नाकामियां तो जग-जाहिर हैं


editorial on terrorist attack in pulwama

 

14 फरवरी को जम्मू-कश्मीर के पुलवामा में हुए आतंकवादी हमले में लगभग 40 सीआरपीएफ जवानों की मौत ने देश को झकझोर दिया है. उचित ही है कि सत्ता पक्ष और विपक्ष के दलों और नेताओं ने एक स्वर में इसकी निंदा की है.

आतंकवाद जैसी समस्या पर सारा देश एकजुट होकर बोले यह अपेक्षित है. लेकिन ताजा आतंकवादी हमले ने कई ऐसे मुद्दों की तरफ ध्यान खींचा है, जिन पर गंभीरता से विचार करने की जरुरत है. यह साफ है कि पुलवामा में सुरक्षा संबंधी चूक हुई. उसके साथ ही कश्मीर और आतंकवाद के सवालों पर सामने आई राजनीतिक नाकामियों को भी नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता.

पहली बात यह कि जिस आतंकवादी संगठन जैश-ए-मोहम्मद ने इस घटना की जिम्मेदारी ली है, मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक वह तेजी से कश्मीर में फैल रहा है. इस हमले के अलावा पिछले कुछ महीनों में उसने कश्मीर में 10 से ज्यादा ग्रेनेड हमलों को भी अंजाम दिया है.

दूसरी तरफ जैश-ए-मोहम्मद के मुखिया मसूद अजहर को संयुक्त राष्ट्र द्वारा वैश्विक आतंकवादी घोषित कराने की राह में चीन अड़ंगा बना हुआ है. एक तरह से यह भारत की कूटनीतिक असफलता भी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चीन से दोस्ती बढ़ाने की कोशिश में रहे हैं. लेकिन चीन को भारत की इस अहम चिंता से वे वाकिफ नहीं करा पाए. चीन संयुक्त राष्ट्र में मसूद अजहर को संरक्षण देना जारी रखे हुए है.

फिर पुलवामा में जिस तरह से कार के जरिए आत्मघाती हमला किया गया, वह काफी चौंकाने वाला है. कश्मीर में ऐसा हमला आखिरी बार लगभग दो दशक पहले हुआ था. ज्यादातर अफगानिस्तान और सीरिया जैसे युद्धग्रस्त क्षेत्रों से ऐसे हमलों की खबरें आती हैं. इस प्रवृत्ति का भारत पहुंचना बेहद चिंता की बात है. 

इसी से जुड़ा मसला कश्मीर जैसे आतंकग्रस्त क्षेत्र में स्टैंडर्ड ऑपरेटिंग प्रोटोकॉल के पालन का है. खुफिया जानकारी के बावजूद जिस तरह सीआरपीएफ का कारवां हमलावर का शिकार बन गया, वह इस प्रोटोकॉल के पालन में नाकामी की तरफ इशारा करता है.

जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक ने सुरक्षा में हुई गंभीर चूक को स्वीकार किया है. जम्मू-कश्मीर में फिलहाल राष्ट्रपति शासन है.

पिछले साल पीडीपी के साथ अपने गठबंधन को बीजेपी ने तोड़ दिया था. उसके बाद मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती की सरकार गिर गई. वह पूरा प्रकरण काफी विवादास्पद रहा. अनेक विशेषज्ञों की राय है कि बीजेपी की राजनीति ने कश्मीरियों को अलगाव में डाला है. इसका परिणाम कश्मीर को भुगतना पड़ रहा है.

तथ्यों से साफ जाहिर है कि पिछले कुछ सालों में आतंकवादी घटनाएं कश्मीर में तेजी से बढ़ी हैं. वेबसाइट फैक्टचेकर के आंकड़ों के अनुसार 2014 में आतंकवादी हमलों की संख्या 90 थी और उनमें 188 जानें गईं. 2018 में आतंकी हमलों की संख्या बढ़कर 205 हो गई और 457 लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी.

ऐसा माना जाता है कि हिज्बुल मुजाहिद्दीन के कमांडर बुरहान वानी के मारे जाने के बाद से आतंकवादी संगठनों की पकड़ कश्मीरी युवाओं के बीच मजबूत हुई है. कश्मीर में आतंकवाद समस्या को हल करने के लिए कोई कदम उपरोक्त हकीकत को नजरअंदाज कर नहीं उठाया जा सकता. इस दिशा में किसी ठोस नीति को बनाने की जिम्मेदारी केंद्र और राज्य की सत्ता पर है. और इस मामले में वह अब तक नाकाम है.


दीर्घकाल