नेहरू प्लेस में मुस्लिम नाम की वजह से नहीं बना आई कार्ड


Reserved seats is the hurdle behind Muslim representation: Report

  प्रतिकात्मक तस्वीर

16वीं-17वीं सदी के महान अंग्रेजी साहित्यकार विलियम शेक्सपियर का कथन है कि ‘नाम में क्या रखा है’ लेकिन आज अगर वो जिंदा होते तो उन्हें अपने इस कथन पर पुनर्विचार करना पड़ता क्योंकि आज के इस दौर में नाम में ही तो सब कुछ रखा है.

बात मंगलवार सुबह की है. मैं एक गैर सरकारी संस्था के साथ जुड़ा हुआ हूं. जिसका नाम ‘मुस्लिम विमेंस फोरम’ है. हमारी संस्था में कुछ लोग ऑफिस में काम करते हैं और कुछ हमारे साथी फील्ड वर्क करते हैं.

मैं अपने फील्ड वर्क करने वाले साथियों के लिए पहचान पत्र और ऑफिस में कार्यरत साथियों के लिए विजिटिंग कार्ड बनाने के लिए नेहरू प्लेस गया. मेरे पास इसका डिजाइन किया हुआ सॉफ्ट कॉपी था.

जब मैं नेहरू प्लेस पहुंचा तो वहां एक दूकान में प्रिंटआउट लेने के लिए अंदर दाखिल हुआ. मैंने उनसे कहा कि मुझे विजिटिंग कार्ड और आई कार्ड के प्रिंट लेने हैं. उन्होंने मुझसे पूछा कि आप मुझे दिखाइए जब मैंने उन्हें दिखाया तो देखने के बाद उन्होंने कहा कि अभी तो मेरा प्रिंटर काम नहीं कर रहा है आप किसी दूसरे दुकान में चले जाइए. जब यह बात वो कह रहे थे मुझे थोड़ा संदेह हुआ उनकी बातों पर और उनकी हाव भाव को देखकर. पर मैंने कुछ कहा नहीं और दूसरे दुकान को ढूंढता हुआ वहां पहुंचा.

वहां भी मैंने यही बात कही और उन्होंने मुझे सॉफ्ट कॉपी दिखाने के लिए कहा उन्होंने भी देखने के बाद कहा कि पिछले कई दिनों से हमारे यहाँ प्रिंटिंग का काम बंद है और अभी आगे कुछ और दिन हम नहीं करेंगे इसलिए आप किसी और दुकान पर देख ले.

मेरा संदेह और शंका और गहरा हुआ. मुझे लगा कि बात कुछ और है. लेकिन मेरे पास कोई चारा नहीं था मैं फिर किसी तीसरे दुकान पर गया. वहां भी मैंने यही बातें दोहराई और कहा कि मुझे आई कार्ड और विजिटिंग कार्ड के प्रिंट लेने हैं. उन्होंने मुझे अपने ईमेल आईडी की तरफ इशारा करते हुए कहा कि आप इस पर मेल कर दें. जब मैंने उनको मेल कर दिया तो मैंने बताया.

जब उन्होंने अपना ईमेल आईडी खोला तो मेरी संस्था का नाम देखते हुए अपने सीनियर से पूछा कि क्या यह प्रिंट हो जाएगा? तो उस सीनियर व्यक्ति ने किसी तीसरे से पूछा कि क्या यह प्रिंट हो जाएगा? तो उन्होंने ‘ना’ में जवाब दिया.

फिर मैंने उनसे इसका कारण पूछा. तो उन्होंने बताया कि चूँकि आपकी संस्था का नाम ‘मुस्लिम’ है, इसलिए मैं यह प्रिंट नहीं कर सकता. मेरे जिरह करने पर वह कहने लगे कि उन्हें ऊपर से आदेश है कि कोई भी ऐसा प्रिंटिंग का काम नहीं करना है जिसमें ‘मुस्लिम या धर्म’ का नाम जुड़ा हुआ कुछ हो. फिर अपनी बात को करेक्ट करते हुए उन्होंने कहा कि हम किसी भी धर्म से जुड़े हुए चीजों को प्रिंट नहीं करेंगे. हालांकि मैं उनको अपनी संस्था के बारे में बताने की कोशिश की और समझाने की कोशिश की कि यह कोई धार्मिक संस्था नहीं है पर वह मानने के लिए तैयार नहीं थे बल्कि उन्होंने आगे यह भी कहा कि आप वापस चले जाइए आपका काम पूरे नेहरू प्लेस में कोई भी नहीं करेगा. आप बेमतलब के परेशान होंगे.

फिर मैं वापस नेहरू प्लेस से जामिया नगर स्थित ऑफिस में वापस आ गया. यह आज की दिल्ली की दास्तान है और उसकी कड़वी सच्चाई भी. जहां सिर्फ मुस्लिम शब्द सुनकर लोगों में घृणा और नफरत भर जाती है.

मुस्लिम विमेंस फोरम की शुरुआत साल 2000 में हुई. उस समय इसके संस्थापकों में बेगम सईदा खुर्शीद, डॉ सैयदा हमीद, प्रो सुगरा मेहदी इत्यादि जैसी रौशन ख़याल महिलाएं थीं. जिनकी देशभक्ति, संविधान के प्रति निष्ठा, धार्मिक भाईचारे के प्रति प्रतिबद्धता संदेह से परे है.

इनमें से हर एक ने दर्जनों किताबे लिखी, सैंकड़ों पेपर पब्लिश किए और हजारों आर्टिकल न्यूज पेपर और मैगजीन्स में लिखे. और न सिर्फ देशभर में बल्कि दुनिया के अलग-अलग हिस्से में पब्लिक फोरम पर अपनी बात रखी. जिससे शांति और भाईचारे का सन्देश पहुँचाने में मदद मिली. और जिससे इनकी विचारधारा का भी पता चलता है. मुस्लिम विमेंस फोरम हमेशा से महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर कार्य करता रहा है. संस्था ने हमेशा से सेकुलर और डेमोक्रेटिक फ्रेमवर्क में रहकर काम किया है.

मेरी संस्था की खूबसूरती ये है कि इसका नाम ‘मुस्लिम विमेंस फोरम’ है. जिसमें मैं एक मुसलमान पुरुष रेयाज अहमद, मेरी एक सहकर्मी रुथ जोथनपुई है,जो कि एक ईसाई महिला हैं और दूसरी सहकर्मी एक हिंदू महिला नोयना खटोनियार हैं.

क्या गाँधी, नेहरू, मौलाना आज़ाद और अम्बेडकर का हिन्दुस्तान यही है? क्या हमने ऐसे ही हिंदुस्तान की कल्पना की थी? आज ‘आईडिया ऑफ़ इंडिया’ ख़तरे में हैं. वो आईडिया ऑफ़ इंडिया जिसमें सभी मजहबों के मानने वालों को बराबरी का हक है.

(लेखक मुस्लिम विमेंस फ़ोरम में फेलो हैं.)


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