इमरजेंसी के दौरान बैन हुई ‘आंधी’ की दिलचस्प कहानी


 

सत्तर के दशक की शुरुआत में, मशहूर लेखक–गीतकार गुलज़ार एक कहानी के आइडिया पर काम कर रहे थे. उनके मन में एक आधुनिक राजनीतिक शख्सियत के जीवन पर, फ़िल्म बनाने की इच्छा थी. देश में उस वक़्त प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का शासनकाल था. इंदिरा की छवि हर तरफ बहुत लोकप्रिय थी. गुलज़ार भी इंदिरा गांधी की शख्सियत से प्रभावित थे. इसके चलते, कहीं न कहीं उनके मन में जो अपनी फ़िल्म के मुख्य राजनीतिक किरदार की छवि थी, उसके ऊपर इंदिरा गाँधी की छाप दिखाई दे रही थी. इसके साथ ही, फ़िल्म के मुख्य किरदार पर बिहार की राजनेत्री तारकेश्वरी सिन्हा का भी असर मालूम हो रहा था.

बहरहाल गुलज़ार इस फ़िल्म के आइडिया को लेकर मशहूर फ़िल्म लेखक सचिन भौमिक (फ़िल्म आराधना के लेखक) के पास पहुंचे. दोनों के बीच बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ. सचिन भौमिक ने कहानी का एक शुरुआती खाका खींचा, मगर गुलज़ार को वह पसंद नहीं आई. इसके बाद गुलज़ार की मुलाक़ात हिंदी के बड़े लेखक कमलेश्वर से हुई. कमलेश्वर को जब गुलज़ार ने आइडिया सुनाया तो, उन्होंने इसको लेकर कहानी लिखने का फैसला किया. कमलेश्वर ने कुछ समय में फ़िल्म की कहानी लिख दी. इसके बाद गुलज़ार ने लेखक भूषण बनमाली के साथ फ़िल्म का स्क्रीनप्ले लिखा. कहानी मुख्यतः एक ऐसी राजनीतिक महिला के जीवन पर आधारित थी, जिसके पारिवारिक रिश्ते व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा के आगे कमज़ोर पड़ जाते हैं. बाद में कमलेश्वर ने इसी कहानी में कई फेरबदल करते हुए, ‘काली आँधी’ नाम से उपन्यास लिखा.

जब फ़िल्म की स्क्रिप्ट लिख ली गई तो, गुलज़ार इसे लेकर फ़िल्म प्रोडूसर जे ओमप्रकाश के पास लेकर गए. जे ओमप्रकाश को कहानी पसंद आई और उन्होंने फ़िल्म को प्रोड्यूस करने के लिए हामी भर दी. फिल्म का निर्देशन और गीत लेखन गुलज़ार के ज़िम्मे था. फ़िल्म का नाम तय किया गया ‘आँधी’.

गुलज़ार ने फ़िल्म निर्माण के लिए जब अपनी टीम बनानी शुरू की तो, अपने पसंदीदा लोगों को याद किया. सबसे पहले वो अपने मित्र और मशहूर संगीतकार आरडी बर्मन साहब के पास पहुंचे और उन्हें फ़िल्म की कहानी सुनाई. आरडी बर्मन साहब को कहानी पसंद आई और उन्होंने फ़िल्म में संगीत देने के लिए अपनी सहमति दे दी.

गुलज़ार और आरडी बर्मन बहुत अच्छे मित्र थे. उनके बीच हँसी,मज़ाक़,नोंकझोंक का दौर चलते रहता था. इसी सब में अक्सर फ़िल्म के गीत– संगीत निर्माण के दौरान कई बेहतरीन क़िस्से बन जाया करते थे. ऐसा ही एक शानदार क़िस्सा, इस फ़िल्म के मशहूर गीत के साथ जुड़ा हुआ है.

एक दिन जब गुलज़ार, आरडी बर्मन के घर पहुंचे तो, उन्होंने देखा आरडी बर्मन दुर्गा पूजा के लिए कुछ धुनें बना रहे हैं. गुलज़ार वहीं पर बैठ गए और धुनों को सुनने लगे. इसी बीच गुलज़ार को एक धुन बहुत पसंद आई. उन्होंने फौरन कागज, कलम निकाला और कुछ लिखने लग गए. कुछ देर बाद गुलज़ार साहब आरडी बर्मन से बोले कि उन्हें दुर्गा पूजा के लिए तैयार की गई, ये धुन बहुत पसंद आई है और उन्होंने इस पर गीत लिख दिया है. इसके साथ ही वह चाहते हैं कि इस धुन और इस गीत को फ़िल्म ‘आँधी’ में इस्तेमाल किया जाए.

जब आरडी बर्मन ने गीत पढ़ा तो, उन्हें गीत के बोल बहुत पसंद आए. उन्होंने धुन के फ़िल्म में इस्तेमाल को मंज़ूरी दे दी. इसके बाद गुलज़ार ने आरडी बर्मन से कहा कि इस गाने को फ़िल्माते वक़्त डायलॉग्स का इस्तेमाल भी किया जाएगा. गुलज़ार साहब का इतना कहना था कि बर्मन बिफर गए. उन्होंने गुलज़ार से कहा” तुम ये क्या बोलता है? तुमको कुछ समझ भी है सुर -ताल की? कौन गाने के बीच में डायलॉग्स यूज़ करता है?

गुलज़ार ने बर्मन दा को शांत किया और उन्हें पूरी बात समझाई. जब आरडी बर्मन साहब को लगा कि डायलॉग्स, गीत के चित्रांकन को और ख़ूबसूरत बना देंगे तो उन्होंने अपनी सहमति जता दी. वह गीत जो दुर्गा पूजा की धुन पर लिखा गया उसके बोल थे “तेरे बिना ज़िंदगी से कोई शिकवा तो नहीं.” इसके साथ, पंचम दा की सहमति से इस गीत के बीच में डायलॉग्स इस्तेमाल किए गए. फ़िल्म के गीतों को आवाज़ देने के लिए महान गायक किशोर कुमार, मोहम्मद रफ़ी और गायिका लता मंगेशकर को साइन किया गया.

गीत संगीत निर्माण के बाद फिल्म के किरदारों की कास्टिंग की बात आई. गुलज़ार साहब के मन में मुख्य भूमिकाओं के लिए अभिनेता संजीव कुमार और एक्ट्रेस वैजयंतीमाला के चेहरे थे. संजीव कुमार, उसी वक़्त गुलज़ार साहब की एक और फ़िल्म “मौसम” की शूटिंग कर रहे थे. जब उन्होंने ‘आँधी’ की कहानी सुनी तो फौरन रोल करने के लिए हामी भर दी.

इसके बाद जब गुलज़ार ने वैजयंतीमाला को फ़िल्म की स्क्रिप्ट पढ़ने को दी तो, उन्होंने स्क्रिप्ट पढ़कर फ़िल्म करने से मना कर दिया. इसकी वजह यह थी कि जब वैजयंतीमाला को यह पता चला कि उनका किरदार आरती देवी, इंदिरा गांधी की शख्सियत से प्रेरित है तो वह घबरा गईं. उन्हें लगा की वह रोल को अच्छे से नहीं कर सकेंगी और इसके चलते उन्होंने फ़िल्म छोड़ दी.

इसके बाद फ़िल्म के निर्माताओं ने गुलज़ार से बंगाली अभिनेत्री सुचित्रा सेना से संपर्क करने के लिए कहा. गुलज़ार इस बात से ज़रा संकोच की स्थिति में पड़ गए. इसकी एक खास वजह थी. दरअसल 60 के दशक में गुलज़ार अपनी एक स्क्रिप्ट लेकर सुचित्रा सेन के पास गए थे. स्क्रिप्ट पढ़ने के बाद सुचित्रा सेन ने गुलज़ार को स्क्रिप्ट में कई बदलाव करने के लिए कहा. गुलज़ार ने इस बात से इंकार कर दिया, जिसके चलते सुचित्रा सेन ने फिल्म छोड़ दी. इसके बाद यह फ़िल्म बनी ही नहीं.

खैर संकोच को किनारे रखते हुए गुलज़ार अभिनेत्री सुचित्रा सेन से मिलने पहुंचे. उस वक़्त गुलज़ार अपने काम से देश की एक मशहूर मक़बूल शख्सियत बन चुके थे. जब सुचित्रा सेन ने स्क्रिप्ट सुनी तो उन्हें कहानी पसंद आई. ये गुलज़ार के काम और नाम का असर था कि इस दफे सुचित्रा सेन ने बिना किसी बदलाव के साथ फ़िल्म करने की सहमति जता दी.

इसके बाद फिल्म की शूटिंग शुरू हुई. इसके गीतों को जम्मू-कश्मीर की ख़ूबसूरत लोकेशनों पर फ़िल्माया गया. जहाँ एक तरफ़ गीत “तुम आ गए हो नूर आ गया है” की शूटिंग परी महल गार्डन श्रीनगर में हुई, वही गीत “तेरे बिना ज़िंदगी से कोई शिकवा तो नहीं” की शूटिंग अनंतनाग कश्मीर में स्थित 7वीं शताब्दी में बने विख्यात मार्तंड सूर्य मंदिर के भीतर हुई. एक और गाने “इस मोड़ से जाते है” की शूटिंग पहलगाम में हुई. जब फ़िल्म की रिलीज़ डेट नज़दीक आई तो, हर ओर सरगर्मी का माहौल था. इंदिरा गाँधी के साथ, इसके मुख्य किरदार की समानता चर्चा का विषय था. खैर उस वक़्त, इंदिरा गाँधी की सरकार में सूचना एवं प्रसारण मंत्री रहे इंद्र कुमार गुजराल ने यह फ़िल्म देखी और पास कर दी.

इस तरह 14 फ़रवरी 1975 को फ़िल्म सिनेमाघरों में रिलीज़ हुई. जैसा कि उम्मीद थी फ़िल्म के इंदिरा गांधी के व्यक्तित्व से जुड़े होने की बात लोगों में फैल चुकी थी और इसने एक सनसनी का रूप ले लिया था. फ़िल्म के पोस्टर्स में भी मुख्य किरदार आरती देवी को इंदिरा गांधी के जैसे लुक में दिखाया गया था. इसके साथ ही फ़िल्म में आरती देवी को शराब और सिगरेट का सेवन करते हुए दिखाया गया था. इसको भी इंदिरा गाँधी के जीवन से जोड़कर देखा जा रहा था. इस सबका यह नतीजा हुआ कि रिलीज़ होने के छब्बीस हफ़्तों के भीतर ही फ़िल्म को बैन कर दिया गया.उस वक़्त देश में आपातकाल की घोषणा कर दी गई थी.

जब गुलज़ार साहब को इस बात का पता चला तो उन्होंने अपनी फ़िल्म ‘मौसम’ के साथ ही, फ़िल्म आँधी के उन हिस्सों को दोबारा शूट किया जिनको लेकर सत्ता के लोगों में आपत्ति का भाव था. कुछ महीने बाद जब इमरजेंसी हटी तो फ़िल्म को दोबारा रिलीज़ किया गया. अबकी बार फ़िल्म सुपरहिट साबित हुई. फिल्म के गीत– संगीत को बहुत ज़्यादा पसंद किया गया. उस वक़्त बिनाका गीतमाला में इस फ़िल्म के गीत टॉप पर काबिज़ रहे.

सन् 1977 में जब इंदिरा गाँधी चुनाव हार गईं और जनता पार्टी की सरकार बनी तो, जनता पार्टी ने फ़िल्म ‘आँधी’ को राज्य द्वारा संचालित टीवी चैनल पर प्रसारित करवाया. सुचित्रा सेन के फ़िल्मी करियर में यह फ़िल्म मील का पत्थर साबित हुई. बतौर अभिनेत्री सुचित्रा सेन की ये आखिरी हिंदी फ़िल्म भी रही.

इस फ़िल्म में संजीव कुमार का अभिनय भी शानदार रहा और इसके लिए उन्हें ‘सर्वश्रेष्ठ अभिनेता’ के फ़िल्मफेयर अवार्ड से नवाज़ा गया. संजीव कुमार ने बाद में इस बात को क़ुबूल किया कि उनके किरदार की प्रेरणा फ़िरोज़ गाँधी से ली गई थी. इसके साथ ही गुलज़ार साहब को फ़िल्म ‘आँधी’ के लिए ‘सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म क्रिटिक’ के फ़िल्मफेयर पुरुस्कार से सम्मानित किया गया. इस तरह तमाम अड़चनों के बीच गुलज़ार की फ़िल्म “आँधी” ने अपना मक़ाम हासिल किया.


बॉलीवुड