घुमंतू जनजातियों के लिए की गई घोषणाएं कितनी कारगर


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भारत की आजादी की तारीख 15 अगस्त 1947 आपके और हमारे लिए जरूर उत्साहवर्धक और महत्वपूर्ण हो सकती है परंतु आज भी हमारे बीच कुछ ऐसे समुदायों और जनजातियों के लोग हैं जो आजादी की इस तारीख से कोई वास्ता नहीं रखते हैं. क्योंकि जब पूरा देश आजादी के शुरुआती जश्न में डूबा हुआ था तो ये लोग उस दौर में भी गुलामी का दंश झेल रहे थे.

लगभग 82 साल तक अंग्रेजों ने क्रिमिनल एक्ट लगाकर इन जनजातियों की कमर तोड़ी तथा बाद में अपने ही आजाद देश में 5 साल 16 दिनों तक गुलामी की बेड़ियों में जकड़े रहे इन लोगों को 31 अगस्त 1952 को आकर आजादी मिली. इस दिन को ही ये लोग ‘विमुक्ति दिवस’ के तौर पर मनाते हैं.

इस बात का जिक्र इसलिए क्योंकि हाल ही में वित्त मंत्री पीयूष गोयल ने लोकसभा में अंतरिम बजट पेश करते हुए इन समुदायों के लोगों के लिए एक छोटी-सी घोषणा की है. वित्त मंत्री की यह घोषणा मीडिया से भी उसी तरह गायब रही जैसे सरकार के विकास के बड़े-बड़े दावों के बीच अर्से से ये समुदाय देश और समाज के विकास की मुख्यधारा से गायब है.

लोकसभा के पटल पर वित्त मंत्री की दो लाइनों की यह घोषणा अगर हकीकत में बदल जाए तो शायद इन लोगों के जीवन स्तर में कुछ बदलाव आ जाए. वित्त मंत्री की घोषणा के अनुसार  नीति आयोग के तहत एक ऐसी समिति का गठन किया जाएगा जो अब तक वर्गीकृत नहीं हुए इन ‘घुमंतू और अर्ध-घुमंतू’ समुदायों की पहचान करने के काम को पूरा करेगी. साथ ही  एक ‘विकास कल्याण बोर्ड’ का भी गठन  किया जाएगा जिसके अंतर्गत इन समुदायों के विकास के लिए विशेष रणनीति तैयार करने की बात कही गई है.

कौन हैं घुमंतू और अर्ध-घुमंतू

जीवनयापन के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमने वाले समुदायों को घुमंतू कहा जाता है.

बालकृष्ण सिद्धराम रेनके की ‘रेनके कमीशन 2008’ की रिपोर्ट के अनुसार देशभर में 98 फीसदी घुमंतू बिना जमीन के रहते हैं, 57 फीसदी झोंपड़ियों में और इनमें से 72 फीसदी लोगों के पास अपने पहचान पत्र तक नहीं हैं. 2001 तक देश भर में घुमंतू समुदाय के लोगों की जनसंख्या 11 करोड़ के करीब थी. इनमें मुख्य रूप से वे लोग हैं जिनको हम अपने आस-पास देख कर भी अनदेखा कर देते हैं. इनमें ज्यादातर पशुपालक, शिकारी, खेल दिखाने वाले और मनोरंजन करने वाले समुदाय हैं. इस समाज की कुछ जातियां इस प्रकार से हैं –    

बंजारे- पशुओं पर माल ढोने का काम करने वाले

गाड़िया-लोहार, जगह-जगह जाकर औजार बनाकर बेचने वाले

बावारिये – जानवरों का शिकार और उनके अंगों का व्यापार करने वाले

नट – नृत्य और करतब दिखाने वाले 

कालबेलिया – सांपों का खेल दिखाने वाली, शर्प दंश का इलाज करने वाले तथा जड़ी-बुटियां तैयार करने वाली जनजाती

भोपा – स्थानीय देवताओं के गीत गाने वाले 

सिकलीगर – हथियारों में धार लगाने वाले 

कलंदर – जानवरों से करतब दिखाने वाले 

ओढ- नहर बनाने तथा जमीन की खुदाई करने  वाले 

बहरूपिये और बाज़ीगर – लोगों का मनोरंजन करने वाले 

घुमंतू समुदायों का इतिहास  

घुमंतू और अर्ध-घुमंतू जनजातियों के लोगों ने 1857 की क्रांति में अंग्रेजों से जमकर लोहा लिया था. लेकिन 1857 की क्रांति की हार के बाद इन लोगों को अंग्रेजों के खिलाफ चलाए गए अभियान का खामियाजा भुगतना पड़ा.

इस क्रांति के बाद अंग्रेजी हुकूमत ने इन समुदायों और जातियों पर शिकंजा कसना शुरू कर दिया, क्योंकि अंग्रेजी हुकूमत को ख़तरा था कि ये लोग आगे चलकर उनके लिए फिर से चुनौती बन सकते हैं. एक स्थान से दूसरे स्थान पर घुमंतू रहने की वजह से ये लोग  अपनी और अपने पशुओं की सुरक्षा के लिए हथियार अपने साथ रखते थे, तथा जंगलों में रहने और गहरा लगाव होने के कारण जंगल बीहड़ों के चप्पे-चप्पे से वाकिफ़ थे. ये लोग गोरिल्ला युद्ध में माहिर थे, इन लोगों ने असंख्य अंग्रेज अधिकारियों को मौत के घाट उतारा था जिसकी वजह से अंग्रेजी हुकूमत इन समुदायों से भयभीत और परेशान थी.

इन लोगों पर लगाम लगाने के लिए सरकार 1871 में क्रिमिनल ट्राईब एक्ट अर्थात आपराधिक जनजाति अधिनियम कानून लेकर आई सबसे पहले इस एक्ट को उत्तर भारत में लागू किया गया. उसके बाद 1876 में इसे बंगाल प्रांत पर भी लागू किया गया तथा 1911 तक आते-आते क्रिमिनल ट्राईब एक्ट को पूरे भारत में रहने वाले इन समुदायों पर थोप दिया गया. इस एक्ट को लागू करने का मुख्य उद्देश्य इन लोगों पर पाबंदी लगाना था. जिसके तहत यह अनिवार्य कर दिया गया कि इन लोगों को गाँव व शहर से बाहर जाने के लिए अपना नाम स्थानीय मजिस्ट्रेट के रजिस्टर में दर्ज करवाना होता था कि वे कहाँ, क्यों और कितने दिनों के लिए जा रहे हैं.  

ऐसा इसलिए किया जाता था ताकि कोई आपराधिक घटना होने पर जांच करने में आसानी रहे तथा इन लोगों पर निगरानी भी रखी जा सके. इन समुदायों पर अपराधी होने का तमगा चस्पा दिया गया, जो भी बच्चा इन जातियों में जन्म लेता उसको जन्मजात अपराधी किस्म का मान लिया गया यानी इन लोगों ने जन्मजात अपराधी होने का अमानवीय दंश झेला.

1952 में सरकार ने इन जातियों को डिनोटिफाइ करने का कदम उठाया. इसके बाद आगे चल कर सरकार 1959 में  हैबिचुअल ओफ्फेंडर एक्ट यानी आदतन अभियुक्त अधिनियम लेकर आई जिसके तहत इन लोगों पर से अपराधी होने का दंश पूर्णरूप से नहीं हटाया गया अब तक भी इन समुदायों को शक की निगाह से देखा जाता है तथा कोई भी अपराध होने पर पुलिस का संदेह आस-पास मौजूद इन लोगों पर ही जाता है.

वर्तमान में घुमंतू समुदायों की स्थिति 

सबसे दुखद यह है की देश के आज़ाद होने के पांच सालों के बाद तक भी यही सिलसिला जारी रहा. आजादी के बाद पांच सालों तक भी इन लोगों को पहले जैसी बनी-बनाई छवि के साथ अपने ही लोगों के बीच अपमान का घूंट पीकर जीना पड़ा. अंग्रेजों के चले जाने के बाद भी ये लोग गाँव में नम्बरदार के घर रजिस्टर में अपना नाम दर्ज करवा कर जाते रहे थे तथा साथ ही पास के पुलिस स्टेशन में हर हफ्ते अपना नाम दर्ज करवाना पड़ता था ताकि इन लोगों पर नज़र रखी जा सके. 

आजाद भारत में भी हमारे समाज की सोच इन जनजातियों की प्रति ज्यों की त्यों बनी हुई है. अधिनियम खत्म होने के बावजूद आज भी हमारा समाज इन जनजातियों को अपराधी मानता है. 2007 में मध्य प्रदेश के बैतूल जिला के चौथिया गांव में पारधी जनजाति  के घर इसी सोच की भेंट चढ़ गए.

चौथिया गांव में पारधी जनजाति  के 350 परिवारों के घर जला दिए गए.  इन लोगों के साथ आज भी समाज के साथ-साथ, हमारी पुलिस, प्रशासन और व्यवस्था ने भी इन लोगों के साथ सौतेला व्यवहार ही किया है. पुलिस इन जनजातियों को जन्मजात अपराधी मानती है. लिहाजा इन्हें किसी भी मामले में गिरफ्तार कर लिया जाता है. जिनके पूर्वजों ने 1857 की क्रांति में इस उम्मीद के साथ अंग्रेजों से लोहा लिया था कि उनकी आने वाली पीढ़ियां खुली हवा में सांस ले सके परंतु दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हो सका उल्टा यह पल इन लोगों के लिए अपमान भरी जिंदगी जीने वाला था. 

भीखूराम इदाते कमीशन की रिपोर्ट के मुताबिक पूरे देश में 500 से ज्यादा ऐसी जातियां  हैं. जिनमें 313 नोमेडिक ट्राईब यानी खानाबदोश जनजातियां हैं तो वहीं 198  डिनोटिफाइड जातियां हैं. आज भी ये लोग बेघर है, शिक्षा का स्तर शून्य है, 70 साल में किसी भी सरकार ने इन जनजातियों के बारे में कुछ नहीं सोचा. आज देश में शिक्षा का वर्गीकरण हो गया है. गरीब लोग शिक्षा से कोसों दूर हैं, इन लोगों के पास घर नहीं है, राशन कार्ड नहीं है, इनकी अपनी कोई पहचान नहीं है, सरकार ने इन समुदायों के लिए बहुत बार आयोग बनाए पर किसी भी आयोग की रिपोर्ट पर कर्रवाई नहीं हुई. 

राजस्थान में गहलोत सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल में घुमंतू बोर्ड बनाया था और 50 लाख रुपये का बजट भी पास किया था इसके बाद  भाजपा की वसुंधरा सरकार ने अपने कार्यकाल में इस बोर्ड के लिए एक रुपया भी जारी नहीं किया. कॉरपोरेट घरानों को जमीन देने के लिए भू-अधिग्रहण कानून सरकार ले आती हैं, लेकिन घुमंतुओं के लिए रहने तक के लिए जमीन तक नहीं देती. देश में आंध्र प्रदेश और केरल सरकार की तर्ज पर होम स्टेड एक्ट बनाया जाना चाहिए. जिससे उनके आवास और पशुबाड़े के लिए जमीन मिल सके. होमस्टेड एक्ट के अनुसार अगर सरकार के पास जमीन नहीं होती है तो सरकार बेघरों के लिए जमीन खरीदकर देती है.    

तमाम घोषणाएं होती हैं परंतु इन लोगों को घर, शिक्षा, स्वास्थ्य की व्यवस्थाएं आज तक नसीब नहीं हुईं हैं. हमारी लोकशाही में ताकतवर की चलती है यही कारण है कि रेनके रिपोर्ट को आए हुए एक दशक से ज्यादा गुजर गया है परंतु अब तक इस रिपोर्ट को संसद के पटल पर नहीं रखा गया है. इन लोगों के पास संगठन की ताकत नहीं है ये लोग बिखरे हुए हैं इसलिए राजनीतिक पार्टियों के पैमाने पर ये एक संयुक्त वोट बैंक के तौर पर नहीं बैठते हैं और जो संगठित और जागरूक हैं उनके सामने लोकशाही पानी भरती दिखती है. यही वजह है कि देश की कुल आबादी का 10 फीसदी होते हुए भी पिछले 70 सालों से इन लोगों की अनदेखी होती आ रही है.

ऐसे में पिछले 70 सालों की तरह केवल उम्मीद ही लगाई जा सकती है कि घुमंतू और अर्ध-घुमंतू  समाज के लिए वित्त मंत्री की इस नई घोषणा को अमली जामा पहनाया जाएगा.


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