छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य को लेकर तैयार हों नीतियां
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सुप्रीम कोर्ट में दायर एक याचिका के अनुसार साल 2014 से 2018 के बीच दिल्ली में 400 से अधिक छात्रों ने आत्महत्या की जिनकी उम्र 18 वर्ष से कम थी. गौरव कुमार द्वारा दायर जनहित याचिका में सुप्रीम कोर्ट से सभी भारतीय राज्यों को आत्महत्याओं को रोकने और कम करने के लिए नीतियां बनाने का आदेश देने का अनुरोध किया गया है. लम्बे समय से भारत में मानसिक स्वास्थ्य चुनौतियों को एक वर्जित विषय माना जाता रहा है.
लेकिन पिछले कुछ वर्षों से खासकर शहरी भारत में इस मुद्दे पर सार्वजानिक रूप से जागरूकता बढ़ रही है. संसद द्वारा पारित किया गया मेंटल हेल्थकेयर एक्ट 2017 भी यही सुनिश्चित करता है कि प्रत्येक व्यक्ति को मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को लेने का अधिकार है और सरकार द्वारा संचालित या वित्त पोषित मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं से उपचार का अधिकार होगा.
एशियन जर्नल ऑफ साइकेट्री में प्रकाशित 2017 के अध्ययन के अनुसार 37.7%, 13.1% और 2.4% छात्र विश्वविद्यालयों में मध्यम, गंभीर और अत्यंत गंभीर तनाव से पीड़ित थे. विशेषज्ञों की मानें तो कॉलेज और विश्विद्यालय के छात्र अतिसंवेदनशील होते हैं क्योंकि किशोरावस्था से व्यस्क होने तक वे अपने आप में काफी बदलाव ला चुके होते हैं.
यह वह समय होता है जब छात्र नए परिसरों में खुद को ढालने और अच्छे ग्रेड सुनिश्चित करने साथ ही भविष्य के लिए योजना बनाने की कोशिश कर रहे होते हैं. दुर्भाग्य से केवल कुछ शीर्ष विश्वविद्यालयों के छात्र इन चुनौतियों पर अमल करते हैं.
विश्वविद्यालय आमतौर पर मानसिक और स्वास्थ्य जैसे मुद्दों से निपटने के लिए काउंसलिंग का सहारा लेते हैं. लेकिन ये नाकाफी है, क्योंकि इस समस्या से निपटने के लिए छात्रों पर दबाव डालता है. जबकि रणनीति को एक निवारक प्रणाली में निवेश करना चाहिए जो तनाव कम करता हो. भारत में मानसिक स्वास्थ्य संबंधित ज्यादा फंड नहीं है, भारत में केवल स्वास्थ्य बजट का 0.6% ही मानसिक स्वास्थ्य सेवा के लिए समर्पित है.