सोनचिड़िया: एक बीहड़ के भीतर कई बीहड़


sonchidiya a abhishek chaubey film

 

मध्य प्रदेश का चंबल का इलाका एक बीहड़ के रूप में मशहूर है. एक ऐसा इलाका जहां मानसिंह, मोहर सिंह, मलखान सिंह और लुक्का जैसे डाकुओं का दबदबा था. वैसे ये अपने को डाकू नहीं कहते थे. बागी कहते थे. और यही कहलवाना पसंद करते थे. वक्त के साथ इनमें से कुछ खुद मर गए, कुछ मारे गए और कुछ ने आत्मसमर्पण कर दिया. पर डाकू या बागी बनने का सिलसिला कायम रहा. अभिषेक चौबे की फिल्म `सोनचिड़िया’ भी चंबल के इस इलाके पर आधारित एक डाकू कथा है. लेकिन क्या ये सिर्फ यही है? या इसमें और भी कुछ है?

दरअसल ये फिल्म ये दिखाती है कि चंबल के इस बीहड़ में कई तरह के बीहड़ हैं. ये सिर्फ भौगोलिक बीहड़ नहीं है. ये एक सामाजिक बीहड़ भी है. ये लैंगिक विषमता का भी बीहड़ है. कौन सा बीहड़ ज्यादा दुरुह और प्रताड़ित करनेवाला है, इस बारे में कोई निष्कर्ष निकालना कठिन है. शायद ये कहना सही होगा कि ये बीहड़ों का एक ऐसा चक्रव्यूह है जिससे पार निकलना मुश्किल है. और इस चक्रव्यूह की जद में पूरा भारत है. लेकिन ये एक अलग मसला है. फिलहाल चंबल और इस फिल्म तक ही अपने को सीमित रखें.

फिल्म उस डाकू मानसिंह पर आधारित है जो चंबल के इलाके में दंतकथा की तरह प्रसिद्ध था. पर फिल्म का मानसिंह कितना वास्तविक है और कितना कल्पित है ये कहना कठिन है. दोनों आपस में मिले हुए हैं. यहां जो मानसिंह दिखता है वो पश्चाताप से घिरा हुआ है. उसे लगता है कि बहुत पहले एक डकैती करते हुए एक गूजर परिवार की बच्चों/बच्चियों को गलत फहमी में मारकर उसने एक बड़ा पाप किया है. ये पापबोध सिर्फ उसका नहीं है. उसके गिरोह के एक और सदस्य लखना का भी है. लखना भी जब नदी में पानी पीने जाता है तो उसे पानी में उस मृत लड़की की सूरत का आभास होता है जो उस वाकये में मारी गई थी. इस पाप बोध ने दोनों को अपराध बोध से भर दिया है.

फिल्म इस अपराधबोध तक नहीं रूकती. वो बदले की भावना तक जाती है. पुलिस अधिकारी वीरेंदर गुज्जर खुद उसी गुजर परिवार का है जिसकी बच्चियां गोलियां की शिकार बनी थीं. वो बदला लेता है. मानसिंह को मारता है और लखना का पीछा करता है. और फिर ठाकुर जाति के पुलिसवालों के हाथों मारा जाता है. इस तरह चंबल के इस बीहड़ में जातियुद्ध भी चल रहा है. मानसिंह के गैंग मे ठाकुर हैं और गूजर उनके विरोधी हैं. और एक तीसरी जाति भी है. मल्लाह की. मल्लाह किसका साथ देंगे. ठाकुर जाति के डाकुओं का या गूजर जाति के पुलिस अधिकारियों का. पर मलाह गैंग की सरदारिन फुलवा (जो फूलन देवी से प्रेरित चरित्र है) का कहना – ब्राह्मन, ठाकुर, गुजर आदि तो मर्दों के जात होते हैं और औरतों की तो कोई जात नहीं होती. क्यों? इसलिए हर जाति के पुरुष या मर्द औरतों पर जुल्म करते हैं. सिर्फ दूसरी जाति के औऱतों पर नहीं. अपनी जाति की औरतों पर भी. फिल्म में ये संकेत किया गया है कि ठाकुर परिवार का बुजुर्ग व्यक्ति अपनी बहू के साथ नाजायज संबंध स्थापित करता है और एक दलित जाति की बच्ची के साथ भी. बहू अपने श्वसुर को मार देती है.

`सोनचिडिया’ सिर्फ सामाजिक या लैंगिक तनावों को ही सामने नहीं लाती है. ये मन के उस गह्वर में भी प्रवेश करती है जहां कई तरह की परस्पर विरोधी भावनाएं विराजमान होती हैं. मानसिंह ठाकुर है. डाकू है. लेकिन वो सिर्फ दुर्दांत हत्यारा भर नहीं है. उसके अंदर वो कोना भी है भी जहां जहां उसे कुछ गलत करने का बोध है. और लखना भी ठाकुर है. वो भी लोगों की हत्या करता है. लेकिन वो भी उस दलित लड़की को अस्पताल पहुंचाने के लिए अपनी जान की बाजी लगाता है. ये जानते हुए कि ऐसा करने से उसकी मौत हो सकती है. और हो भी जाती है. लेकिन बरसों पहले किए गए अपने पाप का प्रायश्चित करने के लिए वो खतरा उठाता है.
फिल्म कई तरह की जटिल संवेदनाओं को समेटे हुए है. ये समाज में और व्यक्ति के भीतर चलने वाले कई तरह के घमासानों की तरफ संकेत करते हैं. ये उस `स्टीरियोटाइपिंग’ को भी ध्वस्त करती है जिसके तहत हम लोगों के बारे मे किसी तरह की राय बना लेते हैं. हर व्यक्ति चाहे वो पुलिस वाला हो या डाकू अपने भीतर कई व्यक्तित्वों को समेटे रहता है.


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