बंटा हुआ फैसला


editorial on power division between delhi government and center

 

सुप्रीम कोर्ट ने बंटा हुआ फैसला दिया है. नतीजतन, दिल्ली में अधिकारों का सवाल उलझा ही रह गया है. दिल्ली में मुख्य मसला निर्वाचित सरकार के कामकाज में उपराज्यपाल के जरिए केंद्र सरकार का दखल रहा है. ये समस्या पुडुचेरी में भी रही है, जो फिर से भड़क उठी है.

इस संकट की वजह जनता द्वारा चुनी हुई सरकार और केंद्र द्वारा नियुक्त उपराज्यपाल के बीच का टकराव ही है. जाहिर है कि इस टकराव से दोनों जगहों की जनता का काफी नुकसान हो रहा है.

दिल्ली के प्रशासनिक अधिकारों को लेकर सुप्रीम कोर्ट के जज- एके सीकरी और अशोक भूषण की पीठ इस मसले को लेकर विभाजित रही. मतभेद का मुद्दा था कि नौकरशाही से संबंधित फैसले लेने का अधिकार दिल्ली सरकार को दिया जाए या उपराज्यपाल को. अब इस मामले का निपटारा सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यों की बड़ी बेंच करेगी.

उधर पुड्डुचेरी के मुख्यमंत्री वी नारायणसामी वहां की उप-राज्यपाल किरण बेदी के खिलाफ उनके सरकारी आवास के सामने धरने पर बैठे हैं.

नारायणसामी का कहना है कि पिछले कुछ हफ्तों में उपराज्यपाल के पास 39 सरकारी प्रस्ताव भेजे गए, लेकिन किसी भी प्रस्ताव को उन्होंने मंजूरी नहीं दी. अब कांग्रेसी मुख्यमंत्री केंद्र सरकार से किरण बेदी को उनके पद से हटाने की मांग कर रहे हैं.

भारत के सात केंद्र शासित प्रदेशों के बीच दिल्ली और पुड्डुचेरी की स्थिति थोड़ी अलग है. इन दोनों की अपनी निर्वाचित विधानसभाएं हैं. दोनों जगहों पर जनता द्वारा चुनी हुई सरकारें हैं. इन दोनों केंद्र शासित प्रदेशों को आंशिक राज्य का दर्जा देने के लिए बने कानूनों में थोड़ा अंतर है.

मसलन, दिल्ली के उप-राज्यपाल के पास ‘कार्यकारी शक्तियां’ हैं. फिर भी प्रशासनिक अधिकारों को लेकर यहां एक किस्म की अस्पष्टता रही है. इस अस्पष्टता ने ही चुनी हुई सरकार और उपराज्यपाल के बीच के अंतर्विरोध को बढ़ाया है. जब तक उपराज्यपाल का चुनी हुई सरकार के प्रति सहयोग रहता है, तब तक सरकार के फैसले लागू होते रहते हैं.

जैसे ही उप-राज्यपाल अपनी ताकत दिखाना शुरू करते हैं, चुनी हुई सरकार एक तरह से अप्रासंगिक नजर आने लगती है. यहां इस बात का भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि जनता के प्रति जवाबदेह चुनी हुई सरकार है, ना कि उपराज्यपाल.

भारत की प्रशासनिक व्यवस्था संघीय ढांचे पर आधारित है. अपेक्षा यह रहती है कि केंद्र और राज्यों/केंद्र शासित प्रदेशों का रिश्ता आपसी समन्वय और समझदारी से चले. वैसे कई दफा इस रिश्ते में तनाव भी आए हैं. लेकिन, 2014 में केंद्र की सत्ता में आने के बाद से नरेंद्र मोदी सरकार विपक्षी दलों की राज्य सरकारों के साथ सहयोग का रिश्ता बनाए रखने में नाकाम रही है.

दरअसल, उसकी ऐसी कोई इच्छा भी नहीं दिखी है. बीजेपी के नेतृत्व वाली एनडीए की सरकार पर राज्यपालों और उप-राज्यपालों के दुरुपयोग की आरोप गहराते गए हैं. अन्य संवैधानिक संस्थाओं के साथ भी उसका रिश्ता समस्याग्रस्त रहा है.

ऐसे में आखिरी उम्मीद न्यायपालिका पर जाकर टिक जाती है. हाल में कई मौकों पर न्यायपालिका के रुख से मायूसी हाथ लगी है. ऐसा ही उपराज्यपाल बनाम दिल्ली सरकार के विवाद में भी हुआ है. जिस मामले को जल्द निपटाने की जरूरत थी, वह कई न्यायिक फैसलों के बावजूद उलझा ही हुआ है.


दीर्घकाल