छत्तीसगढ़ का आर्थिक मॉडल गांधी-नेहरू के सपनों के बहुत करीब है

इन योजनाओं से लाभान्वित होने वाले लोगों में लाखों ऐसे हाशिये के लोग होंगे जिन्हें गांधी ‘अंतिम जन’ कहते हैं. विकास का सच्चा अर्थ हरहाल में इसी ‘अंतिम जन’ का विकास है, यह गांधी का सन्देश है. शायद छत्तीसगढ़ सरकार के मुख्यमंत्री सहित अन्य नीति-नियंताओं ने गांधीजी का सन्देश आत्मसात कर लिया है.


छत्तीसगढ़ का आर्थिक मॉडल गांधी-नेहरू के सपनों के बहुत करीब है

  Chhattisgarh Rojgar

आज हरेली के अवसर पर बघेल सरकार ग्रामीण अर्थव्यवस्था संबधी कुछ नयी योजनाओं की घोषणा करने जा रही है. हरेली छत्तीसगढ़ किसानों का एक प्रमुख त्यौहार है जिसका हिंदी में शाब्दिक अर्थ हरियाली होता है. इन योजनाओं में सबसे महत्वपूर्ण ‘गोधन न्याय योजना’ के अंतर्गत किये जाने वाले तमाम नए और साहसिक प्रावधान हैं. जैसे छत्तीसगढ़ सरकार देश की पहली ऐसी सरकार होगी जो पशुपालकों को लाभ पहुँचाने के लिए उनसे गोबर खरीदने जा रही है.

गाय और गोबर के नाम पर पिछले कुछ सालों में देश में बहुत विवाद हुआ है. एक तरफ गाय के नाम पर इंसानों की हत्या को जायज़ ठहराने की प्रवृत्ति है तो दूसरी ओर गाय और गोबर को मखौल का विषय बनाने की नासमझी है. लेकिन गाय और गोबर ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए आज भी कितने महत्वपूर्ण अवयव हैं, यह किसी अन्य सरकार ने इतने बुनियादी ढ़ंग से नहीं समझा है. बघेल सरकार इस योजना के तहत गौपालन को लाभप्रद बनाने, गोबर प्रबंधन और पर्यावरण सुरक्षा पर काम करने जा रही है.

निश्चित रूप से इस योजना से गाँवों में रोजगार और किसानों व पशुपालकों की अतिरिक्त आय के अवसर बढ़ेंगे. इस गोबर से बर्मी कम्पोस्ट खाद बनाकर सहकारी समितियों से उनकी बिक्री की जायेगी जिससे खेती में रासायनिक खादों का चलन कम होगा. जनस्वास्थ्य और मिट्टी की उर्वरता की दृष्टि से रासायनिक खादें कितनी नुकसानदायक हैं यह एक वृहद् जागरूकता का विषय है. इसके अतिरिक्त गौपालन और खेती में गोवंश के उपयोग को बढ़ावा मिलेगा जिससे किसान के ऊपर तकनीक का दबाव और खर्च भी निश्चित रूप से कम होगा.

कृषि का ऑर्गनिक विकास या ऑर्गनिक कृषि का विकास पशुधन के विकास के बिना संभव नहीं है. जहाँ उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में जहाँ योगीजी गाय को राजनीतिक प्रतीक बनाये बैठे हैं, छुट्टा जानवरों आम किसान के लिए सिरदर्द बने हुए हैं. छत्तीसगढ़ में बघेल सरकार खुले में चराई की परंपरागत समस्या से छुटकारा दिलाने के लिए राज्य भर में हजारों गौठान और गौशालाओं का निर्माण कर चुकी है. किसान और पशुपालक अपने जानवरों की स्वाभाविक रूप से ज्यादा देखभाल करेंगे क्योंकि उनको गोबर से अतिरिक्त आय के अवसर प्राप्त हो रहे हैं. साथ ही यह गौठान महिलाओं के लिए आजीविका केंद्र के रूप में भी विकसित हो रहे हैं जहाँ महिलाएं जैविक खाद, पॉवर ब्लॉक् और ट्रीगार्ड बना रही हैं और सरकार उनकी सहायता कर रही है.

आख़िरकार ‘विकास’ का सही अर्थ क्या है? क्या इसका अर्थ जगमगाते भवन, सड़क और बाज़ार हैं? क्या इसका अर्थ जटिल सूचकांक हैं जो आम लोगों की समझ से एकदम परे होते हैं? क्या एफडीआई, शेयर मार्केट और इन्वेस्टमेंट जैसे शब्द अपने आप में विकास की सम्पूर्ण व्याख्या करते हैं? पिछले कुछ समय से जिन शब्दों की परिभाषाओं को सिर के बल खड़ा कर दिया गया है, विकास उनमें से एक है. दरअसल विकास एक जनकेंद्रित अवधारणा है जहाँ नीतियों का निर्धारण जनता को केंद्र में रखकर किया जाता है. बाकी सारी आधारभूत संरचनाएं और आर्थिक सूचकांक उसके इर्दगिर्द विकसित होते हैं.

इन अर्थों में छत्तीसगढ़ एक ऐसा राज्य है जो अनायास ही ध्यान खींचता है. पिछले साल रायपुर यात्रा के समय वहाँ लगे होर्डिंग्स पर नज़र पड़ी. उनमें ‘नरवा, गरवा, घुरवा, बारी’ योजना का ज़िक्र किया गया था. यह एक रोचक योजना मालूम पड़ी क्योंकि यह शब्द सीधे गाँवों से संबंधित थे. अचरज यह हुआ कि दूसरे राज्यों के सरकारी प्रचार अक्सर बड़े-बड़े हाईवेज़ और चमकधमक वाली ढांचागत परियोजनाओं पर ही केन्द्रित होते हैं. इसीलिए एक ग्रामीण कल्याण परियोजना का इतने व्यापक स्तर पर शहरी इलाकों में अपनी उपलब्धि बताकर प्रचारित करना बहुत आकर्षक बात थी. इसीलिए छत्तीसगढ़ सरकार की आर्थिक योजनाओं पर एक बारीक निग़ाह रखना जरूरी लगा.

इन होर्डिंग्स पर लिखा था— “छत्तीसगढ़ के चार चिंहारी/ नरवा, गरवा, घुरवा अउ बारी”. यानी छत्तीसगढ़ के चार प्रतीक चिन्ह हैं— नाला (नरवा), पशु एवं गोठान (गरवा), उर्वरक (घुरवा) और बगीचा (बाड़ी). भूपेश बघेल सरकार जिन चार चीजों को छत्तीसगढ़ की पहचान बनाना चाह रही थी वे भूमिगत जल का स्तर उठाने, सिंचाई की सुविधाओं का विकास करने, ऑर्गनिक खेती और खाद उत्पादन के विकास में मदद करने और पशुधन संपदा के संरक्षण से जुड़ी हुई थीं.

ग्रामीण परियोजनाओं की घोषणा एक बात है. लगभग सभी अन्य सरकारें अपने बजट में ऐसे प्रावधानों की घोषणा करती हैं. लेकिन ग्रामीण अर्थव्यवस्था को अपने विकासात्मक मॉडल के केंद्र में रखना एकदम अलग बात है. वो भी तब जब तथाकथित ‘गुजरात मॉडल’ और ‘सबका साथ, सबका विकास’ के झूठे शोरशराबे ने पूरे देश की अर्थव्यवस्था संबंधी समझ ही बदलकर रख दी है. भूपेश बघेल सरकार दरअसल ऐसा इसलिए कर सकी होगी क्योंकि वो स्वयं को अपनी जनता के प्रति वास्तविक अर्थों में उत्तरदायी समझती होगी. क्योंकि अपनी जमीन और जनता की जरूरत के हिसाब से आर्थिक नीतियों का निर्धारण जनता के प्रति उत्तरदायित्व की भावना से ही संभव है. वरना खनिज संसाधनों से अत्यंत समृद्ध राज्य में बड़ी आसानी से उद्योगों और खनन संबंधी गतिविधियों को ही अपनी पीठ ठोंकने वाली उपलब्धि माना जा सकता है.

इस मॉडल की ख़ासियत यह है कि इसमें ग्रामोत्थान योजनाओं के साथ-साथ औद्योगिक गतिविधियों को भी बढ़ावा देने की नीति शामिल है. याद रखना चाहिए कि अपने चारों ओर के आर्थिक परिवेश में कोई भी अर्थव्यवस्था एक अलग-थलग टापू की तरह विकसित नहीं हो सकती. पश्चिम बंगाल की माकपा सरकार ने ऑपरेशन बर्गा के माध्यम से ग्रामीण भूमिहीनता की जिस मूलभूत समस्या का समाधान कर दिया था, औद्योगीकरण के अभाव में एक ही पीढ़ी के बाद उसकी सीमाएं स्पष्ट होने लगी थीं. इस मामले में छत्तीसगढ़ सरकार शुरुआत से ही सजग दिखाई देती है.

एक ओर जहाँ मुख्य ध्यान ग्रामोत्थान योजनाओं पर केन्द्रित है वहीं बघेल सरकार अपने राज्य में औद्योगिक गतिविधियों के लिए निवेश को भी आकर्षित करने का प्रयास कर रही है. इलेक्ट्रॉनिक्स, ऑटोमोबाइल, आयरन एंड स्टील, भारी इंजीनियरिंग, टेक्सटाइल ऑप्टिकल फाइबर आदि ऐसे सेक्टर हैं जिसमें निवेश यहाँ तक कि विदेशी निवेश को भी आकर्षित करने के प्रयास किये जा रहे हैं. कॉर्पोरेट निवेश और ग्रामीण आदिवासी अर्थव्यवस्था के बीच संतुलन का यह मॉडल आज के बदले सन्दर्भों में कहा जाए तो नेहरूजी के विकासवादी मॉडल का प्रतिरूप है.

मिश्रित अर्थव्यवस्था के इस “छत्तीसगढ़ मॉडल” ने कॉर्पोरेट निवेश के मामले में जनता के अधिकारों के प्रति अत्यधिक संवेदनशीलता का परिचय दिया है. रमन सिंह सरकार की अंधाधुंध कॉर्पोरेट लूटखसोट और आम जनता के ‘जल, जंगल, जमीन संबंधी अधिकारों के हनन के विपरीत बघेल सरकार कई बार जनता का पक्ष लेकर खड़ी होती है. जैसे लोहंडीगुड़ा में टाटा द्वारा उद्योग नहीं लगाने सरकार ने दस गाँवों के 1707 किसानों की 4200 एकड़ जमीन वापस कर दी गयी. यह महत्वपूर्ण कार्य कोई अपवाद नहीं था बल्कि सरकार ने हाल के दिनों में देश भर में भूमि अधिग्रहण को लेकर सरकारों ने जनता पर जिस प्रकार के जुल्म किये हैं, यह एक सुकून देने वाली खबर है.

यहाँ उदारवादी अर्थव्यवस्था का मानवीय पक्ष भी देखा जा सकता है. बस्तर के बोधघाट में बघेल सरकार एक सिंचाई परियोजना पर काम कर रही है. यह परियोजना सिर्फ़ बस्तर के इलाकों पर केन्द्रित है जिसका एक बड़ा हिस्सा नक्सल प्रभावित है. लेकिन बघेल सरकार इस मामले में ज़ोर-ज़बरदस्ती की बजाय सहमति निर्माण पर ज्यादा भरोसा कर रही है. मसलम इस योजना को क्रियान्वित करने से पहले बस्तरवासियों से इसके सम्बन्ध में विचार-विमर्श का आश्वासन दिया गया है. यहाँ तक मुख्यमंत्री ने सार्वजनिक रूप से यह घोषणा कर दी है कि बोधघाट परियोजना के चलते हुए पुनर्वास की प्रक्रिया को पूरा करने के भूमि अधिग्रहण का काम किया जाएगा.

बहरहाल, ‘नरवा, गरवा, घुरवा, बाड़ी’ और ‘गोधन न्याय योजना’ एक-दूसरे से गुँथी हुयी और पूरक योजनाएं हैं. एक तीसरी महत्वकांक्षी और अत्यंत महत्वपूर्ण योजना राजीव गांधी किसान न्याय योजना के साथ मिलकर यह ग्रामीण अर्थव्यवस्था का एक सम्पूर्ण मॉडल बनाती हैं. करीब पौने सैंतीस लाख किसानों को अब तक लाभ पहुँचा चुकी इस न्याय योजना पर कभी विस्तार से लिखने की जरूरत है. इस योजना का उद्देश्य किसानों को उनकी उपज का अच्छा दाम दिलाना है. इसके पहले सरकार बनते ही छत्तीसगढ़ ने बहुत क्रांतिकारी ढ़ंग से किसानों की कर्जा माफ़ी कर दी थी. इस कर्जा माफ़ी की घोषणा के तहत 17 लाख किसानों के लगभग 8 हजार 818 करोड़ रुपये के कर्ज माफ़ कर दिए गए थे. इसके अतिरिक्त 244 करोड़ रुपये के सिंचाई कर माफ़ करके किसानों को कर्ज और उधारी के जाल से छुटकारा दिलाने के प्रयास किये गए थे.

राजनीतिक मसलों के हल के लिए आर्थिक नीतियाँ कितनी प्रभावी भूमिका निभा सकती हैं, यह स्पष्ट है. नक्सलबाड़ी की समस्या को तमाम विद्वान् आर्थिक और सामाजिक समस्या के रूप में समझने की सलाह देते हैं. नक्सल प्रभावित इलाकों में सरकार की खनन और निवेश नीतियों को लेकर स्वाभाविक गुस्सा है. लेकिन ग्रामीण आदिवासी आदिवासी इलाकों में बघेल सरकार उनके वर्गीय हित की योजनाओं को लेकर गयी है और उसका ज़बरदस्त स्वागत हुया है. वनोपज की खरीदी के मामले में छत्तीसगढ़ देश में पहले स्थान पर है क्योंकि आदिवासी इलाके परंपरागत रूप से वनोपज को अपनी अतिरिक्त आय के रूप में इस्तेमाल करते हैं. तेंदूपत्ता की खरीदी सीधे तौर पर आदिवासी समुदायों की आर्थिक गतिविधियों को बिना नुकसान सहारा देने वाली नीति है. इसके अतिरिक्त मनरेगा के मामले में छत्तीसगढ़ ने जो उल्लेखनीय उपलब्धियाँ हासिल की हैं उसमें बस्तर इलाके का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है. सौ दिन रोजगार उपलब्ध कराने के मामले में तो छत्तीसगढ़ देशभर में पहले स्थान पर है.

इस तरह कहा जाए तो छत्तीसगढ़ की भूपेश बघेल की सरकार दरअसल एक वैकल्पिक आर्थिक मॉडल का निर्माण कर रही है. इसका श्रेय और प्रसिद्धि उन्हें मिलनी ही चाहिए. गोधन न्याय योजना के तहत उन्होंने गाय के मुद्दे पर एक बार नए सिरे से विचार करने को बाध्य किया है. गाय न तो घृणा की राजनीति का औजार है और न ही गोबर किसी चुटकुले का विषय है. वास्तव में गाय और गोवंश ग्रामीण अर्थव्यवस्था को समेकित रूप से विकसित करने की अनिवार्यता है. गांधीजी की ‘गौसेवा’ और सांप्रदायिक संगठनों की ‘गौरक्षा’ का मूलभूत अंतर क्या है, यह मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने स्पष्ट कर दिया है.

अपने चारों ओर विकास की ख़ालिस कॉर्पोरेट अवधारणा के बीच उन्होंने जिस “छत्तीसगढ़” मॉडल की नींव रखी है वो गांधी-नेहरू के सपनों के बहुत करीब है. नहीं भूलना है कि इन योजनाओं से लाभान्वित होने वाले लोगों में लाखों ऐसे हाशिये के लोग होंगे जिन्हें गांधी ‘अंतिम जन’ कहते हैं. विकास का सच्चा अर्थ हरहाल में इसी ‘अंतिम जन’ का विकास है, यह गांधी का सन्देश है. शायद छत्तीसगढ़ सरकार के मुख्यमंत्री सहित अन्य नीति-नियंताओं ने गांधीजी का सन्देश आत्मसात कर लिया है.

लेखक स्वाधीनता संग्राम के प्रतिनिधि संगठन नेशनल मूवमेंट फ्रंट के संयोजक और दिल्ली विश्वविद्यालय के देशबंधु कॉलेज में इतिहास के असिस्टेंट प्रोफेसर है.


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