राजनीतिक परिवार के मतभेदों को उभारती है फिल्म ‘कसाई’- गजेन्द्र


interview of gajendra shrotriya on film kasai

 

पिछले कुछ वर्षों में हिन्दुस्तानी सिनेमा जगत में कई महत्वपूर्ण बदलाव देखने को मिले हैं. आज उन विषयों पर, उन तबकों की कहानियों पर मुख्य धारा में फ़िल्में बन रही हैं, जो लम्बे समय पर हाशिये पर रही हैं.

आज ग्रामीण परिवेश, राजनीतिक परिवेश, आदिवासी पृष्ठभूमि पर आधारित फ़िल्में बहुत अच्छे स्तर पर बन रही हैं और दर्शकों के द्वारा सराही जा रही हैं. सैराट, न्यूटन, पटाखा, मुल्क जैसी फ़िल्मों ने यह स्थापित किया है कि अगर हमारी कहानियों में दम है तो फ़िल्में कारोबार भी करेंगी और महत्वपूर्ण संदेश भी देंगी.

इस बदलाव के पीछे सबसे बड़ा कारण रहा है हिंदी सिनेमा जगत में छोटे शहरों के लेखकों, निर्देशकों का भागीदार होना. छोटे शहरों, गांव से आए लेखक, निर्देशक अपनी माटी की कहानी कहने को बेताब रहते हैं. उन्हें जब मौक़ा मिलता है वे ये सिद्ध करते हैं कि भारतीय फ़िल्में वैचारिक स्तर पर किसी भी तरह से कमज़ोर नहीं हैं.

फ़िल्मकार गजेन्द्र सिंह श्रोत्रिय एक ऐसे ही फ़िल्म निर्देशक हैं, जिन्होंने अपनी फ़िल्म ‘कसाई’ के ज़रिए कई ऐसे सवाल उठाए हैं जो आज समाज और समय की ज़रूरत हैं. फ़िलहाल उनकी फ़िल्म ‘कसाई’ विभिन्न फ़िल्म फेस्टिवल्स में दिखाई जा रही है. हमने इसी फ़िल्म के सिलसिले में गजेन्द्र जी से बातचीत की. पेश है इस बातचीत से जुड़े कुछ रोचक एवं प्रेरक अंश.

फ़िल्म ‘कसाई’ के विषय में कुछ बताइए, किस तरह की ये फ़िल्म है?

फ़िल्म ‘कसाई’ साहित्यकार चरण सिंह पथिक की कहानी ‘कसाई’ पर आधारित है. मैं अपने मित्र और फ़िल्म लेखक रामकुमार सिंह के माध्यम से चरण सिंह पथिक जी से मिला था.

मुझे पथिक जी की कहानियां बहुत पसंद थीं. जब मैंने कहानी ‘कसाई’ पढ़ी तो ये तय कर लिया कि इस पर तो फ़िल्म बनाकर रहूंगा. इसका विषय मुझे बहुत अच्छा लगा. 2012 में आयोजित जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में चरण सिंह पथिक जी से मिलकर उनकी कहानी पर फ़िल्म बनाने की अनुमति ले ली थी. फिर कुछ समय तक इस कहानी पर आधारित स्क्रिप्ट लिखी.

स्क्रिप्ट लिखने के बाद फंडिंग की लम्बी जद्दोजहद रही. आख़िरकार दोस्तों से पैसे जुटाकर फ़िल्म की शूटिंग शुरू की और अब फ़िल्म तैयार है. पिछले दिनों फ़िल्म को गंगानगर इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल और जयपुर इंटरनेशनल फ़िल्म फेस्टिवल में रिलीज़ किया गया, जहां इसे बहुत अच्छी प्रतिक्रिया मिली. फ़िल्म में मुख्य भूमिका अभिनेता रवि झांकल, अभिनेत्री मीता वशिष्ठ ने निभाई है.

फ़िल्म की शूटिंग राजस्थान के करौली ज़िले के रौंसी गांव में संपन्न हुई है, जहां के रहने वाले साहित्यकार चरण सिंह पथिक हैं.

बात अगर फ़िल्म ‘कसाई’ के विषय पर करें तो फ़िल्म एक विशुद्ध राजनीतिक परिवार की कहानी है. किस तरह राजनीति पारिवारिक सम्बन्धों, प्रेम को खा जाती है, यह फ़िल्म में दिखाया गया है. इसके साथ ही किस तरह से एक मां अपनी संतान के साथ हुए अन्याय के लिए संघर्ष करती है, उसकी कहानी है कसाई. इसके आगे की बात जानने के लिए आप सब लोग फ़िल्म देखिएगा.

अपने बचपन के बारे में बताइये, किस तरह से बचपन को याद करते हैं?

मैं उदयपुर राजस्थान का रहनेवाला हूँ. बचपन वैसे ही बीता जैसे किसी सामान्य भारतीय परिवार में पैदा होने वाले बालक का बीतता है. उस दौर में जीवन सरल, सहज था. आधुनिकता हावी नहीं हुई थी. दिन भर खेलना, कूदना, धूल में दौड़ना, कंचे खेलना प्रिय हुआ करता था. घर परिवार की तरफ़ से कोई दबाव हमारे ऊपर नहीं था. पढ़ने के साथ–साथ हर क्षेत्र में आगे बढ़ने की आज़ादी थी. स्पोर्ट्स, एक्स्ट्रा एक्टिविटी में बढ़ चढ़कर भाग लिया करते थे. आप कह सकते हैं कि शानदार बचपन था.

साहित्य, फ़िल्मों से रिश्ता किस तरह से जुड़ा?

मेरी पढ़ाई लिखाई उदयपुर के सेंट पॉल स्कूल में हुई. इस दौरान पाठ्यक्रम में मौजूद कवियों, लेखकों को पढ़ा करते थे. कहानियों को पढ़ने का शौक़ बचपन से था. हालांकि घर पर फ़िल्में देखने की मनाही थी. चोरी छिपे भागकर फ़िल्में देखने जाया करते थे. मगर उस वक़्त ऐसा कोई ख़्याल नहीं था कि फ़िल्मों से जुड़कर कुछ करना है.

बारहवीं के साथ जब मेरा इंजीनियरिंग में नहीं हो सका तब मैंने एंट्रेंस एग्जाम की फिर से तैयारी की. तब जयपुर के मालवीय नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी में मेकेनिकल इंजीनियरिंग विभाग में मेरा चयन हुआ. उदयपुर से जयपुर आकर बहुत से बदलाव आए. एक ज़िम्मेदारी का एहसास हुआ कि इंजीनियरिंग तय समय सीमा में ही पूरी करनी है.

इस दौरान पढ़ने का समय मिल गया था. हिंदी के तमाम लेखकों को पढ़ा. पल्प फिक्शन में वेद प्रकाश शर्मा, वेद प्रकाश कम्बोज, गुलशन नंदा, कर्नल रंजीत, सुरेन्द्र मोहन पाठक को पढ़ा. इन सब को पढ़कर साहित्य में रूचि जग गई. इस दौरान फ़िल्म देखने का सफ़र भी चलता रहा. मगर उस वक़्त तक भी फ़िल्मों में कुछ करना है ऐसा कुछ नहीं सोचा था.

फिर किस तरह से फ़िल्मों का हिस्सा बने, पहली फ़िल्म ‘भोभर’ से जुड़ी कुछ यादें बताइए?

कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के बाद मैंने कुछ वर्षों तक नौकरी की. नौकरी में मन नहीं लगा तो अपने कॉलेज के ही दोस्तों के साथ बिज़नेस शुरू किया. एक प्रोडक्ट डेवलपमेंट कंपनी के तौर पर हम सॉफ्टवेर डेवलप किया करते. मेरा काम क्लाइंट के सामने सॉफ्टवेर प्रेजेंटेशन का था. इस दौरान मुझे एडिटिंग का काम करना पड़ा. एडिटिंग का काम करते करते रूचि बढ़ी. विडियो शूट करते और फिर एडिटिंग के ज़रिये उसे ख़ूबसूरत बनाते. इस तरह से ऑडियो विज़ुअल मीडियम आकर्षित कर रहा था.

थोड़ा शौक़ बढ़ा तो फिर ऑनलाइन माध्यम पर मौजूद स्क्रिप्ट पढ़ी. स्क्रिप्ट पढ़ते हुए लगा कि मैं भी कुछ लिखूं. उस दौरान कई ऑनलाइन फ़िल्म प्लेटफ़ॉर्म थे, जहाँ कुछ मिनटों की शोर्ट फ़िल्म बनाकर सबमिट कर सकते थे. मैंने ये सब कुछ करना शुरू किया. इसी बीच मेरी एक शोर्ट फ़िल्म को एक प्रतियोगिता में विनर घोषित किया गया. इससे मेरी पहचान फ़िल्मी दुनिया से जुड़े कई लोगों से हुई.

इसी प्रोत्साहन से मैंने सन 2008 में कुछ मित्रों के साथ एक ग्रुप बनाया. साथ ही यह योजना बनाई कि अब शोर्ट फ़िल्म से आगे बढ़कर एक फीचर फ़िल्म बनानी चाहिए. मेरे मित्र और फ़िल्म लेखक रामकुमार सिंह तब एक पत्रिका में काम करते थे और मेरे साथ जुड़े हुए थे. उनकी एक कहानी मुझे पसंद आई और मैंने उसे ही अपनी पहली फ़िल्म का विषय बनाया. फ़िल्म का नाम था ‘भोभर’. इस फ़िल्म का बजट बहुत सीमित था. इस कारण से बहुत कम दिनों में हमें यह फ़िल्म बनानी पड़ी. फ़िल्म के दौरान हर दिन कई कई घंटे सभी ने काम किया.

फ़िल्म बनकर तैयार हुई, 2012 में रिलीज़ हुई और लोगों को पसंद भी आई. इसके बाद कई साल गुज़र गए. कई स्क्रिप्ट लिखीं. मगर अब जाकर फ़िल्म “ कसाई” के ज़रिये मैं फिर से दर्शकों के बीच आया हूँ.

एक स्वतंत्र फ़िल्मकार के रूप में फ़िल्म ‘भोभर’,’कसाई’ बनाने में क्या चुनौतियाँ आईं?

छोटी फ़िल्मों की यात्रा बहुत लम्बी होती है मनीष जी. भोभर और कसाई, दोनों ही फ़िल्मों के निर्माण के दौरान पहली चुनौती थी फंडिंग. जब आप परिपाटी से हटकर कुछ करते हैं, जब आप अपने शहर, गांव, मन के नज़दीक की कहानी को सिनेमा पर कहना चाहते हैं तो यह एक जटिल प्रक्रिया है. आख़िरकार यह एक इंडस्ट्री है जहाँ बहुत सारा पैसा लगा होता है. हर पैसा लगाने वाला सोचता है कि पैसा वापस मिले. इसलिए दोनों फ़िल्मों के निर्माण के दौरान फंडिंग, बजट आदि मुख्य चुनौतियाँ थीं.

अब फ़िल्म को तो आप किसी तरह मित्रों के सहयोग से इकट्ठा हुई धनराशि के ज़रिए बना लेते हैं मगर असली लड़ाई उसके बाद शुरू होती है. लड़ाई फ़िल्म को थिएटर में रिलीज़ करने की. बहुत जद्दोजहद का काम है ये. सबसे पहले तो बड़ी फ़िल्में देश भर की स्क्रीन घेर लेती हैं. अगर छोटी फ़िल्मों को स्क्रीन मिलती भी है तो ऐसे शो टाइमिंग के साथ कि उस वक़्त कोई फ़िल्म देखने नहीं जाता. कोई आपकी फ़िल्म की समीक्षा करने को तैयार नहीं होता. आपकी फ़िल्म रिलीज़ होती है और दो तीन दिन में उतर जाती है.

और इस सबके लिए, अपनी फ़िल्म को थिएटर में रिलीज़ करने की स्थिति तक ले जाने के लिए आपके पास कम से कम 1 करोड़ रूपये होने चाहिए. चाहे फ़िल्म 30 लाख में बनी हो या 50 लाख में. आपको 1 करोड़ चाहिए ही चाहिए रिलीज़ के लिए. अब आप सोचिए, जिस फ़िल्म से कमाने की उम्मीद नहीं उसे आप 1 करोड़ रूपये देकर क्यों रिलीज़ करेंगे.

इसलिए फिर यह फ़िल्में फेस्टिवल्स में जाती हैं. उसमें से भी कुछ ही फ़िल्में सार्थक होती हैं. वहां भेजने की भी एक तय फ़ीस होती है. इस तरह से कई मसले हैं तो नए इंडिपेंडेंट फ़िल्मकारों के सामने चुनौती बनकर खड़े रहते हैं. मगर फ़िल्मकारी का जुनून हर चुनौती पर भारी पड़ता है. फ़िल्मकार हर तकलीफ़ को सहता है और फ़िल्म बनाता है.

हमने बातचीत में ये समझा कि बड़ी फ़िल्में अपनी रिलीज़ पर अधिकतर स्क्रीन, मुफ़ीद फ़िल्म शो टाइमिंग पर कब्ज़ा कर लेती हैं, ऐसे में आज डिजिटल माध्यम नए इंडिपेंडेंट फ़िल्मकार के लिए किस तरह सहायक है?

आज जिस तरह से अमेज़न प्राइम, नेटफ्लिक्स, हॉट स्टार, ज़ी 5 एप के ज़रिए फ़िल्मों को एक ऑनलाइन माध्यम मिला है वह क्रांतिकारी तो है. नए, युवा इंडिपेंडेंट फ़िल्मकार अब अपनी फ़िल्में ऑडियंस तक लेकर जा रहे हैं. यह एक अच्छी प्रक्रिया है. पहले आपकी फ़िल्म थिएटर में नहीं आ पा रही थी. कोई नहीं देखता था. अब लोग ऑनलाइन माध्यम पर आपकी फ़िल्म देखते हैं. फिर इन फ़िल्मों की सराहना करते हैं. इससे फ़िल्मकारों को आर्थिक लाभ भी मिल रहा है. मगर इसके साथ एक दूसरा पहलू भी है.

जब ये सभी ऑनलाइन माध्यम भारत में आए थे तब इन्होंने फ़िल्मकारों को अच्छा पैसा दिया था. मगर अब समय के साथ ये भारतीय परिवेश, ऑडियंस को समझ गए हैं. इनकी सोच, इनका चुनाव भी उसी तरह से हो रहा है. ये भी देखते हैं कि क्या पसंद किया जा रहा है और फिर उस हिसाब से फ़िल्म खरीदते हैं. मगर इन सब बातों के बावजूद, आज इनकी वजह से इंडिपेंडेंट फ़िल्मकार अच्छा कंटेंट बनाने की हिम्मत करता है. अगर सब ठीक रहा तो पैसे भी कमाता है. मैं यह महसूस करता हूँ कि आने वाले दिनों में इस माध्यम से कई और अच्छे इंडिपेंडेंट फ़िल्मकार, कई शानदार कंटेंट वाली फ़िल्में हमको देखने को मिलेंगी.

आगे किस तरह की योजनाएं हैं, वो कौन सा विचार है जो फ़िल्मकार के तौर पर आपको प्रेरित करता है?

अभी तो मैं फ़िल्म ‘कसाई’ को विदेश के कुछ फ़िल्म फेस्टिवल में रिलीज़ करने की सोच रहा हूँ. उसी प्रक्रिया में अभी साउंड और कलरिंग का काम चल रहा है. साथ ही डिजिटल माध्यमों पर भी रिलीज़ करने का काम चल रहा है. मैं कुछ स्क्रिप्ट पर भी काम कर रहा हूँ. जब समय आएगा तो स्क्रिप्ट चुनी जाएगी और आगे फ़िल्म बनाई जाएगी.

फ़िल्म बनाने में मुझे बहुत मज़ा आता है. चाहे कितना भी संघर्ष हो मैं फ़िल्म बनाने के दौरान सब तकलीफ़ें भूल जाता हूँ. नए लोगों को भी यही कहूँगा कि अगर फ़िल्म बनाने का मन है तो कैमरा उठाओ और निकल पड़ो. इसी प्रक्रिया में आप सीखते हैं और यही सीख अच्छी फ़िल्म बनाने में मदद करती है.


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