सच पर झूठ का परदा!


manipulation of statics of gdp

 

तो भारत के पूर्व मुख्य सांख्यिकीकार (Chief Statistician) टीसीए अनंत ने राज़ खोल दिया है. यह बता दिया है कि केंद्रीय सांख्यिकी कार्यालय (CSO) ने सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) को मापने के आधार वर्ष में बदलाव के बाद बैक सीरीज़ डेटा तैयार कर लिया था. लेकिन नीति आयोग ने उसे जारी नहीं करने दिया.

गौरतलब है कि नरेंद्र मोदी सरकार ने सत्ता में आने के बाद जीडीपी मापने का आधार वर्ष 2004-05 से बदलकर 2011-12 कर दिया था. इससे जीडीपी की दर में वृद्धि दिखने लगी. जब कभी आधार वर्ष बदला जाता है, तब प्रचलन यह है कि नई कसौटी के आधार पर बीते वर्षों के आंकड़ों की फिर से गणना की जाती है. यानी यह देखा जाता है कि वर्तमान मानदंड तब होते, तो उस समय जीडीपी की वृद्धि दर क्या होती.

यह लाजिमी है कि नए फॉर्मूले के मुताबिक बीते वर्षों की वृद्धि दर ज्यादा दिखे. सीएसओ के आकलन से ऐसा ही हुआ. पूर्व यूपीए सरकार के समय की वृद्धि दर इसलिए मौजूदा एनडीए सरकार के कार्यकाल से ज्यादा दिखी, क्योंकि हाल के वर्षों में वास्तव में वृद्धि दर तब की तुलना में गिर गई है. लेकिन मोदी सरकार को यह दिखाना गवारा नहीं हुआ. वैसे इसमें कोई हैरत की बात नहीं है, क्योंकि ये सरकार इतिहास से लेकर वर्तमान तक को अपने रंग में ढालने की कोशिश में जुटी हुई है.

पिछले दिनों आखिरकार राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग ने बैक सीरीज आंकड़ों की जो गणना की थी, वह सामने आई. इससे साफ हुआ कि यूपीए के दौर में जीडीपी की वृद्धि दर पिछले चार वर्षों की तुलना में ज्यादा रही थी. लेकिन तब सरकार ने इसे वापस ले लिया. उसके बाद आंकड़े दोबारा जारी किए गए. उसमें सरकार की मंशा के मुताबिक यूपीए के शासनकाल में रही दर को घटा कर दिखाया गया. उल्लेखनीय है कि सीएसओ के बैक सीरीज आंकड़ों को नीति आयोग ने जारी नहीं होने दिया था.

अब बैक सीरीज के आंकड़ों को नीति आयोग ने जारी किया है. जबकि आम समझ यह है कि नीति आयोग का जीडीपी की गणना से कोई संबंध नहीं है. नीति आयोग की भूमिका अलग है. सांख्यिकी अलग विशेषज्ञता का काम है. उसका काम नीति आयोग करे, यह आश्चर्यजनक है. दरअसल, यह चिंताजनक भी है.

इस सिलसिले में यह धारणा उचित ही बनी है कि मौजूदा सरकार को अक्सर सच असुविधाजनक महसूस होता है. और तब वह सच को गढ़े गए तथ्यों और बनावटी कहानी से ढकने की कोशिश करती है. लेकिन यह खतरनाक है. आंकड़ों की पवित्रता लोकतंत्र की बुनियादी शर्त है. अगर आंकड़े विश्वसनीय नहीं हों, तो किसी बहस या विचार-विमर्श से ऐसे किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता, जो सबको स्वीकार्य हो. तब सभी अपनी-अपनी कहानी गढ़ने को आज़ाद होंगे.

आम तौर पर तानाशाही व्यवस्थाओं में यही होता है. इसलिए कि वहां सर्वमान्य आंकड़े उपलब्ध नहीं होते. सर्वोच्च नेता जो कहे, शासन-व्यवस्था उसे ही सच के रूप में प्रचारित करती है. लेकिन इससे सीमित मकसद ही सधते हैं. इसलिए कि दीर्घकालिक तौर पर सच से इतर कहानी में लोगों का भरोसा बनाए रखना संभव नहीं होता.

दुर्भाग्यपूर्ण है कि वर्तमान सत्ताधारी इसे और इसके परिणामों को समझने की दूरदृष्टि नहीं दिखा रहे हैं. हिंदू परंपरा के जिन ग्रंथों का वे महिमामंडन करते हैं, उनमें ही ‘सत्यमेव जयते’ लिखा है. बहरहाल, इस इतिहास-सिद्ध सूक्ति से अलग व्यवहार से वह हासिल होना कठिन है, जो ये सरकार करना चाहती है.


दीर्घकाल