तालिबान मुद्दे पर सेना प्रमुख रावत सरकार के विरोध में?


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अपनी सालाना प्रेस कांफ्रेंस में सेना प्रमुख विपिन रावत ने कहा कि अगर दुनिया के सभी देश तालिबान से बात कर रहे हैं और भारत को अफगानिस्तान में रुचि है तो उसे भी तालिबान से बात करनी चाहिए. लगभग यही बात उन्होंने दो दिन पहले भी दोहराई थी. वहीं, महज एक दिन पहले ही विदेश राज्य मंत्री वी. के. सिंह ने भी कहा था कि भारत का तालिबान से कोई लेना-देना नहीं है.

यानि विपिन रावत का बयान सीधे तौर पर तालिबान से बातचीत के मुद्दे पर सरकार की आधिकारिक स्थिति के उलट है. आम तौर पर ऐसे संजीदा और व्यापक महत्त्व के मुद्दों पर सरकार और सेना की राय में आम सहमति होनी चाहिए, लेकिन हाल के सालों में सार्वजनिक मंचों पर विपिन रावत जैसे ‘समांतर सरकार’ की तरह बात करते नजर आए हैं.

उन्हें रोकने की कोई गंभीर कोशिश सरकार ने की हो, इस बात का कोई ठोस आधार नजर नहीं आता. बल्कि बीते सालों में धारणा ये बनी है कि उनको इस तरह के बयानों की शह सरकार से ही मिलती है. इसलिए इस बात पर आश्चर्य नहीं होता कि अपनी सीमाएं लांघकर वे विदेश नीति जैसे गंभीर मुद्दे पर भी सरकार की आधिकारिक स्थिति से अलग बयान देते नजर आए.

लेकिन विपिन रावत की बातों में दोहरेपन की बू कहीं अधिक खतरनाक ढंग से आती है. वे ये तो मानते हैं कि सब देशों की देखा-देखी भारत को बगैर किसी शर्त तालिबान से बात करनी चाहिए, लेकिन कश्मीर में राजनीतिक पहल और संबंधित पक्षों से बातचीत करने की उनकी शर्तें बदल जाती हैं.

तब वे ये याद दिलाते हैं कि हुर्रियत को सबसे पहले हिंसा का रास्ता छोड़ना होगा, पश्चिमी ताकतों की मदद लेनी बंद करनी होगी, तब ही जाकर उससे बातचीत संभव है. सवाल यही है कि तालिबान और हुर्रियत से बातचीत करने या न करने के उनके मानदंड में ये दोहरापन क्यों है?

यह बात जगजाहिर है कि तालिबान को अफगानिस्तान में पाकिस्तान का परोक्ष समर्थन हासिल है.जबकि अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद कश्मीर विवाद में हुर्रियत एक वैध पक्षकार है. ऐसे में वह कौन सा विवेक है जो जनरल रावत को तालिबान से बात करने की अनुमति देता है लेकिन हुर्रियत को हिंसा का रास्ता छोड़ने की नसीहत?

जब एक दिन पहले विपिन रावत ने तालिबान से बातचीत शुरू करने का बयान दिया था तो जम्मू-कश्मीर के पूर्व-मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने भारत सरकार को इस दोहरी नीति के लिए आड़े हाथों लिया था.उन्होंने कहा था कि सरकार के रवैए में यह दोहरापन ठीक नहीं है.

जाहिर है कि सेना प्रमुख विपिन रावत के बयान के संकेत बेहद खतरनाक हैं. वे देश में विदेश नीति जैसे संजीदा मुद्दे पर एक नीतिगत निर्वात की ओर इशारा करते हैं. अगर उन पर लगाम नहीं कसी गई, तो ये हालात और खतरनाक हो सकते हैं.


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