कांग्रेस के लिए विचारणीय


editorial on congress win in assembly election

 

कांग्रेस के लिए यह अच्छी खबर है कि तीन राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में उसकी सरकार बनने जा रही है. लेकिन मध्य प्रदेश और राजस्थान विधान सभाओं के चुनाव में रहे वोट प्रतिशत पर गौर करें, तो उसके लिए ज्यादा खुश होने की बात नज़र नहीं आती. मध्य प्रदेश में तो वोट पाने के मामले में वह भारतीय जनता पार्टी से पीछे रही. यहां कांग्रेस को 40.9 प्रतिशत वोट मिले, जबकि बीजेपी को 41 प्रतिशत. राजस्थान में उसे (39.3 प्रतिशत) बीजेपी (38.8 फ़ीसदी) की तुलना में महज आधा फ़ीसदी वोट ज्यादा मिले.

2013 के चुनाव से तुलना करें, तो मध्य प्रदेश में बीजेपी को लगभग पौने पांच प्रतिशत मतों का नुकसान हुआ, तो राजस्थान में ये आंकड़ा 7 फ़ीसदी रहा. ध्यान देने की बात यह है कि जो लोग बीजेपी सरकारों से नाराज हुए, उनमें से भी बहुत से लोगों के समर्थन को अपनी तरफ खींचने में कांग्रेस नाकाम रही.

बहरहाल, इन नतीजों का असली संदेश यह नहीं है. वो पैगाम यह है कि बीजेपी के अपने समर्थन आधार में कहीं ज्यादा सेंध नहीं लगी है. ये पैटर्न लगभग पूरे देश में एक जैसा है. नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद धनी, शहरी, सवर्ण और हिंदुत्व की भावना से प्रेरित मतदाताओं की जो गोलबंदी हुई, वह पांच साल बाद भी लगभग कायम है. मोटे तौर पर यह एक तिहाई मतदाताओं का ध्रुवीकरण है. 2013-14 से हुए किसी चुनाव में इससे कम वोट बीजेपी को नहीं मिले.

ताजा चुनावों में छत्तीसगढ़ इसका एक अपवाद लग सकता है, जहां 2013 (42.3 प्रतिशत) की तुलना में बीजेपी के वोटों में लगभग 9 फ़ीसदी की गिरावट आई है। बहरहाल, यहां इस बार भी बीजेपी को 33 प्रतिशत वोट मिले.

ये रूझान क्या कहते हैं? सीधी बात है कि पिछले चार वर्षों में अर्थव्यवस्था की बदहाली, नोटबंदी, विकास और भ्रष्टाचार मिटाने का वादा टूटने, सामाजिक अशांति आदि के बावजूद बीजेपी का अपना मूल आधार सुरक्षित है. इसे इस रूप में भी कहा जा सकता है कि खुद को सभी धर्मावलंबियों की पार्टी बताने के साथ-साथ अपनी हिंदू पहचान पर खास जोर देने की कांग्रेस की रणनीति से कोई फर्क नहीं पड़ा है.

आज अगर तीन राज्यों की सत्ता में कांग्रेस की वापसी हो रही है, तो उसमें इस पहलू का कोई योगदान नहीं है. बल्कि जिस पहलू से यह संभव हुआ है, वह है कांग्रेस कृषि संकट को मुद्दा बनाते हुए किसानों से बड़े वादे करना और बीजेपी से परेशान लोगों का विकल्प की तलाश करना. अब देखने की बात यह होगी कि कांग्रेस किसानों से किए वादे को किस हद तक लागू कर पाती है. राज्यों की राजकोषीय हालत को देखते हुए यह आसान नहीं होगा. बहरहाल, उसने ऐसा करने की तत्परता दिखाई, तो कृषि एवं ग्रामीण संकट से परेशानी देश की बाकी आबादी का समर्थन अगले साल लोक सभा चुनाव में उसे मिल सकता है.

इसके बावजूद यह पार्टी के पुनरुद्धार का पूरा फॉर्मूला साबित नहीं होगा. असली सवाल है कि क्या कांग्रेस प्रगति और सामाजिक-आर्थिक विकास का कोई नया एजेंडा देश के सामने रख पाएगी? फिलहाल राहुल गांधी ने ये उम्मीद जगाई है कि वो ऐसा करने में सक्षम हैं. आम इनसान से जुड़े बुनियादी सवालों पर उन्होंने सही समझ दिखाई है. लेकिन पार्टी कार्यक्रम के रूप में इसे तब्दील करने की चुनौती अभी बाकी है. फिलहाल, यह जरूर कहा जा सकता है कि कांग्रेस नेता जितनी ताकत या ऊर्जा खुद की हिंदू छवि पेश करने में लगा रहे हैं, उतना अगर वे अपनी नई काबिल-ए-यकीन जन-पक्षीय (plebeian) राजनीति को विकसित करने में लगाएं तो उससे पार्टी के साथ-साथ देश का भी ज्यादा भला होगा.


दीर्घकाल