साख है तो लोकतंत्र है


Election Commission refuses to change voting time in Ramzan month

 

मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों के रख-रखाव में (जानबूझ कर या अनजाने में) हुई लापरवाही की खबरें बेहद चिंताजनक हैं. अपने देश में ईवीएम और चुनावी प्रक्रिया की साख पर पहले से ही सवाल खड़े हैं. ताजा घटनाओं से संदेह और गहराएंगे. अफ़सोसनाक है कि निर्वाचन आयोग ने सही समय पर इस बारे में खड़े विवादों का निपटारा नहीं किया. बल्कि खुद आयोग का आचरण विवादास्पद रहा है. चुनाव तारीखों को तय करने से लेकर आदर्श चुनाव आचार संहिता का पालन कराने और ईवीएम पर पैदा हुए शक के मामलों में उसका हालिया रिकॉर्ड संदिग्ध रहा है.

ईवीएम पर प्रश्न इसलिए खड़े हुए, क्योंकि गुजरे लगभग हर चुनाव के मौके पर इनमें एकतरफ़ा गड़बड़ियां सामने आईं. मतलब यह कि अनेक जगहों पर ऐसे मामले सामने आए, जहां बटन चाहे किसी निशान के सामने दबाया गया, वोट कमल निशान को ही गया. ये सवाल उठना लाजिमी है कि मशीन में खराबी आने का फ़ायदा किसी और पार्टी को क्यों नहीं मिलता है? अब ऐसे दावे निराधार हो चुके हैं कि ईवीएम में हेरफेर नहीं हो सकती. अगर ऐसा नहीं होता, तो आखिर सुप्रीम कोर्ट ईवीएम के साथ-साथ वीवीपैट (वोटर वेरिफियेबल पेपर ऑडिट ट्रेल) मशीनों के इस्तेमाल का आदेश सुप्रीम कोर्ट क्यों देता? अब यह भी कोई भरोसे से नहीं कह सकता कि वीवीपैट मशीनें भी हेरफेर की संभावना से पूरी तरह मुक्त हैं. वैसे अब विकसित देशों में भी यही समझ बनी है कि इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनें हैकिंग फ्री नहीं हैं.

दरअसल, मतदान कराने का तरीका जो भी हो, उसकी निगरानी करने वाली संस्था का रुख अगर निष्पक्ष नहीं हो, तो चुनाव की पवित्रता सुनिश्चित नहीं की जा सकती. अपने देश में, जिस समय निर्वाचन आयोग के आचरण पर सवाल हों, अगर ईवीएम के रखरखाव में गड़बड़ियां या लापरवाही सामने आने लगे, तो चिंता पैदा होना लाजिमी है. इसीलिए मध्य प्रदेश (और छत्तीसगढ़ से भी) आई खबरें परेशान करने वाली हैं. ऐसी स्थिति तब तक बनी रहेगी, जब तक इस बारे में निर्वाचन आयोग खुद पारदर्शी ढंग से सामने आकर विश्वसनीय कार्रवाई नहीं करता. निर्वाचन आयोग के कर्ता-धर्ताओं को यह अवश्य याद रखना चाहिए कि भारत में इस संस्था का रसूख और विश्वसनीयता दोनों टीएन शेषन के जमाने में सुदृढ़ हुई थी, जब तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त ने निडर और निष्पक्ष कदम उठाए और चुनावों की पवित्रता को अखंड बनाने की कोशिश की थी.

आज के प्रातिनिधिक (representative) लोकतंत्र में चुनावों की विश्वसनीयता सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू है. जिन देशों में यह कायम हुई है, वहां पराजित होने वाली पार्टियां और पक्ष बेहिचक अपनी हार स्वीकार कर लेते हैं. हार के बाद वे नए सिरे से बहुमत का समर्थन जुटाने की कोशिश करते हैं. लेकिन अगर यह धारणा बने कि उनकी हार जन-समर्थन के अभाव के कारण नहीं, बल्कि चुनाव प्रक्रिया में हेरफेर के कारण हुई, तो फिर वे जनादेश, निर्वाचित सरकार और लोकतांत्रिक संस्थाओं- सबको चुनौती देने लगते हैं. इस क्रम में पैदा हुआ जनाक्रोश घातक साबित होता है. अनेक देशों के उदाहरण इस बात की तस्दीक करते हैं.

हम भारत में अपनी जिन उपलब्धियों पर गर्व करते हैं, उनमें संसदीय लोकतंत्र की सफलता सर्व-प्रमुख है. यह याद रखना चाहिए कि चुनावों की साख गिरी तो हमारी राजसत्ता की वैधता भी प्रभावित होगी, जिसके नतीजे खतरनाक होंगे.


दीर्घकाल