केंद्र की मनमानी और कोलकाता के सबक


west bengal becomes fourth state to pass resolution against caa

 

संतोष की बात है कि तमाम विपक्षी दलों ने कोलकाता में रविवार को हुई सीबीआई की कार्रवाई की गंभीरता और उसके मतलब को समझा. यहां तक कि ममता बनर्जी की धुर प्रतिद्वंद्वी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी ने भी केंद्रीय एजेंसी के इस कदम का समर्थन नहीं किया. सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी ने तृणमूल कांग्रेस को “भ्रष्ट” बताया, लेकिन साथ ही कहा कि अब पांच साल बाद केंद्र सरकार पश्चिम बंगाल के चर्चित घोटालों के मामले में कार्रवाई का “नाटक” कर रही है. वाम मोर्चे से इतर दलों ने बिना किसी अगर-मगर के ममता बनर्जी के प्रति समर्थन दिखाने में देर नहीं की. शुरुआती तौर पर प्रदेश की इकाई से आए भ्रामक संकेतों के बावजूद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने इस मुद्दे पर ममता बनर्जी के साथ होने का सार्वजनिक एलान किया.

यह एकजुटता इस मौके पर बेहद अहम है. जैसे-जैसे आम चुनाव करीब आ रहा है, नरेंद्र मोदी सरकार संवैधानिक, लोकतांत्रिक, संसदीय और संघीय मर्यादाओं का अधिक बेपर्द उल्लंघन कर रही है. न्यायपालिका सहित अन्य संवैधानिक संस्थाएं इसके आगे या तो बेबस हैं, या फिर वे अपना दायित्व निभाने में अऩिच्छुक नज़र आती हैं. अफसोसनाक है कि सिविल सोसायटी के स्तर पर भी इसके खिलाफ़ कोई प्रभावी गतिविधि देखने को नहीं मिलती. उधर मीडिया के बहुत बड़े हिस्से पर बीजेपी ने अपना वर्चस्व बना रखा है. नतीजतन, भारतीय जनता पार्टी अपनी समर्थक जमातों पर अपना प्रभाव कायम रखने में कमोबेश कायम है.

ऐसे में एकमात्र आशा विपक्षी गोलबंदी ही रह गई है. राज्यों के स्तर पर सिर्फ उनका प्रभावी गठबंधन ही ऐसा सियासी बदलाव ला सकता है, जिससे केंद्र में अपेक्षित बदलाव संभव हो. इसीलिए आज विपक्षी दलों में तालमेल और एकजुटता का भाव गहराना महत्त्वपूर्ण हो गया है. विपक्षी नेताओं में इस समझ पर सहमति के संकेत हैं कि संवैधानिक व्यवस्था संकट में है. सरकारी एजेंसियों के खुले दुरुपयोग और मूलभूत लोकतांत्रिक मर्यादाओं के बेहिचक उल्लंघन के कारण ये स्थिति पैदा हुई है. कोलकाता में रविवार शाम जैसी घटनाएं हुईं, वो भी इसी स्थिति की एक मिसाल हैं.

ऐसे यह अपेक्षा स्वाभाविक है कि विपक्षी दल ऐसी रणनीति बनाएं, जिससे इस स्थिति को पलटा जा सके. गुजरे महीनों में अलग-अलग राज्यों में ऐसी रणनीतियों के उभरने के संकेत मिले हैं. कभी उत्तर प्रदेश में धुर विरोधी रही समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी का लोक सभा चुनाव के लिए गठबंधन करने का एलान इसका एक उदाहरण है. कर्नाटक में कांग्रेस और जनता दल (एस) का साथ आना भी इसी रूझान की मिसाल है. मगर अब भी उप्र सहित कई राज्यों में संपूर्ण विपक्षी एकता का लक्ष्य दूर नज़र आता है. उम्मीद की जा सकती है कि कोलकाता की ताजा घटनाओं के बाद विपक्षी नेता इस राह में मौजूद अड़चनों को दूर करने की जरूरत को बेहतर ढंग से महसूस करेंगे.

आज यह समझने की आवश्यकता है कि केंद्र सरकार जिस तरह निरंकुश ढंग से काम करती दिखती है, वह एक या दो नेताओं की प्रवृत्ति का परिणाम भर नहीं है. वे नेता या आज की सत्ताधारी पार्टी इसलिए ऐसा कर पा रही है, क्योंकि भारतीय समाज पर सदियों तक वर्चस्व रखने वाली निरंकुश ताकतें उनके पक्ष में गोलबंद हैं. ये वो सामाजिक शक्तियां हैं, जिनकी बेखौफ़ मनमानी पर संवैधानिक व्यवस्था से अंकुश लगा. लोकतांत्रिक प्रक्रिया के आगे बढ़ने से समाज पर उनके वर्चस्व को चुनौती मिली. वो शक्तियां आज भारतीय जनता पार्टी का मुख्य सामाजिक या वोट आधार हैं. इन ताकतों को उम्मीद है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी उनके पुराने “अच्छे दिन” को लौटा लाएगी. यह साफ है कि पिछले पौने पांच साल के अनुभव से ये सामाजिक ताकतें मायूस नहीं हुई हैं. बल्कि कहा जा सकता है कि वे उत्साहित हैं.

इसीलिए आर्थिक एवं प्रशासन संबंधी विभिन्न मोर्चों एवं विकास संबंधी वादों पर लगभग पूरी नाकामी के बावजूद अनेक जन-समूहों में नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता जस-की-तस है. वोटरों का एक बड़ा हिस्सा आज भी उनके और उनकी पार्टी के हक में गोलबंद है. इस हकीकत को नज़रअंदाज कर बीजेपी विरोधी कोई रणनीति कामयाब नहीं हो सकती. हाल के तमाम चुनावों और उप-चुनाव नतीजों पर गौर करें, तो यह साफ हो जाता है कि बीजेपी के आधार वाले ज्यादातर राज्यों में आज भी विपक्षी पार्टियां अकेले चलते हुए बीजेपी को निर्णायक ढंग से नहीं हरा सकतीं. ऐसा सिर्फ व्यापकतम गठबंधन के साथ ही संभव है.

2014 के आम चुनाव के साथ भारतीय राजनीति के संदर्भ बिंदु बदल गए. विपक्षी दलों ने आरंभिक दौर में एक-दो अपवादों को छोड़कर ज्यादातर मौकों पर इस सच को नजरअंदाज किया. नतीजा 20 से ज्यादा राज्यों में बीजेपी का शासन कायम होने के रूप में आया. कुछ राज्यों में सत्ता हथियाने की कोशिश में बीजेपी ने सही-गलत या बुनियादी मर्यादाओं का तनिक भी ख्याल नहीं किया. राष्ट्रपति शासन लागू करने में स्थापित प्रक्रियाओं की अनदेखी की. जोड़-तोड़ का खुलेआम सहारा लिया. केंद्रीय एजेंसियों का मनमाना इस्तेमाल इसी परिघटना का हिस्सा है. इसी के तहत संस्थाओं की स्वायत्तता को खतरे में डाला गया है. लेकिन यह सब उन सामाजिक वर्गों की मंशा और मर्जी के मुताबिक है, जिनकी नुमाइंदगी बीजेपी करती है.

इसलिए यह सवाल अहम रहा है कि क्या विपक्ष बीजेपी को प्रभावी चुनौती दे पाएगा? हाल में संकेत सकारात्मक रहे हैं. कोलकाता की घटनाओं पर जिस फुर्ती से विपक्षी दल एकजुट हुए, उससे ये उम्मीद बेशक और मजबूत हुई है.


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