पांच साल क्या होता रहा?


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जम्मू कश्मीर के पुलवामा में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल, सीआरपीएफ के काफिले पर भयावह फिदायीन हमले के बाद का अहम सवाल है कि पिछले पांच साल तक जम्मू कश्मीर में क्या होता रहा, जिसकी अंत परिणति इस हमले के रूप में हुई है? सरकार की सख्त कार्रवाई का अंत नतीजा ऐसा क्यों हुआ है? केंद्र की ओर से नियुक्त वार्ताकार दिनेश्वर शर्मा के प्रयास कहां तक पहुंचे हैं, जो ऐसा कैसे कि कश्मीर का एक स्थानीय नौजवान पाकिस्तान और वहां स्थित आतंकवादी संगठन की मदद से ऐसी भयावह घटना को अंजाम दे गया? राज्यपाल शासन में सुरक्षा चाक चौबंद होने के दावों का क्या हुआ, जो सीआरपीएफ के इतने लंबे काफिले में घुस कर एक फिदायीन ने बस उड़ा दी?

इस बात का ठीकरा मरहूम मुफ्ती मोहम्मद सईद के माथे पर फोड़ना तो बहुत आसान है कि 2003 में उन्होंने कश्मीर में लोगों की भावनाओं से जुड़ने के लिए सेना के काफिले के बीच निजी गाड़ियों के घुसने की अनुमति दी थी. पर यह इस बात का जवाब नहीं होगा कि पांच साल तक आखिर क्या होता रहा? भारत के इतिहास में पहली बार ये पांच साल ऐसे रहे हैं, जब केंद्र और राज्य दोनों के शासन में भारतीय जनता पार्टी रही.

पहले कई बार कांग्रेस का शासन दोनों जगह रहा है पर बीजेपी का शासन पहली बार दोनों जगह था. बीजेपी के शासन पर जोर देने का मतलब इसलिए है क्योंकि कश्मीर बीजेपी का कोर एजेंडा रहा है. जनसंघ की स्थापना के कई मूलभूत सिद्धांतों में एक सिद्धांत जम्मू कश्मीर था. एक विधान, एक निशान और एक प्रधान की लड़ाई लड़ते हुए पंडित श्याम प्रसाद मुखर्जी शहीद हुए थे और तब से भाजपा यह नारा लगाती रही है कि ‘जहां हुए बलिदान मुखर्जी वह कश्मीर हमारा है’.

सो, सवाल है कि जब केंद्र में पूर्ण बहुमत की सरकार बनी और राज्य में भी बीजेपी को सरकार बनाने का मौका मिला तो उसने अपने सात दशक पुराने नारे पर अमल के लिए क्या किया? चुनाव से पहले प्रधानमंत्री पद के दावेदार के तौर पर नरेंद्र मोदी और उनकी पार्टी के दूसरे नेता जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 को खत्म करने, नागरिकता कानून का अलग प्रावधान करने वाले अनुच्छेद 35 ए को खत्म करने, आतकंवादियों की कमर तोड़ देने और उनको मुंहतोड़ जवाह देने की बात करते थे. पर आखिरकार पांच साल में हुआ क्या? पांच साल की अंत परिणति पुलवामा की घटना है.

असल में इन पांच सालों में भाजपा और उसकी सरकार ने कश्मीर के घावों का स्थायी इलाज करने की बजाय उन घावों को कुरेद कुरेद कर छोड़ दिया, जिसकी वजह से कश्मीर में हालात पहले से ज्यादा खराब हुए हैं. सरकार या तो अनुच्छेद 370 और अनुच्छेद 35 ए का मुद्दा नहीं उठाती और अगर उठाया है तो उसका समाधान करती. पर सरकार ने अपनी तरफ से पहल करने की बजाय 35ए को लेकर सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिका का समर्थन किया. एक तरह से सरकार ने यह चाहा कि इस पर राजनीतिक नहीं, बल्कि कानूनी फैसला हो. इस मामले को सरकार को या तो छेड़ना नहीं चाहिए था या छेड़ दिया तो अंतिम मुकाम तक पहुंचाना चाहिए था. इसी तरह अलगाववादियों पर कार्रवाई का मामला है.

सरकार ने राष्ट्रीय जांच एजेंसी से जांच शुरू कराई. अलगाववादियों और उनके हमदर्दों पर कार्रवाई हुई. उनको मिलने वाली मदद का पता लगाया गया और कश्मीर से लेकर दिल्ली तक अनेक जगह छापे पड़े और खाते सील किए गए. पर यह जांच भी किसी नतीजे तक नहीं पहुंची. कोई अलगाववादी नेता जेल में नहीं सड़ रहा है या उस पर निर्णायक कार्रवाई नहीं हुई है.

तीसरा मामला पैलेट गन के इस्तेमाल और सैन्य बलों की सख्त कार्रवाई का है. सरकार ने अपने प्रचार माध्यम से यह माहौल बनवाया कि सैन्य बलों को खुली छूट मिली हुई है और तभी वे इतनी संख्या में आतंकवादी मार रहे हैं, जितने पहले नहीं मारे गए. बीजेपी की अपनी सोशल मीडिया टीम ने प्रचार किया कि अब आतंकवादी भारत की सीमा तक नहीं छू पा रहे हैं, देश के अंदर आना तो दूर की बात है. दुख की बात यह है कि ये सारे सिर्फ प्रचार हैं. अगर सचमुच सरकार ने ऐसा कुछ किया होता तो घाटी के हालात अलग होते. अगर अनुच्छेद 370 औ 35ए खत्म किया गया होता, अलगाववादियों और उनके हमदर्दों को पकड़ कर कश्मीर से दूर कहीं किसी जेल में रखा गया होता और आतंकवादियों पर प्रभावी कार्रवाई हुई होती तो हालात अलग होते.

इसी तरह अपनी सरकार बनाने के लिए चुनी हुई विधानसभा को एक तरह से बंधक बना कर रखा और मनमाने तरीके से उसका इस्तेमाल किया. जम्मू कश्मीर में विधानसभा का चुनाव दिसंबर 2014 में हुआ था पर चुनाव के बाद सरकार नहीं बनी. वहां चार-पांच महीने तक राष्ट्रपति शासन रहा और तब बीजेपी ने भारत के राजनीतिक इतिहास का संभवतः सबसे बेमेल गठबंधन किया. भाजपा नेता मुफ्ती मोहम्मद सईद, उनके परिवार और उनकी पार्टी को आतंकवादियों का हमदर्द बताते थे पर सरकार बनाने के लिए अप्रैल 2015 में उनके साथ तालमेल किया.

अगले साल जनवरी में मुफ्ती मोहम्मद सईद का निधन हो गया तो फिर राष्ट्रपति शासन लग गया और चार महीने तक बीजेपी के नेता बकौल खुद ‘आतंकवादियों की सबसे बड़ी हमदर्द’ मेहबूबा मुफ्ती के हां बोलने का इंतजार करते रहे. फिर अप्रैल में बीजेपी ने मेहबूबा की सरकार बनवाई. फिर अचानक जून 2018 में बीजेपी ने मेहबूबा की सरकार से समर्थन वापस ले लिया. दिसंबर में जब राज्य की तीन पार्टियों पीडीपी, नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस ने सरकार बनाने का प्रयास किया तो केंद्र ने विधानसभा भंग कर दिया. राजनीतिक प्रक्रिया से इस छेड़छाड़ ने भी लोगों का भरोसा कम किया है. बिल्कुल नौसिखुआ अंदाज में कश्मीर मामले को हैंडल करने का नतीजा यह हुआ है कि स्थानीय नौजवानों को भ्रमित करने में पाकिस्तान और उसकी खुफिया एजेंसी को आसानी हो गई है.

साभार: नया इंडिया


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