लोहिया की विचारधारा के सच्चे उत्तराधिकारी नरेंद्र मोदी!


narendra modi, true heirs of Lohia ideology

 

2 मई को राजेंद्र राजन ने एक लेख लिखा है जिसका शीर्षक है ‘मोदी, लोहिया को चुनावी मौसम में क्यों भुनाना चाहते हैं?’

वे इस लेख में लिखते हैं, ‘प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मार्च में एक ब्लॉग लिख कर कहा था कि अगर डॉक्टर राममनोहर लोहिया जीवित होते, तो उनकी सरकार पर गर्व करते. मोदी और उनकी पार्टी, लोहिया की राजनीति और विचारधारा के वारिस नहीं हैं. इसलिए मोदी ने जो कहा है वह एक असामान्य या विचित्र दावा ही कहा जाएगा. सवाल यह है कि आखिर लोहिया को अपने पाले में दिखाने की जरूरत मोदी को इस वक्त क्यों महसूस हुई, जब आम चुनाव सिर पर था. क्या इसका चुनाव से कोई वास्ता हो सकता है? क्या पता हो! मोदी जैसे राजनीतिक दांव-पेच के धुरंधर खिलाड़ी ने इस वक्त अचानक लोहिया का नाम उछाला है तो चुनावी रणनीति से इसका कुछ संबंध हो भी सकता है.’

इससे पहले सोशलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष और दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी के अध्यापक डॉक्टर प्रेम सिंह ने इसी विषय पर लिखे अपने लेख ‘और अंत में लोहिया!’ में लिखा था, ‘इस बार लोहिया जयंती के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा अपने ब्लॉग पर लोहिया को याद किया जिस पर मेरे एक मित्र ने ध्यान दिलाया और कहा कि मुझे इसका जवाब लिखना चाहिए. मैंने मित्र से पूछा कि मोदी पिछले पांच सालों से गांधी, आंबेडकर, पटेल, भगत सिंह जैसी मूर्धन्य हस्तियों के बारे में जो कहते आ रहे हैं, क्या उनका जवाब दिया जा सकता है? क्या जवाब दिया भी जाना चाहिए? मेरे मित्र बोले, लेकिन डॉक्टर साहब (लोहिया) की बात अलग है; वे अभी तक बचे हुए थे; मोदी को उन पर कब्जा नहीं करने देना चाहिए!’

मैंने कहा इस विवाद में पड़ना मोदी की पिच पर खेलना है, जिससे मैं भरसक बचने की कोशिश करता रहा हूं. मित्र थोड़ा नाराज हो गए. मैंने उनसे निवेदन किया कि मोदी और आरएसएस न गांधी, आंबेडकर, पटेल, भगत सिंह आदि पर और न ही लोहिया पर कब्जा जमा सकते हैं. जो व्यक्ति या संगठन न आज़ादी के संघर्ष के मूल्यों को मानता हो और न संविधान के मूल्यों को, वह भला स्वतंत्रता के संघर्ष में तपी इन हस्तियों को कैसे अपना सकता है? दोनों के बीच मौलिक विरोध है. मोदी और आरएसएस केवल उनका सत्ता के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं, और वही कर रहे हैं. लोहिया के बारे में या बचाव में मोदी या आरएसएस के संदर्भ में कुछ भी कहने का औचित्य नहीं है.

मित्र ने हामी भरी लेकिन मोदी का खंडन करने की बात पर अड़े रहे. हारकर मैंने उनसे कहा कि लोहिया के अपहरण के लिए मोदी और आरएसएस को दोष देने का ज्यादा औचित्य नहीं है. दोष उन ‘समाजवादियों’ का ज्यादा है जो आरएसएस/बीजेपी परस्त नेताओं की अगुआई में लोहिया जयंती अथवा पुण्यतिथि के अवसर पर कभी गृहमंत्री राजनाथ सिंह और कभी राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को मुख्य अतिथि के रूप में बुला कर लोहिया का व्यापार करते हैं!

मित्र सचमुच खिन्न हुए और यह कहते हुए फोन रख दिया कि ऐसे लोग निश्चित रूप से सफल हो गए हैं. देख लेना इस बार अगर मोदी जीतेंगे तो उनकी सरकार लोहिया को जरूर भारत-रत्न देगी. वह लोहिया का अभी तक का सबसे बड़ा अवमूल्यन होगा. बहरहाल, सुबह अखबार देखा तो मोदी के ब्लॉग पर लोहिया के बारे में लिखी गई टिप्पणी पर अच्छी-खासी खबर पढ़ने को मिली. पता चला कि मोदी ने लोकसभा चुनावों के मद्देनज़र अंत में लोहिया को हथियार बना कर विपक्ष पर प्रहार किया है. पूरी टिप्पणी में बड़बोलापन और खोखलापन भरा हुआ है. एक स्वतंत्रता सेनानी और गरीबों के हक़ में समानता का संघर्ष चलाने वाले दिवंगत व्यक्ति का उनकी जयंती के अवसर पर चुनावी फायदे के लिए इस्तेमाल अफसोस की बात है. तब और भी ज्यादा जब ऐसा करने वाला शख्स देश का प्रधानमंत्री हो! जैसा कि मैंने ऊपर कहा है, लोहिया की विचारधारा, सिद्धांतों, नीतियों पर मोदी के ब्लॉग के संदर्भ में चर्चा करने की जरूरत नहीं है. केवल उनके गैर-कांग्रेसवाद, जो मोदी के मुताबिक उनके मन-आत्मा में बसा हुआ था, पर थोड़ी बात करते हैं. यह पूरी तरह गलत है कि लोहिया के ‘मन और आत्मा’ में कांग्रेस-विरोध बसा था. मोदी ने नॉन-कांग्रेसिज्म को अपने ब्लॉग में एंटी-कांग्रेसिज्म कर दिया है.

इसके अलावा कोलकाता के एक प्रतिष्ठित समाजवादी परिवार से जुड़ी सामाजिक कार्यकर्त्ता रुचिरा गुप्ता ने भी इसी विषय पर एक लेख लिखा है जिसका शीर्षक है, ‘प्रधानमंत्री श्री मोदी, राममनोहर लोहिया बीजेपी सरकार पर फ़ख़्र नहीं करते क्यूंकि वह फासीवादी विरोधी थे.’

वह लिखती हैं, ’26 मार्च को, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने एक ब्लॉग पोस्ट में दावा किया कि गांधीवादी समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया (यदि जीवित होते तो) तो उन्हें बीजेपी सरकार पर गर्व होता. शायद प्रधानमंत्री को इस बात की जानकारी नहीं है कि लोहिया उग्र रूप से फासीवादी विरोधी, साम्राज्यवाद-विरोधी और अधिनायकवाद के विरोधी थे, और उन्होंने हमेशा इन वादों को खारिज किया.

हमारे समजवादी मित्रों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से ये शिकायत है कि उन्होंने उनके नेता राममनोहर लोहिया के बारे में अपने ये उद्गार क्यूँ व्यक्त किए? और चूंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी डॉक्टर लोहिया की राजनीति और विचारधारा के वारिस नहीं हैं, इसलिए उन्हें प्रधानमंत्री मोदी का यह दावा असामान्य या विचित्र मालूम होता है. वे सवाल करते हैं कि ‘आखिर (उन्हें) लोहिया को अपने पाले में दिखाने की जरूरत इस वक्त क्यों महसूस हुई? और इसका जवाब देते हुए ये लोग खुद ही कहते हैं कि ‘क्योंकि वे लोग (मोदी और उनकी पार्टी), लोहिया की राजनीति और विचारधारा के वारिस नहीं हैं इसलिए वे ऐसा नहीं कर सकते.’

मेरी राय में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया को श्रद्धांजलि देते हुए जो श्रेय लेने की कोशिश की है और कहा है यदि वे जीवित होते तो उनकी सरकार पर गर्व करते. उसमें कुछ भी ग़लत नहीं है. दरअसल मोदी ने ऐसा क्यूँ कहा उसके कुछ ऐतिहासिक कारण हैं और उनपर विस्तार से चर्चा करने की ज़रूरत है. 50 और 60 के दशक में डॉक्टर राममनोहर लोहिया पर अक्सर यह आरोप लगे कि उन्होने पंडित नेहरू और कांग्रेस पार्टी के अंध विरोध में हिन्दू सांप्रदायिक शक्तियों के साथ सांठगांठ की और गैर-कांग्रेसवाद के नाम पर सांप्रदायिकता को बढ़ावा दिया जिससे जनसंघ और बाद में उसकी परवर्ती बीजेपी मजबूत हुई और 1967 तथा 1977 में जनसंघ के लोगों ने ही गैर कांग्रेसवाद के नाम का सबसे ज्यादा फायदा उठाया और अपना राजनीतिक आधार मज़बूत किया.

1934 से लेकर 1947 तक की यदि डॉक्टर राममनोहर लोहिया की राजनीति और उनके विचारों और सिद्धांतों पर गौर करें तो वे कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के ज़िम्मेदार नेता होने के साथ साथ कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेता भी थे. कांग्रेस की विदेश नीति बनाने के साथ साथ सांप्रदायिकता के सवाल पर उन्होंने कांग्रेस पार्टी की रीति-नीति और सिद्धांत को भी बहुत मुखर रूप से पेश किया और राष्ट्रीय एकता और सांप्रदायिक सदभाव को राष्ट्रीय आंदोलन का एक प्रमुख स्तंभ बताया. मुस्लिम लीग के द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत की पुरजोर मुखालिफत करते हुए डॉक्टर लोहिया ने मौलाना अबुल कलाम आजाद और खान अब्दुल गफ्फार खान जैसे मुस्लिम कांग्रेसी नेताओं का समर्थन किया और उनके नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन को मजबूत किया.

सही मायनों में वह एक सच्चे राष्ट्रवादी नेता थे और 1947 में भारत विभाजन के बाद हुए सांप्रदायिक दंगों के दौरान कई बार उन्होंने अपनी जान जोखिम में डालकर मुसलमानों की जान बचाई. लेकिन 1947 में सोशलिस्ट पार्टी के कानपुर सम्मेलन के बाद जिसकी अध्यक्षता स्वयं डॉक्टर लोहिया ने की थी और जिस सम्मेलन के बाद समाजवादियों ने कांग्रेस से अलग होने का फैसला किया, सरहदी गांधी, खान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान को छोड़कर लगभग सभी तत्कालीन कांग्रेसी नेताओं के बारे में डॉक्टर लोहिया की राय बदलने लगी.

जून 1947 में कांग्रेस कार्यसमिति की उस बैठक के बाद जिसमें देश के विभाजन को स्वीकार किया गया और जिसमें जयप्रकाश नारायण और लोहिया भी विशेष आमंत्रित सदस्य के रूप में शामिल हुए थे, कांग्रेस पार्टी के बारे में डॉक्टर लोहिया की राय बिलकुल बदल गई. देश विभाजन और आजादी के 7-8 माह बाद समाजवादियों ने कांग्रेस पार्टी छोड़ दी और डॉक्टर लोहिया कांग्रेस पार्टी और सरकार के विरोध में अब खुलकर आ गए. 1952 के आम चुनाव के दौरान डॉक्टर लोहिया ने अपने पूर्व नेता जवाहरलाल नेहरू और कांग्रेस पार्टी से इतने बदजन हो गए कि फूलपुर में वह पंडित नेहरू के विरोध में खड़े हिंदू महासभा के लोकसभा उम्मीदवार प्रभुदत्त ब्रह्मचारी तक का समर्थन करने लगे.

1956 में ‘गिल्टी मैन ऑफ़ इंडियाज़ पार्टीशन’ या ‘भारत विभाजन के गुनहगार’ पुस्तक लिखते हुए जो मूलत: मौलाना अबुल कलाम आज़ाद की पुस्तक ‘इंडिया विंस फ्रीडम’ की समीक्षा है, डॉक्टर लोहिया ने मौलाना आज़ाद के खिलाफ गंभीर आरोप लगाए हैं और कई जगह उन्हें झूठा करार दिया है. विभाजन के सात कारण गिनाते हुए डॉक्टर लोहिया उनमें से छह को ब्रतानी-अंग्रेजी चाल, और कांग्रेसी नेताओं और हिंदू सांप्रदायिकता को जिम्मेदार ठहराया है और विभाजन का केवल एक कारण मुस्लिम लीग की राजनीति को बताया है.

हालांकि 1950 में एक भाषण देते हुए जो बाद में ‘हिन्दू बनाम हिन्दू’ के रूप में प्रकाशित हुआ डॉक्टर लोहिया कहते हैं, ‘भारतीय इतिहास की सबसे बड़ी लड़ाई हिन्दू धर्म में उदारवाद और कट्टरता की लड़ाई है और उसका अंत अभी दिखाई नहीं पड़ता.’ इसी भाषण में वह आगे कहते हैं कि ‘हिन्दू धर्म में कट्टरपंथी जोश बढ़ने पर हमेशा देश सामाजिक और राजनीतिक दृष्टि से टूटा है और भारतीय राष्ट्र में, राज्य और समुदाय के रूप में बिखराव आया है. मैं नहीं कह सकता कि ऐसे सभी काल जिनमें देश टूटकर छोटे-छोटे राज्यों में बंट गया, कट्टरपंथी प्रभुता के काल थे, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि देश मैं एकता तभी आई जब हिन्दू दिमाग पर उदार विचारों का प्रभाव था.’

वह आगे कहते हैं, ‘महात्मा गाँधी की हत्या, हिन्दू-मुस्लिम झगड़े की घटना उतनी नहीं थी जितनी हिन्दू धर्म की उदार कट्टरपंथी धाराओं के युद्ध की. इसके पहले कभी किसी हिन्दू ने वर्ण,स्त्री,संपत्ति और सहिष्णुता के बारे में कट्टरता पर उतनी गहरी चोट नहीं की थी.’

मगर 1962 में तीसरे आम चुनाव और भारत पर चीन के हमले के बाद तो लोहिया पंडित नेहरू और उनकी कांग्रेसी सरकार को राष्ट्रीय शर्म की सरकार कहने लगते हैं और कांग्रेस पार्टी को सत्ता से हटाने के लिए वह ‘शैतान से भी हाथ मिलाने’ को तैयार हो जाते हैं. 1963 में उत्तर प्रदेश में हुए तीन उप चुनावों अमरोहा, जौनपुर और फ़र्रुख़ाबाद में तो डॉक्टर लोहिया ने न केवल जनसंघ का समर्थन लिया बल्कि जौनपुर में तो जनसंघ के तत्कालीन अध्यक्ष दीनदयाल उपाध्याय के समर्थन में चुनाव सभाओं को सम्बोधित भी किया. बदले में दीनदयाल उपाध्याय और नानाजी देशमुख ने फ़र्रुख़ाबाद में डॉक्टर लोहिया के समर्थन में चुनाव प्रचार किया और यहीं से जनसंघ का समर्थन लेने और देने की उनकी राजनीति की शुरुआत होती है.

इसी वर्ष कलकत्ते में अपनी पार्टी के राष्ट्रीय सम्मेलन में डॉक्टर लोहिया ने ‘कांग्रेस हटाओ देश बचाओ’ और गैर-कांग्रेसवाद का नारा दिया. उन्होंने सभी विपक्षी दलों जैसे जनसंघ, स्वतंत्र पार्टी, रिपब्लिकन पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टियों से ऐसी रणनीति बनाने का आह्वान किया ताकि आगामी चुनाव में कांग्रेस विरोधी मत बंटने न पाए और कांग्रेस हार जाए. कलकत्ता के इसी सम्मेलन में उनके दो प्रमुख शिष्यों मधु लिमये और जार्ज फ़र्नांडीज़ ने डॉक्टर लोहिया की पुरजोर मुखालिफत की. मधु लिमये तो विरोध स्वरूप सम्मेलन में शामिल तक नहीं हुए लेकिन उन्होंने जार्ज फ़र्नांडीज़ के जरिए कहलवाया कि गैर-कांग्रेसवाद के नाम पर सांप्रदायिक शक्तियों का सहयोग लेने से डॉक्टर लोहिया का मुंह काला हो जाएगा.

1964 में सोशलिस्ट पार्टी और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी का विलय होकर संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी (संसोपा) का गठन होने और छह माह बाद ही पुन: प्रसोपा का पुनर्जन्म हो जाने में डॉक्टर लोहिया की जनसंघ के साथ सहयोग की नीति भी एक कारण थी.

डॉक्टर लोहिया ने 1967 के आम चुनावों तक इस नीति को ज़ोरदार ढंग से चलाया. 1967 के आम चुनावों में वामपंथी दलों के अलावा किसी अन्य दल से तो संसोपा का चुनावी गठबंधन या तालमेल नहीं हो पाया लेकिन इन चुनावों के फ़ौरन बाद जब 9 राज्यों में गैर कांग्रेसी सरकार बनीं तो उनमें जनसंघ के साथ दोनों सोशलिस्ट पार्टियां, स्वतंत्र पार्टी और वामपंथी दल शामिल हुए. खासकर उत्तर प्रदेश, बिहार और मध्य प्रदेश में संसोपा के लोग जनसंघ के लोगों के साथ मंत्रीमंडल में शामिल हुए. हालांकि ज़्यादातर राज्यों में यह मंत्रीमंडल एक न्यूनतम साझा कार्यक्रम के आधार पर बने थे लेकिन बहुत सारे ऐसे नीतिगत और सिद्धांत के मसले थे जिस पर संसोपा ने अपने सिद्धांतों के साथ समझौता किया मसलन बिहार और उत्तर प्रदेश में उर्दू को दूसरी सरकारी ज़बान बनाये जाने और उत्तर प्रदेश में कालागढ़ में मजदूरों पर गोली चलाये जाने की घटना जिसपर संसोपा ने सरकार से समर्थन वापस नहीं लिया।

यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि 1962 में चीन द्वारा भारत पर हमले के बाद डॉक्टर लोहिया ने जनसंघ के उस प्रस्ताव का समर्थन किया जिसमें भारत द्वारा परमाणु बम बनाए जाने कि बात कही गयी थी. 12 अप्रैल 1964 को डॉक्टर लोहिया और जनसंघ के नेता दीन दयाल उपाध्याय ने भारत-पाक महासंघ बनाए जाने को लेकर एक साझा बयान जारी किया. इसी बयान में कहा गया कि ‘हाल ही में पूर्वी पाकिस्तान में बड़े पैमाने पर हुए दंगों के बाद दो लाख से भी ज्यादा हिन्दू और दूसरे अल्पसंख्यक भारत आने पर मजबूर हुए हैं. पूर्वी बंगाल में हुई घटनाओं से भारतीयों का क्रुद्ध होना स्वाभाविक है. हमारा यह निश्चित मत है कि पाकिस्तान में हिन्दुओं और अन्य अल्पसंख्यकों के जीवन और संपत्ति कि सुरक्षा कि गारंटी की ज़िम्मेदारी भारत सरकार की है और उसे इस सम्बन्ध में सभी ज़रूरी और कानूनी क़दम उठाने चाहिए.’

यही वह दौर था जब डॉक्टर लोहिया ने आरएसएस और जनसंघ के शिविरों में जाना शुरू किया और उन्हें देशभक्ति के ‘सर्टिफिकेट’ दिए और भाषा के सवाल खासकर हिंदी के समर्थन के सवाल पर तो उनकी जमकर तारीफ की. दाढ़ी-चोटी के सवाल पर और बीएचयू तथा एएमयू यानि बनारस विश्वविद्यालय से हिन्दू और अलीगढ़ विश्वविद्यालय से मुस्लिम शब्द हटाए जाने की उनकी मांग को उनके विरोधियों ने सांप्रदायिक करार दिया.

1960 के दशक में अरब-इजराइल युद्ध के दौरान भी डॉक्टर लोहिया का नजरिया जनसंघ के ही ज्यादा नज़दीक था. जनसंघ इस मुद्दे पर पूरी तरह इजराइल के साथ था और सरकार पर भी इजराइल का पक्ष लेने के लिए दबाव बना रहा था जबकि कांग्रेस पार्टी की नीति राष्ट्रीय आन्दोलन के समय से फलस्तीन का समर्थन करने की रही थी. इस विषय पर डॉक्टर लोहिया अपने अज़ीज़ दोस्त सिब्ते नकवी की शंकाओं का भी निवारण करने में विफल रहे (लोकसभा में लोहिया खंड 15 पृष्ठ 232-242 में विस्तृत पत्राचार का अवलोकन करें).

1967 के आम चुनावों के दौरान डॉक्टर लोहिया पर यह भी आरोप लगाया गया कि वह मुसलमान विरोधी हैं और इसीलिए वह जनसंघ का साथ दे रहे हैं और यह कि अगर संसोपा की सरकार बनी तो वह कुरान पर पाबंदी लगा देगी और बल पूर्वक मुस्लिम पर्सनल लॉ को खत्म कर देगी. चुनावों के दौरान ही ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस-ए-मशावरत के अध्यक्ष और उत्तर प्रदेश के एक पूर्व सोशलिस्ट नेता डॉक्टर ऐजे फरीदी ने डॉक्टर लोहिया को एक पत्र लिखा और कहा कि वह तो संसोपा के उम्मीदवारों का समर्थन करना चाहते हैं लेकिन उन्हें मुस्लिम पर्सनल लॉ के बारे में अपना रुख स्पष्ट करना चाहिए.

इसका जवाब देते हुए डॉक्टर लोहिया ने सारनाथ से 25 जनवरी 1937 को डॉक्टर फरीदी को एक पत्र लिखा,

‘प्रिय डॉक्टर फरीदी,आपका ख़त मिला.यह बात सही है कि मैंने एक ही सिविल लॉ की बात कही है और मुसलमानों के निजी कानून को जैसे हिन्दुओं या दीगर लोगों के बदलने की बात कही है. यह ग़लत है कि मैंने बल के इस्तेमाल की बात कही है. जनराज अथवा जम्हूरियत का मतलब है लोक की रजामंदी.जम्हूरियत में कानून लोक की रजामंदी से बनता-बदलता है. ज़ाहिर है कि इसमें मुसलमानों की रजामंदी भी शामिल है. यह सवाल ही नहीं उठता कि मेरे जैसा जनराज का हिमायती मनमानी या जबरदस्ती का इस्तेमाल करेगा.जो कानून बनाएगा वह लोक कि रजामंदी से ही बनाएगा.

आपका
राममनोहर लोहिया
(लोकसभा मैं लोहिया भाग-१३ प्रष्ठ ३५०-३५२)

1967 में ही राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव हुआ. इस चुनाव में कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार डॉक्टर जाकिर हुसैन थे. विपक्षी दलों ने जिनमें डॉक्टर लोहिया भी शामिल थे जाकिर हुसैन के मुकाबले सुब्बाराव को अपना उमीदवार घोषित किया और उनका समर्थन किया. जबकि राजनीति से अवकाश ले चुके और उस समय के सर्वोदय नेता जयप्रकाश नारायण ने जाकिर हुसैन का समर्थन किया था.

पर साथ ही यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि जयप्रकाश नारायण ने 1974 में बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री अब्दुल ग़फ़ूर के तथाकथित भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ जो आंदोलन शुरू किया जो ‘बिहार आंदोलन’ या ‘जेपी आंदोलन के नाम से भी जाना गया और जिस पर आरएसएस और संघ परिवार की कड़ी पकड़ थी उस आंदोलन के दौरान जेपी ने बड़े फ़क़्र से कहा था ‘आरएसएस को फ़ासिस्ट और साम्प्रदायिक बताया जा रहा है. अगर आरएसएस फ़ासिस्ट और साम्प्रदायिक है तो मैं भी फ़ासिस्ट और साम्प्रदायिक हूं’.

इस समय इन सब बातों को लिखने का मक़सद ये है कि समाजवादियों को हमेशा गर्व से अपने नेताओं को सिर्फ महिमामंडित करने का काम ही नहीं करना चाहिए बल्कि उन्होंने जो ग़लतियां या ‘पाप’ किए हैं उनको भी स्वीकार करना चाहिए और उसका प्रतिवाद करना चाहिए और सिर्फ़ अपने विरोधियों पर यह आरोप लगाकर संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए कि वो समाजवादी नेताओं को उद्धृत करके उनका इस्तेमाल कर रहे है.

इसी क्रम में ये भी याद रखना चाहिए कि वामपंथियों और समाजवादियों ने संविधान सभा के गठन का न सिर्फ विरोध किया बल्कि उसका बहिष्कार भी किया था और जयप्रकाश नारायण ने तो यहां तक कहा था कि ‘क्यूंकि ये संविधान सभा ‘एडल्ट फ्रैंचाइज़’ यानि बालिग मताधिकार से चुनी गयी संविधान सभा नहीं है इसलिए इसके द्वारा तैयार संविधान वैध नहीं है.’

मज़ेदार बात ये है कि जिस संविधान का समाजवादियों और वामपंथियों ने जमकर विरोध किया था और जिसे गुलामी का दस्तावेज बताया था, ठीक दो वर्ष बाद उसी संविधान की शपथ लेकर आम चुनावों में हिस्सा लिया था. इन चुनावों में अपेक्षा अनुसार नतीजे न मिलने पर जयप्रकाश तो संसदीय और दलगत राजनीति से ही अलग हो गए और 22 वर्ष बाद उस समय संसदीय और दलगत राजनीति में वापस आए जब उनके आज के ‘मानस पुत्रों’ ने उन्हें अपने कन्धों पर उठा लिया था. उस समय यानि 1974 में जयप्रकाश नारायण ने श्रीमती इंदिरा गांधी और उनकी कांग्रेस पार्टी का विरोध करते हुए न केवल आरएसएस को देशभक्त बताया था बल्कि सेना और अर्ध सैनिक बलों से बगावत करने की अपील तक कर डाली थी. जिसके कारण देश में आपातकाल लगाना पड़ा.

डॉक्टर प्रेम सिंह ने अपने लेख में लिखा है, ‘एक स्वतंत्रता सेनानी और गरीबों के हक़ में समानता का संघर्ष चलाने वाले दिवंगत व्यक्ति का उनकी जयंती के अवसर पर चुनावी फायदे के लिए इस्तेमाल अफसोस की बात है. तब और भी ज्यादा जब ऐसा करने वाला शख्स देश का प्रधानमंत्री हो! यह पूरी तरह गलत है कि लोहिया के ‘मन और आत्मा’ में कांग्रेस-विरोध बसा था. मोदी ने नॉन-कांग्रेसिज्म को अपने ब्लॉग में एंटी-कांग्रेसिज्म कर दिया है.’

प्रेम सिंह नरेंद्र मोदी द्वारा अपने ब्लॉग में लोहिया की ‘नॉन-कांग्रेसिज्म’ की राजनीति को ‘एंटी-कांग्रेसिज्म’ कहने पर आप अपना विरोध जता सकते हैं, लेकिन जिन बैसाखियों के दम पर मोदी और उनके संघ परिवार ने देश की सत्ता पर कब्जा किया है उन्हें कब तक दोष मुक्त करते रहेंगे? और यह विधवा विलाप करते रहेंगे की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनका परिवार उनके नेताओं का इस्तेमाल कर रहे हैं और उनकी विरासत पर कब्जा कर रहे हैं?

वक़्त का तक़ाज़ा है की जिन समाजवादी नेताओं ने अंध कांग्रेसवाद और नेहरू-गांधी परिवार के विरोध के नाम पर जिन सपोलों को दूध पिलाने का काम किया और जिन्हें ‘राष्ट्र्वाद’ के सर्टिफ़िकेट दिए उसपर थोड़ा ‘आत्ममंथन’ और ‘आत्मचिंतन’ किया जाए. क्या व्यक्तिगत विरोध के नाम पर हम अपने देश के वजूद उसके संविधान से उसकी एकता से और उसकी सैंकड़ों साल पुरानी सभ्यता के वजूद से भी समझौता कर लेंगे?

आज संघ परिवार और उसके कारिंदे देश की सत्ता पर काबिज हैं और दोबारा अगले पांच तक के लिए काबिज होने की कोशिश कर रहे हैं तो इसकी जिम्मेदारी उन समाजवादियों पर है जिन्होंने संघ परिवार का राजनीतिक छुआछूत ख़त्म कर 1967, 1977 और 1989 में उन्हें सत्ता में भागीदारी दी और ‘क्रेडिबिलिटि’ दी और 1992 में बाबरी मस्जिद ढाए जाने के बाद जॉर्ज फर्नांडिस, नीतीश कुमार, शरद यादव और रामविलास पासवान सरीखे तथाकथित समाजवादियों ने आरएसएस के सामने नतमस्तक होकर उन्हें लोहिया और जेपी का इस्तेमाल करने का मौका दिया.


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