स्थानीय समुदाय को झिंझोड़ नहीं पाया नजीर का अशोक चक्र
26 जनवरी के मौके पर विजय पथ से राष्ट्रपति, शहीद लांस नायक नजीर अहमद वानी को अशोक चक्र प्रदान करेंगे. उनकी ओर से ये पुरस्कर उनकी पत्नी महजबीन लेंगी. दक्षिणी कश्मीर के शोपियां में 25 नवंबर को आतंकवाद रोधी अभियान के दौरान शहीद हुए नजीर अशोक चक्र पुरस्कार लेने वाले पहले कश्मीरी हैं.
जाहिर है कि उनको अशोक चक्र मिलने का खास राजनीतिक सन्दर्भ है. जहां उनको मिले इस पुरस्कार को पूरे देश और खासकर कश्मीर के नौजवानों के लिए मिसाल के तौर पर पेश किया जा रहा है, वहीं द टेलीग्राफ की एक खबर के मुताबिक़, दक्षिणी कश्मीर में कुलगाम स्थित उनके घर के आस-पास का स्थानीय समुदाय उनको अशोक चक्र मिलने से बहुत उत्साहित नहीं है.
खबर के मुताबिक, नजीर अहमद को मिले सम्मान से उनकी पत्नी के चेहरे पर तो गर्व और खुशी है पर ये खुशी परिवार के ही कुछ लोगों और आस-पास के रहने वाले लोगों के लिए ज्यादा अहमियत नहीं रखती है.
शांतिकाल के सर्वोच्च सैन्य सम्मान ‘अशोक चक्र’ से नजीर को सम्मानित करने की घोषणा के बाद महजबीन ने कहा, ‘‘जब मुझे बताया गया कि वह नहीं रहे, मैं रोई नहीं थी. मेरे भीतर एक ताकत थी जिसने मुझे आंसू बहाने नहीं दिए.’’
शुरू में आतंकी रहे नजीर बाद में हिंसा का रास्ता छोड़ मुख्यधारा में लौट आए थे. नजीर साल 2004 में सेना से जुड़े थे. सेना ने उन्हें इखवान से सेना में भर्ती किया था. सेना में भर्ती होने से पहले नजीर पर मानवाधिकार उल्लंघन के आरोप थे. एक अधिकारी ने बताया कि वो कई आतंकवाद रोधी अभियानों में शामिल रहे.
इतने पर भी स्थानीय समुदाय की तरफ से उनके लिए कोई खास प्रतिक्रिया नहीं आई. शहीद नजीर के छोटे भाई मुश्ताक़ ने बताया कि ये खबर मिलने के बाद आस-पास से कोई उनसे मिलने नहीं आया. वो कहते हैं कि “किसी ने हमें पुरस्कार मिलने की बधाई नहीं दी, पर हम किसी से उम्मीद भी नहीं करते हैं और वो आएंगे भी क्यों?”.
“जब वो इस दुनिया में थे, तब हम उम्मीद करते थे कि वो सुरक्षित रहें और हम भी यहां अपने घर में सुरक्षित रहें. लेकिन, अब वो नहीं रहें, फिर इस पुरस्कार का क्या मतलब”.
कुलगाम, शोपियां और पुलवाम दक्षिणी कश्मीर के वो इलाके हैं, जहां साल 2016 में बुरहान वानी की मौत के बाद से हिंसा की घटनाएं बढ़ी हैं.
द टेलीग्राफ लिखता है, इन इलाकों से कभी किसी नागरिक के उग्रवादी बनने या आतंकी संगठन से जुड़ने की खबरें सामने नहीं आईं. इसके उलट यहां के लगभग 6 से 7 लोग सेना का हिस्सा जरूर हैं. इसके साथ ही ज्यादातर नागरिक कम्युनिस्ट नेता युसुफ तारिगामी को वोट देते आए हैं. युसुफ पिछले तीन बार से कुलगाम के विधायक चुने जाते रहे हैं.
शहीद नजीर के आतंक रोधी दस्ते में शामिल होने के बाद उनका परिवार सेना की कॉलोनी में रहने लगा था. उनके माता-पिता और तीन छोटे भाई अभी भी यहीं रह रहे हैं.
अधिकारियों ने बताया कि आतंकवादियों की ओर से गोलियों की बौछार के बीच अदम्य साहस का परिचय देते हुए उन्होंने लश्कर-ए-तैयबा के एक जिला कमांडर और एक विदेशी आतंकवादी को मार गिराया.
उन्होंने बताया, ” नजीर अपनी आखिरी सांस तक लड़ता रहा. उनको कईं गोलियां लगी, कुछ उनके शरीर में और कुछ दिमाग में, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी”
नजीर के परिवार में उनकी पत्नी के अलावा दो बेटे हैं.
सेना के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि वह एक बहादुर सैनिक थे और शुरू से ही हीरो थे. उन्होंने अपने गृह राज्य जम्मू-कश्मीर में हमेशा शांति के लिए काम किया. उन्होंने कहा, “इससे पहले बहादुर नजीर को दो बार सेना मेडल दिया गया है. पहली बार साल 2007 में और फिर साल 2018 में”.
आतंक विरोधी दस्ते का हिस्सा होने के बावजूद आस-पास के लोगों में नजीर को मिले पुरस्कार पर उदासीनता है. अपने आखिरी अभियान के दौरान नजीर ने छह आतंकियों को मार गिराया था.
जाहिर है कि स्थानीय समुदाय की नजीर अहमद वानी को अशोक चक्र मिलने के प्रति उदासीनता काफी कुछ बयान कर देती है.