हिंसात्मक गौ संरक्षण: कृषि, व्यापार और आजीविका पर प्रभाव


Cow protection: Impact on agriculture, trade and livelihood

 

सांप्रदायिकता और व्यापार एक साथ नहीं चल सकता. यह ऐतिहासिक तथ्य है कि सांप्रदायिकता के माहौल में उद्योग और व्यापार का फलना-फूलना तो दूर इनका बचा रहना भी मुश्किल हो जाता है. जैसे कि करीब तीन दशक पहले हुए भयावह भागलपुर दंगों ने इस शहर के मशहूर सिल्क के कपड़ों के निर्माण और व्यापार को इस कदर बर्बाद किया कि सिल्क सिटी अब तक इस चोट से उबर नहीं पाया है.

बीजेपी सांप्रदायिकता की राजनीति करती है. बीते करीब पांच वर्षों से गाय के नाम पर भी ऐसा ही किया जा रहा है. केंद्र की वर्तमान सरकार के कार्यकाल के दौरान गौरक्षा एक सांप्रदायिक उन्माद में तब्दील होता जा रहा है और यह उन्माद बीते कुछ साल में करीब पचास लोगों की जान ले चुका है. दूसरी ओर गौरक्षक समूहों के हमलों और गौहत्या और मवेशियों के परिवहन पर सख्त कानूनों ने भारत के पशु व्यापार और ग्रामीण कृषि अर्थव्यवस्था को अस्त-व्यस्त कर दिया है. साथ ही, खेती और डेयरी क्षेत्र से जुड़े चर्म और मांस निर्यात उद्योग पर भी इसका असर पड़ा है. मानवाधिकार पर काम करने वाले अंतरराष्ट्रीय संगठन ह्यूमन राइट्स वॉच की एक रिपोर्ट में यह तथ्य एक बार फिर से विस्तार से सामने आई है.

ह्यूमन राइट्स वॉच ने भारत में चल रहे हिंसात्मक गौरक्षक अभियान के राजनीतिक-आर्थिक पहलुओं समेत अन्य पक्षों को विस्तार से समेटते हुए ‘भारत में हिंसात्मक गौ संरक्षण: गौरक्षकों के निशाने पर अल्पसंख्यक’ शीर्षक से रिपोर्ट जारी की है. रिपोर्ट में इन हमलों के असर और सरकार द्वारा उन लोगों के लिए किए गए उपायों की भी पड़ताल की गई है जिनकी जीविका पशुधन से जुड़ी हुई है, इनमें किसान, चरवाहे, पशु ट्रांसपोर्टर, मांस व्यापारी और चर्म उद्योग श्रमिक शामिल हैं.

रिपोर्ट कहती है, “पशुओं से संबंधित उद्योगों को नुकसान पहुंचाने वाले कानूनों, नीतियों और गैरकानूनी हमलों से न केवल मुसलमान बल्कि हिन्दू, खासकर दलित, भी काफी प्रभावित हुए हैं. बूचड़खाने और मांस की दुकानें ज्यादातर मुसलमान चलाते हैं. दलित परंपरागत रूप से मवेशियों के शवों का निपटारा करने और चमड़े और चमड़े के सामान जैसे व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए उनकी खाल उतारने का काम करते हैं. लिहाजा, ये नीतियां सभी समुदायों, विशेषकर किसानों और मजदूरों को नुकसान पहुंचा रही हैं. ट्रांसपोर्टर्स भी इससे बुरी तरह प्रभावित हुए हैं. इन हमलों ने खानाबदोश चरवाहों की रोजी-रोटी को करीब-करीब बर्बाद कर दिया है.”

मवेशी पालन बना महंगाई का सौदा

बीते साल अररिया लोक सभा उपचुनाव के दौरान अररिया जिले के घिवाहा गांव के मोहम्मद हसनैन ने बताया था, “गौरक्षा अभियान से केवल मुसलमानों का ही नुकसान नहीं हुआ है, हिंदुओं का भी हुआ है. मवेशी की कीमत आधी रह गई है. इससे परेशानी बढ़ी है. देहात में गरीब लोग मवेशी ये सोच के पालते हैं कि जरूरत पड़ने पर इसे बेच कर इलाज़ कराएंगे, बेटी की शादी के लिए पैसे जुटाएंगे. लेकिन अभी जो हाल है जरूरत पड़ी तो सही समय पर मवेशी बिक ही नहीं पाएगी.”

किसान अक्सर पशुपालन और पशु व्यापार और डेयरी उत्पादों की बिक्री करके पूरक आय जुटा पाते हैं और खाद्य आवश्यकताओं को पूरा करते हैं. भारत में लगभग 19 करोड़ मवेशी और 10.8 करोड़ भैंसें हैं. भारत दुनिया का सबसे बड़ा दूध उत्पादक भी है. किसान नर बछड़ों जैसे अनुत्पादक पशुओं और बूढ़े मवेशियों को बेचते रहे हैं क्यूंकि इन्हें पालना किसानों के लिए महंगाई का सौदा होता है.

ह्यूमन राइट्स वॉच की रिपोर्ट बताती है कि अतीत में ‘हिंदू’ किसान का कभी भी ‘मुस्लिम’ कसाई के साथ कोई विवाद नहीं था. इस रिपोर्ट में पशुपालन विशेषज्ञ एमएल परिहार कहते हैं, “हिंदू किसानों ने भी कभी पशुओं को कसाईखाना भेजने का विरोध नहीं किया क्योंकि वे जानते थे कि अगर पशु गांव में रहेंगे, तो फसलों को नुकसान पहुंचाएंगे. यह अर्थव्यवस्था का हिस्सा था. किसान को पशु से भावनात्मक लगाव हो सकता है, लेकिन फिर भी वह इसे बेचता था, जानते हुए कि यह कसाईखाने जा रहा है. किसान जानता था कि वह इसे खिलाने और रखने का खर्च नहीं उठा सकता”.

पशु मेलों की रौनक ख़त्म

कथित गौरक्षकों की हिंसा के कारण सरकार द्वारा आयोजित पशु मेलों में पशुओं की खरीद-बिक्री में उल्लेखनीय कमी देखी जा सकती है. राजस्थान सरकार प्रतिवर्ष 10 पशु मेलों का आयोजन करती है. 2010-11 में, इन मेलों में 56 हजार से अधिक गाय और बैल आए और उनमें से 31 हजार की बिक्री हुई. 2016-17 में, उनकी संख्या 11 हजार से भी कम रह गई, जिनमें तीन हजार से भी कम की खरीद-बिक्री हुई.

बिहार के सोनपुर में हर साल लगने वाला मेला कभी एशिया के सबसे बड़े पशु मेले के रूप में भी प्रसिद्ध था. लेकिन अब हालात दूसरे हैं. अंग्रेजी अखबार हिन्दुस्तान टाइम्स की बीते साल नवम्बर की एक रिपोर्ट के मुताबिक क्रूरता निवारण कानूनों के तहत पशु बाजारों में पशुवध के लिए मवेशियों की बिक्री और खरीद पर केंद्र सरकार की रोक और गौरक्षकों के बढ़ते हमलों ने इस मशहूर मेले में आने वाले सैकड़ों पशु व्यापारियों और इस कारोबार के बिचौलियों की आजीविका छीन ली है. अखबार के मुताबिक पिछले चार से पांच वर्षों में सोनपुर मेले में पशु व्यापारियों की भागीदारी बहुत तेजी से घटी है. कई राज्यों, मुख्य रूप से पंजाब, हरियाणा और असम के व्यापारी, जो यहां नियमित थे, ने आना बंद कर दिया है.

मांस उद्योग में अनिश्चितता

भारत दुनिया का सबसे बड़ा बीफ़ निर्यातक है, जो प्रति वर्ष लगभग 400 करोड़ अमेरिकी डॉलर का भैंस मांस निर्यात करता है. हालांकि, 2014 में बीजेपी सरकार के सत्ता में आने के बाद निर्यात में तेज गिरावट आई है और देश के शीर्ष मांस उत्पादक राज्य उत्तर प्रदेश में बीजेपी की अगुवाई वाली सरकार की कार्रवाई से इस व्यापार का भविष्य अनिश्चित हो गया है. मार्च 2017 में मुख्यमंत्री नियुक्त होते ही आदित्यनाथ ने तुरंत ज्यादातर मुसलमानों द्वारा चलाए जा रहे कई बूचड़खानों और मांस की दुकानों पर कार्रवाई की.

भारत सरकार के वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय के कृषि और प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण के मुताबिक वित्तीय वर्ष 2014-15 के बाद पिछले वित्तीय वर्ष 2017-18 को छोड़ हर साल भैंस मांस के निर्यात में कमी दर्ज हुई है. जबकि वित्तीय वर्ष 2010-11 से वित्तीय वर्ष 2014-15 के बीच इस निर्यात में हर साल उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज हुई थी. वित्तीय वर्ष 2010-11 में यह निर्यात करीब 188 करोड़ अमरीकी डॉलर का था जो वित्तीय वर्ष 2014-15 में बढ़कर 478 करोड़ अमरीकी डॉलर तक पहुंच गया. लेकिन वित्तीय वर्ष 2015-16 से यह निर्यात घटने लगा और 2016-17 में घटकर 391 करोड़ अमरीकी डॉलर का रह गया. हालांकि वित्तीय वर्ष 2017-18 में यह थोड़ा बढ़कर 403 करोड़ अमरीकी डॉलर तक पहुंचा.

चमड़ा निर्यात में गिरावट

भारत दुनिया के चमड़े का लगभग 13 प्रतिशत उत्पादन करता है और चमड़ा उद्योग विदेशी मुद्रा आय का एक प्रमुख स्रोत है. इससे 1200 करोड़ अमेरिकी डॉलर से अधिक का वार्षिक राजस्व प्राप्त होता है (निर्यात 570 करोड़ अमेरिकी डॉलर और घरेलू बाजार 630 करोड़ अमेरिकी डॉलर का है) और यह लगभग 30 लाख लोगों को रोजगार प्रदान करता है, जिनमें से 30 प्रतिशत महिलाएं हैं. 2017 में, सरकार ने चमड़ा उद्योग को रोजगार पैदा करने और विकास के लिए महत्वपूर्ण उद्योग के रूप में चिन्हित किया. उसी समय, एक सरकारी सर्वेक्षण में स्वीकार किया गया कि “बड़ी पशु आबादी होने के बावजूद, मवेशियों के चमड़े के निर्यात में भारत की हिस्सेदारी कम है और पशुवध की सीमित उपलब्धता के कारण घट रही है.”

ह्यूमन राइट्स वॉच की रिपोर्ट के मुताबिक चमड़ा उत्पादकों और निर्यातकों का कहना है कि गौरक्षकों के डर और सैकड़ों बूचड़खानों को बंद करने से चमड़े की उपलब्धता घटी है. भारत सरकार के वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय के 2017-18 के वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक जहां चमड़ा और चमड़ा उत्पादों का निर्यात 2013-14 में 18 प्रतिशत से अधिक और 2014-15 में नौ प्रतिशत बढ़ा, वहीं 2015-16 में इनमें लगभग 10 प्रतिशत की गिरावट आई. 2017-18 में, इनमें 1.4 प्रतिशत की मामूली वृद्धि दर्ज की गई.

गौ संरक्षण की बढ़ती लागत

पशुओं की सहज खरीद-बिक्री प्रभावित होने से अधिक-से-अधिक किसानों को अपने मवेशियों को आवारा छोड़ने के लिए मजबूर किया जा रहा है जिसके कारण आवारा पशुओं की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है. इससे उन किसानों में गुस्सा है जिनकी फसलों को इन मवेशियों से खतरा है. ‘भारत में हिंसात्मक गौ संरक्षण’ रिपोर्ट के मुताबिक कई राज्यों की बीजेपी सरकारों ने गौशालाओं का आवंटन बढ़ाया है, यहां तक कि नए कर लगाए हैं. इसके आलावा, इन राज्यों की जेलों में गौशाला खोलकर कैदियों के स्वास्थ्य के साथ समझौता किया जा रहा है.

यह रिपोर्ट यह सुझाव देती है कि सरकार के पास मवेशियों की खरीद-बिक्री पर रोक लगाने वाले कानूनों और नीतियों को लागू करने का अधिकार है, लेकिन ऐसा करते हुए उसे अल्पसंख्यक समुदायों को होने वाले असंगत नुकसान से बचाना होगा. साथ ही सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि ऐसे तमाम कानून या नीतियां सभी भारतीयों की आजीविका के अधिकार के अनुरूप हों.


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