वंचितों को अधिकार दिलवाने में नीति आयोग नाकाम : आईईआर


niti aayog in answer to ec denies allegations of helping pmo

  PTI

“भुखमरी, पोषण की कमी से जर्जर शरीर, घर छोड़ने की पीड़ा और बच्चों की खरीद-बिक्री की कई साल से चली आ रही झकझोर देने वाली कहानियां, भारत के चाय बगानों के कब्र में तब्दील होने का एहसास दिलाती हैं.”  अनिर्बान भट्टाचार्य इंडियन एक्सक्लूजन रिपोर्ट के ‘डेथ लर्क इन गार्डन : क्राइसिस, कोपिंग एंड स्ट्रगल’ चैप्टर में उत्तरी बंगाल के चाय बगानों का आंखों-देखी हाल बताते हैं.  317 पन्ने के  इंडियन एक्सक्लूजन रिपोर्ट में भारत में हाशिए की जिन्दगी जी रहे तबकों की स्थिति को डाटा के साथ बताया गया है.

राजधानी दिल्ली के प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में चार दिसंबर को इंडियन एक्सक्लूजन रिपोर्ट 2017-18  जारी की गई.  वंचितो के लिए एडवोकेसी करने वाली संस्था सेन्ट्रल फॉर इक्विटी स्टडीज(सीईएस) ने चौथे साल यह रिपोर्ट जारी की है.  अलग-अलग क्षेत्रों में काम करने वाले विचारक, शिक्षाविद्, सामाजिक कार्यकर्ता और लेखकों ने इस रिपोर्ट को तैयार किया है.

रिपोर्ट में नीति आयोग के कामकाज के तरीकों पर सवाल उठाए गए हैं.  रिपोर्ट बताती है कि नीति आयोग ने हाशिए पर रह रहे लोगों को मुख्यधारा में ला पाने में नाकाम रही है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का योजना आयोग भंग कर नीति आयोग के गठन का फैसला प्रभावी नहीं हो पाया है.  इसके साथ ही उच्च शिक्षा, बैंकिंग, क्रेडिट कार्ड और आदिवासियों को जमीन आवंटन जैसी सुविधाएं तक सबकी बराबर पहुंच दिला पाने में केन्द्र सरकार नाकाम रही है.

सीईसी के निदेशक हर्ष मंदर कहते हैं, “यह रिपोर्ट नागरिकों को मिले संवैधानिक अधिकार को पूरा कर पाने में राज्य की विफलता के सबूत हैं.”

रिपोर्ट के मुताबिक योजना आयोग को भंग कर योजनागत और गैर योजनागत बजट को एक साथ करने का फैसला प्रभावी नहीं रहा है.

रिपोर्ट के सह-लेखक जावेद आलम खान कहते हैं, “नीति आयोग सार्वजनिक क्षेत्र की सेवा और अन्य सुविधाओं के निजीकरण के पक्ष में रही है, जिसकी वजह से समाज में कई लोग हाशिए पर पहुंच गए हैं. योजना आयोग अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति जैसे कमजोर तबकों के लिए योजना और बजट का प्रावधान करती थी.”

रिपोर्ट में बताया गया है कि नीति आयोग संस्थागत ढिलाई,  योजना लागू करने की चुनौतियों, नौकरशाही में सुधार और सरकार के साथ नागरिकों के जुड़ाव पर मामूली ध्यान दे पाई है.

‘फेयर ट्रायल राईट एंड द डेथ पेनाल्टी इन इंडिया’ चैप्टर के लेखक अनुप सुरेन्द्रनाथ और ऋषिकेश सहगल डेथ पेनाल्टी रिसर्च प्रोजेक्ट के हवाले से कहते हैं कि फांसी की सजा पाए कैदी अमानवीय कस्टडियल ट्रायल को झेल रहे हैं. वह फांसी की सजा पर भी सवाल उठाते हैं.

‘एक्सक्लूजन ऑफ इंडियन हायर एजुकेशन टुडे’ शीर्षक में दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर सतीश देशपांडे और अपूर्वानंद ने उच्च शिक्षण संस्थानों में जारी भेदभाव को रेखांकित किया है. 

वह लिखते हैं कि रोहित वेमुला का मामला कोई अजूबा मामला नहीं है. दलित और आदिवासी छात्र के पहचान उजागर होने पर उनके साथ दुर्व्यवहार बढ़ जाते हैं.  रिपोर्ट बताती है कि उच्च शिक्षा संस्थानों को सख्ती से नियंत्रित किया गया और  नियुक्तियों में योग्यता के मापदंड अलग-अलग रखे गए. रिपोर्ट के मुताबिक महिलाएं, एससी, एसटी और अन्य पिछड़े तबकों के लोगों को संख्या के अनुपात में जगह नहीं मिल पाई है. यहां अब भी हिन्दू सवर्ण काबिज हैंहालाकि नए संस्थानों के खुलने के साथ उच्च शिक्षण संस्थानों में वंचित तबकों की संख्या में बढ़ोत्तरी हुई है. इनमें महिलाओं(46.2 फीसदी) की संख्या सबसे अधिक है. हालांकि इससे उनके उत्पीड़न में कमी नहीं आई है.

लेखक महिलाओं की संख्या और उत्पीड़न के संबंध पर लिखते हैं, “केवल बढ़ी हुई संख्या से उत्पीड़न घटने वाला नहीं है. जिन संस्थाओं में महिलाएं बहुसंख्यक हैं वहां भी उनके साथ भेदभाव होता है. ”

चैप्टर ‘वित्तीय समावेशन: बैंंकिग और क्रेडिट तक पहुंच’, में दीपा सिन्हा ने लिखा है कि नोटबंदी से बैंकिग व्यवस्था से आंशिक रूप से जुड़े लोगों को काफी दिक्कत का सामना करना पड़ा है. वह लिखती हैं कि सिर्फ बैंक खाता खोलकर लोगों को वित्तीय समावेशन(फाइनेंशियल इनक्लूजन) से जोड़ा नहीं जा सकता है, इसके लिए लोगों को क्रेडिट(उधार लेने) सहित दूसरी बैंकिंग सुविधाओं से जोड़ना जरूरी है.

बैंकिग व्यवस्था से दूरी का लोगों के सामाजिक और आर्थिक जीवन पर भी प्रभाव पड़ता है. सोशल बैंकिंग के माध्यम से गरीब लोगों को सूदखोरों के चंगुल में जाने से बचाया जा सकता है.

रिपोर्ट में कहा गया है कि 1991 में नई आर्थिक नीति लागू होने के बाद से भूमिहीन आदिवासियों की संख्या लगातार बढ़ी है. गैर आदिवासियों द्वारा जमीन हड़पने, विकास परियोजनाओं, राष्ट्रीय पार्क के निर्माण और उग्रवादी गतिविधियों की वजह आदिवासियों को अपनी जमीन छोड़नी पड़ी है. इस चैप्टर के लेखक राजनया बोस आदिवासियों के हितों की रक्षा के लिए वन अधिकार कानून, 2006 और पेसा एक्ट, 1996 के तहत ग्राम सभा के गठन की सलाह देते हैं.

 


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