा है कि दलित मानव अधिकार कार्यकर्ता प्रोफेसर आनन्द तेलतुम्बड़े के खिलाफ दायर एफआईआर देश-दुनिया के प्रबुद्ध जनों में चिन्ता एवं क्षोभ का विषय बनी हुई है.

विश्वविख्यात विद्वानों नोम चोमस्की, प्रोफेसर कार्नेल वेस्ट, जां द्रेज से लेकर देश दुनिया के अग्रणी विश्वविद्यालयों, संस्थानों से छात्र, कर्मचारियों, अध्यापकों और दुनिया भर में फैले अम्बेडकरी संगठनों ने एक सुर में यह मांग की है कि आनन्द तेलतुम्बड़े के ख़िलाफ़ जो मनगढंत आरोप लगाए गए हैं, उन्हें तत्काल वापस लिया जाए.

जानीमानी लेखिका अरूंधती रॉय ने कहा है कि ‘उनकी गिरफ़्तारी एक राजनीतिक कार्रवाई होगी. यह हमारे इतिहास का एक बेहद शर्मनाक और खौफ़नाक मौका होगा.

प्रोफेसर आनन्द तेलतुम्बड़े के ख़िलाफ़ एफआईआर पुणे पुलिस ने पिछले साल दायर की थी. और उन पर आरोप लगाए गए थे कि वह भीमा कोरेगांव संघर्ष के दो सौ साल पूरे होने पर आयोजित जनसभा के बाद हुई हिंसा के लिए जिम्मेदार हैं. यह वही मामला है जिसमें सरकार ने देश के चन्द अग्रणी बुद्धिजीवियों को ही निशाना बनाया है. जबकि इस प्रायोजित हिंसा को लेकर हिन्दुत्ववादी संगठनों और उनके मास्टरमाइंडों पर हिंसा के पीड़ितों की तरफ से दायर रिपोर्टों को लगभग ठंडे बस्ते में डाल दिया है.

इस मामले में 8 जनवरी 2018 को दर्ज पहली एफआईआर में प्रोफेसर आनन्द का नाम भी नहीं था. बाद में बिना कोई कारण बताए 21 अगस्त 2018 को उनका नाम शामिल किया गया. इसके बाद उनकी गैरमौजूदगी में उनके घर पर छापा भी डाला गया.

इन संगठनों के मुताबिक जिस जनसभा के बाद हुई हिंसा के लिए आनन्द तेलतुम्बड़े जिम्मेदार ठहराया जा रहा है, उसका आयोजन रिटायर्ड जज जस्टिस पी बी सावंत और जस्टिस बी जी कोलसे पाटील ने किया था. और इसमें आनन्द तेलतुम्बड़े शामिल नहीं हुए थे. बल्कि अपने एक लेख में उन्होंने ऐसे प्रयासों की सीमाओं की बात की थी. उन्होंने स्पष्ट लिखा था कि ‘भीमा कोरेगांव का मिथक उन्हीं पहचानों को मजबूत करता है, जिन्हें लांघने का वह दावा करता है. हिन्दुत्ववादी शक्तियों से लड़ने का संकल्प निश्चित ही काबिलेतारीफ है, मगर इसके लिए जिस मिथक का प्रयोग किया जा रहा है वह कुल मिला कर अनुत्पादक होगा.’

इन संगठनों ने कहा है कि पिछले साल गिरफ़्तारी को औचित्य प्रदान करने के लिए ‘सबूत’ के तौर पर पुणे पुलिस ने ‘‘कामरेड आनंद’’ को सम्बोधित कई फर्जी पत्र जारी किए. पुणे पुलिस की तरफ से लगाए गए उन सभी आरोपों को डॉक्टर तेलतुम्बड़े ने प्रमाण और दस्तावेजी सबूतों के साथ खारिज किया है. इसके बावजूद ये झूठे आरोप डा तेलतुम्बड़े को आतंकित करने एवं खामोश करने के लिए लगाए जाते रहे हैं. ताकि यूएपीए (अनलॉफुल एक्टिविटीज प्रिवेन्शन एक्ट) की धाराओं के तहत महज़ इन आरोपों के बलबूते डा तेलतुम्बड़े को सालों तक सलाखों के पीछे रखा जा सकता है.

पुणे पुलिस की ओर से भीमा कोरेगांव मामले में प्रोफेसर आनन्द तेलतुम्बड़े के ख़िलाफ़ दायर एफआईआर को खारिज करने की मांग को सुप्रीम कोर्ट ने ठुकरा दिया है और उन्हें चार सप्ताह तक गिरफ़्तारी से सुरक्षा प्रदान की है. कोर्ट ने कहा है कि इस बीच में वह निचली अदालत से जमानत लेने की कोशिश कर सकते हैं. इसके लिए उनके पास बीच फरवरी तक का समय है.

इस मामले में बाकी विद्वानों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को जमानत देने से इन्कार करनेवाली निचली अदालत इस मामले में अपवाद करेगी, इसकी संभावना बहुत कम बतायी जा रही है. सुधा भारद्वाज, वर्णन गोंसाल्विस, वरवर राव, गौतम नवलखा, अरुण फरेरा जैसे अनेक लेखक और मानवाधिकार कार्यकर्ता सरकार के निशाने पर आ चुके हैं और इनमें से ज़्यादातर को गिरफ़्तार किया जा चुका है.


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