आदिवासी इलाकों में कायम गुस्से को नहीं भुना पाया विपक्ष


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आम चुनाव से ठीक पहले वनवासी कानून, 2006 के सही तरीके से लागू नहीं होने के चलते चुनाव में आदिवासी बहुल क्षेत्रों में समीकरण बदले हुए नजर आ रहे थे.

लेकिन मध्य प्रदेश की मंडला, ओडिशा की नबरंगपुर और सुंदरगढ़, महाराष्ट्र की गढ़चिरौली-चिमूर और पालघर, छत्तीसगढ़ की बस्तर और कांकेर, झारखंड की खूंटी, गुजरात की वलसाड, राजस्थान की बंसवारा जैसी 10 प्रमुख आदिवासी आरक्षित सीटों पर नतीजे पिछली बार जैसे ही हैं.

2014 लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने इन 10 में से नौ सीटों पर जीत दर्ज की थी. वहीं ओडिशा के नबरंगपुर से बीजेडी ने जीत दर्ज की थी.

इस बार कांग्रेस छत्तीसगढ़ की बस्तर सीट अपने नाम करने में कामयाब हुई है. जबकि बीजेपी ने 10 में से सात सीटों पर जीत हासिल की है. बीजेडी इस बार भी नबरंगपुर सीट को अपने पाले में करने में कामयाब हुई.

वहीं महाराष्ट्र पालघर लोकसभा सीट पर शिवसेना को जीत मिली है. इनमें से सात सीटों पर कांग्रेस दूसरी सबसे पार्टी रही. गौरतलब है कि खूंटी और कांकेर सीट से कांग्रेस दस हजार से कम वोटों के अंतर से हारी.

हालांकि कल आए नतीजों के आंकलन से पता चलता है कि जीतने वाली पार्टी और हारने वाली पार्टी के बीच वोटों का अंतर कम रहा.

कुछ समय पहले वन अधिकार अधिनियम-2006 के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट में जिस तरह सरकार आदिवासियों के हितों का बचाव करने में नाकाम रही, उससे विपक्षी दलों और आदिवासी संगठनों के आरोपों को बल मिल गया था. लेकिन फिर भी ये पार्टियां इसे अपनी जीत में बदलने में नाकामयाब रहीं.

इंडिया स्पेंड लिखता है, “वनवासी कानून समेत आदिवासी मुद्दों के कारण जीतने वाली पार्टी का वोट प्रतिशत घटा है. लेकिन जीतने वाली पार्टी की स्थिति में बदलाव ना होने पीछे विपक्षी दलों की नाकामियां रहीं. पहला विपक्षी पार्टियां गठबंधन बनाने में असफल रहीं, दूसरा कारण रहा कि वो आदिवासी वोटों को एकजुट नहीं कर सकीं.”

वन अधिकार अधिनियम, 2006 देश की 20 करोड़ आदिवासी जनता की लिए बेहद महत्तवपूर्ण कानून है. यह कानून आदिवासी अधिकारों का संरक्षण करता है और उन्हें जंगल की जमीन पर कानूनी अधिकार देता है.


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