जब विभीषण का धीरज टूट गया!


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यह अति असमान धरातल पर हो रहा मुकाबला है. संवैधानिक संस्थाओं का संदिग्ध रुख स्वस्थ और ईमानदार प्रतिस्पर्धा की अपेक्षाओं को लगातार धूमिल करता गया है. सबसे ज्यादा निराशाजनक भूमिका निर्वाचन आयोग की है. सत्ताधारी पक्ष के खिलाफ सख्त कदम उठाने का साहस वह नहीं दिखा रहा है- ऐसी धारणा तो काफी समय से बन रही थी. अब निष्पक्ष रेफरी बने रहने की उसकी इच्छा और इच्छा-शक्ति पर भी शक पैदा होने लगा है. बल्कि विपक्षी हलकों में यह कहा जाने लगा है कि निर्वाचन आयोग एकतरफा कदम उठा रहा है.

ऐसी परिस्थितियों में उम्मीद न्यायपालिका पर टिकती है. मगर अब तक वहां से भी कोई राहत मिलती नजर नहीं आई है. दरअसल, हर कीमत पर स्वतंत्र, निष्पक्ष एवं विश्वसनीय चुनाव कराने की संवैधानिक संस्थाओं की तत्परता पर आज गहरे सवाल हैं. इस पृष्ठभूमि में आशंका है यह है कि 23 मई को जो चुनाव परिणाम आएंगे, मुमकिन है कि बहुत से लोगों के लिए उसे सहज स्वीकार करना आसान ना हो. इस स्थिति को बदलने के लिए तुरंत कदम उठाने की जरूरत है. मगर सवाल यही है कि ये कदम कौन उठाएगा?

यह याद रखने की जरूरत है कि संसाधनों और सामाजिक शक्ति के लिहाज पहले से भारतीय जनता पार्टी बेहद मजबूत स्थिति में है. कॉरपोरेट सेक्टर का दांव उसके ऊपर है. कॉरपोरेट नियंत्रित मीडिया का बहुत बड़ा हिस्सा उसके प्रचार तंत्र के रूप में काम कर रहा है. हमेशा मुखर रहने वाले मध्य वर्ग की वह प्रिय पार्टी है. वर्चस्व रखने वाले सामाजिक तबकों का समर्थन उसके साथ है. इससे उसकी मजबूती का अंदाजा लगाया जा सकता है.

दूसरी तरफ विपक्षी दल एकजुटता दिखाने की तमाम कोशिशों के बावजूद अपनी पूरी ताकत को एकजुट करने में सफल नहीं हो सके. बीजेपी की तुलना में संसाधनों की उनकी कमी जग-जाहिर है. केंद्र सरकार ने अपनी जांच एवं अन्य एजेंसियों को उनके नेताओं के खिलाफ खुला छोड़ रखा है. इससे बने भय के माहौल का अंदाजा लगा सकता है. इनमें से ज्यादातर दलों का आधार राज्य स्तरों पर ऐसे तबकों के बीच है, जिनकी आवाज अक्सर ऊपर तक नहीं पहुंच पाती. सदियों से वे वंचित और कमजोर हालत में रहे हैं. इन दलों के लिए उम्मीद की वजह सिर्फ यह है कि ये तबके बहुसंख्या में हैं. यानी संख्या बल विपक्ष के साथ है. मगर अकूत संसाधनों, धुआंधार प्रचार और निष्पक्ष चुनाव कराने के प्रति संवैधानिक संस्थाओं के कमजोर पड़े इरादे के बीच क्या उसके समर्थक माने जाने वाले मतदाता वास्तव में निर्णायक साबित हो सकेंगे, यह बड़ा प्रश्न है.

इस परिस्थिति में सहज ही राम चरित मानस का एक प्रसंग याद हो आता है. प्रसंग यह है कि विभीषण (रावण का भाई) पाला बदल कर राम के पक्ष में आया और युद्ध मैदान में पहुंचा. वहां एक तरफ रावण और उसके साथ बड़े-बड़े महाबली थे, जो तमाम तरह के संसाधनों और अस्त्र-शस्त्र से लैस थे. दूसरी तरफ राम की सेना थी, जिसमें हनुमान, बंदर, भालू आदि की भरमार थी. इस सूरत को देख कर विभीषण की जो मनोदशा बनी, उसका चित्रण तुलसी दास ने इन पंक्तियों में किया है- ‘रावण रथी विरथी रघुवीरा, देख विभीषण भयउ अधीरा.’ यानी विभीषण अधीर हो गया- उसका धीरज टूट गया.

आज विपक्ष से सहानुभूति रखने वाले किसी व्यक्ति का यही हाल हो सकता है. बहरहाल, रामायण की कथा में बताया जाता है कि सत्य राम के साथ था, इसलिए तमाम साधनहीनता के बावजूद जीत उनकी ही हुई.

इस चुनाव में सत्य किसके साथ है, इस बारे में हमारी कोई राय नहीं है. हमारी चिंता सिर्फ यह है कि चुनाव स्वतंत्र और निष्पक्ष हों. इसमें सभी पक्षों को अधिकतम समान धरातल मुहैया हो, इसे सुनिश्चित करने की व्यवस्था होनी चाहिए. इसलिए कि यह लोकतंत्र का बुनियादी सिद्धांत है. जहां भी चुनाव प्रक्रिया संदिग्ध होती है, वहां लोकतंत्र दांव पर लग जाता है. इसीलिए भारत में जिसकी भी आस्था संवैधानिक मूल्यों और लोकतंत्र के मूलभूत सिद्धांतों में है, वह मौजूदा हालात को लेकर चिंतित होगा.


दीर्घकाल